Skip to main content

राजस्थान के लोक नाट्य

राजस्थान में लोक नाट्य जन जीवन को सदैव आह्लादित करते रहे हैं। गीतों व नृत्यों की प्रधानता लिए इन लोक नाट्य में दर्शकों एवं अभिनेता के बीच दूरी प्रायः नहीं होती है। अधिकतर इनमें वेशभूषा प्रतीकात्मक ही होती है। ये लोकनाट्य अधिकतर ऐतिहासिक व पौराणिक आख्यानों पर आधारित होते हैं लेकिन आजकल इनमें समसामयिक राजनीति और शासन व्यवस्था को भी अभिव्यक्त किया जाने लगा है। वैसे तो इनमें पुरुष व स्त्री दोनों ही भाग लेते हैं लेकिन कई बार पुरुष ही स्त्री की वेशभूषा में अभिनय करते हैं। इन लोक नाट्य में राजस्थान की लोक संस्कृति की झलक मिलती है किन्तु सीमावर्ती जिलों के लोक नाट्य में पड़ोसी राज्य की संस्कृति का प्रभाव भी देखा जाता है जैसे अलवर और भरतपुर के लोकनाट्य में हरियाणा व उत्तर प्रदेश की लोक संस्कृति के मिले जुले रूप के दर्शन होते हैं तो धौलपुर एवं सवाईमाधोपुर के लोकनाट्य में ब्रज संस्कृति देखी जा सकती है। वैसे तो इन लोक नाट्य में जाति विशेष की बाध्यता नहीं है लेकिन बहुतायत में कुछ विशेष जातियों जैसे नट, भाट, भाँड आदि जाति के लोगों की होती है। यहाँ जनजाति यथा- भील, गरासिया, मीणा, सहरिया, बंजारे आदि के लोग भी अपने परम्परागत लोक नाट्य का आज भी मंचन करते देखे जा सकते है जिनमें से भीलों की गवरी का तो श्रावण माह में मेवाड़ के गाँव गाँव में मंचन होता देखा जा सकता है। इन लोक नाट्य में प्रमुख हैं -

1. ख्याल
2. रम्मत
3. स्वांग
4. नौटंकी
5. फड़
6. गवरी


इनमें से गवरी के बारे में पिछली पोस्ट में लिखा जा चुका है। क्रमशः आगे हम बाकी विधाओं के बारे में भी चर्चा करेंगे।

ख्याल : -

ख्याल राजस्थान के लोक नाट्य की सबसे लोकप्रिय विद्या है। इसके 18 वीं शताब्दी के प्रारम्भ से ही राजस्थान में लोक नाट्यों के नियमित रुप से सम्मिलित होने के प्रमाण मिलते हैं। ख्याल शब्द खेल शब्द का अपभ्रंश है। यहां खेल से तात्पर्य नाटक खेलने से है। ख्याल के अभिनेता को 'खिलाड़ी' कहते हैं। ख्यालों की विषय-वस्तु पौराणिक या किसी पुराख्यान या ऐतिहासिक पुरुषों के वीराख्यान या लोक देवता व लोक देवियों के कल्याणकारी गाथा से जुड़ी होती है। भौगोलिक अन्तर के कारण इन ख्यालों ने भी परिस्थिति के अनुसार अलग-अलग रुप ग्रहण कर लिए। इन ख्यालों के खास है,

कुचामनी ख्याल
शेखावटी ख्याल
जयपुरी ख्याल
तुर्रा कलंगी ख्याल
माँची ख्याल
हाथरसी ख्याल।


ये सभी ख्याल बोलियों में ही अलग नहीं है, बल्कि इनमें शैलीगत भिन्नता भी पाई जाती है। जहाँ कुछ ख्यालों में संगीत की महत्ता अधिक है तो दूसरों में नाटक, नृत्य और गीतों सभी की प्रधानता है। इनमें गीत प्राय: लोकगीतों पर आधारित है या शास्रीयसंगीत पर। लोकगीतों एवं शास्रीय संगीत का भेद ख्याल को गाने वाले विशेष नाट्यकार पर ही आधारित होता है। अगर लोक नाट्यकार शास्रीय संगीत का जानकार है तो वह ख्याल संगीत प्रधान होता है लेकिन यदि खिलाड़ी नृत्य का जानकार है तो ख्याल नृत्य प्रधान होता है।

Comments

Popular posts from this blog

Baba Mohan Ram Mandir and Kali Kholi Dham Holi Mela

Baba Mohan Ram Mandir, Bhiwadi - बाबा मोहनराम मंदिर, भिवाड़ी साढ़े तीन सौ साल से आस्था का केंद्र हैं बाबा मोहनराम बाबा मोहनराम की तपोभूमि जिला अलवर में भिवाड़ी से 2 किलोमीटर दूर मिलकपुर गुर्जर गांव में है। बाबा मोहनराम का मंदिर गांव मिलकपुर के ''काली खोली''  में स्थित है। काली खोली वह जगह है जहां बाबा मोहन राम रहते हैं। मंदिर साल भर के दौरान, यात्रा के दौरान खुला रहता है। य ह पहाड़ी के शीर्ष पर स्थित है और 4-5 किमी की दूरी से देखा जा सकता है। खोली में बाबा मोहन राम के दर्शन के लिए आने वाली यात्रियों को आशीर्वाद देने के लिए हमेशा “अखण्ड ज्योति” जलती रहती है । मुख्य मेला साल में दो बार होली और रक्षाबंधन की दूज को भरता है। धूलंड़ी दोज के दिन लाखों की संख्या में श्रद्धालु बाबा मोहन राम जी की ज्योत के दर्शन करने पहुंचते हैं। मेले में कई लोग मिलकपुर मंदिर से दंडौती लगाते हुए काली खोल मंदिर जाते हैं। श्रद्धालु मंदिर परिसर में स्थित एक पेड़ पर कलावा बांधकर मनौती मांगते हैं। इसके अलावा हर माह की दूज पर भी यह मेला भरता है, जिसमें बाबा की ज्योत के दर्शन करन...

राजस्थान का प्रसिद्ध हुरडा सम्मेलन - 17 जुलाई 1734

हुरडा सम्मेलन कब आयोजित हुआ था- मराठा शक्ति पर अंकुश लगाने तथा राजपूताना पर मराठों के संभावित आक्रमण को रोकने के लिए जयपुर के सवाई जयसिंह के प्रयासों से 17 जुलाई 1734 ई. को हुरडा (भीलवाडा) नामक स्थान पर राजपूताना के शासकों का एक सम्मेलन आयोजित किया गया, जिसे इतिहास में हुरडा सम्मेलन के नाम  जाता है।   हुरडा सम्मेलन जयपुर के सवाई जयसिंह , बीकानेर के जोरावर सिंह , कोटा के दुर्जनसाल , जोधपुर के अभयसिंह , नागौर के बख्तसिंह, बूंदी के दलेलसिंह , करौली के गोपालदास , किशनगढ के राजसिंह के अलावा के अतिरिक्त मध्य भारत के राज्यों रतलाम, शिवपुरी, इडर, गौड़ एवं अन्य राजपूत राजाओं ने भाग लिया था।   हुरडा सम्मेलन की अध्यक्षता किसने की थी- हुरडा सम्मेलन की अध्यक्षता मेवाड महाराणा जगतसिंह द्वितीय ने की।     हुरडा सम्मेलन में एक प्रतिज्ञापत्र (अहदनामा) तैयार किया गया, जिसके अनुसार सभी शासक एकता बनाये रखेंगे। एक का अपमान सभी का अपमान समझा जायेगा , कोई राज्य, दूसरे राज्य के विद्रोही को अपने राज्य में शरण नही देगा ।   वर्षा ऋत...

Civilization of Kalibanga- कालीबंगा की सभ्यता-
History of Rajasthan

कालीबंगा टीला कालीबंगा राजस्थान के हनुमानगढ़ ज़िले में घग्घर नदी ( प्राचीन सरस्वती नदी ) के बाएं शुष्क तट पर स्थित है। कालीबंगा की सभ्यता विश्व की प्राचीनतम सभ्यताओं में से एक है। इस सभ्यता का काल 3000 ई . पू . माना जाता है , किन्तु कालांतर में प्राकृतिक विषमताओं एवं विक्षोभों के कारण ये सभ्यता नष्ट हो गई । 1953 ई . में कालीबंगा की खोज का पुरातत्वविद् श्री ए . घोष ( अमलानंद घोष ) को जाता है । इस स्थान का उत्खनन कार्य सन् 19 61 से 1969 के मध्य ' श्री बी . बी . लाल ' , ' श्री बी . के . थापर ' , ' श्री डी . खरे ', के . एम . श्रीवास्तव एवं ' श्री एस . पी . श्रीवास्तव ' के निर्देशन में सम्पादित हुआ था । कालीबंगा की खुदाई में प्राक् हड़प्पा एवं हड़प्पाकालीन संस्कृति के अवशेष प्राप्त हुए हैं। इस उत्खनन से कालीबंगा ' आमरी , हड़प्पा व कोट दिजी ' ( सभी पाकिस्तान में ) के पश्चात हड़प्पा काल की सभ्यता का चतुर्थ स्थल बन गया। 1983 में काली...