अवतारी महापुरुषों के स्वरूप धारण कर उनके जीवन चरित्र का अभिनय मंचन ही लीला नाट्य कहलाता है। इनमें राम और कृष्ण की जीवन से संबंधित लीलाओं के ही विभिन्न रूप मिलते हैं।
1. राम लीला -
इसमें तुलसीकृत रामचरित मानस, कथा वाचक राधेश्याम की रामरामायण तथा केशव की रामचंद्रिका पर आधारित रामलीलाएं प्रमुखत: खेली जाती है।
प्रमुख रामलीलाएं -
>भरतपुर की रामलीला
>कोटा के पाटूंदा गाँव की रामलीला - हाड़ौती के प्रभाव वाली।
>कामां तहसील के जुरहरा की प्रसिद्ध रामलीला -
जुरहरा की रामलीला में पंडित शोभाराम की लिखी लावणीयां बड़ी लोकप्रिय है। यह पूरा गाँव ही रामलीला की पावन स्थली है।
अलवर के हिन्दी के प्राध्यापक डॉ जीवन सिंह के ठाकुर घराने द्वारा संरक्षित है। वो स्वयं भी रावण का बहुत अच्छा अभिनय करते हैं।
>बिसाऊ की रामलीला - मूकाभिनय और मुखौटों के लिए प्रसिद्ध। राम, चारों भाई व अन्य पात्र मुखौटे पहनते हैं।
>अटरू की धनुषलीला - इसमें धनुष राम द्वारा नहीं तोड़ा जाता है बल्कि विवाह योग्य युवकों द्वारा तोड़ा जाता है। मान्यता है कि इसके पश्चात इनका विवाह शीघ्र हो जाता है।
>माँगरोल की ढाई कड़ी की रामलीला -
लगभग ढाई सौ वर्ष पुरानी इस रामलीला में अयोध्या जनकपुरी व लंका के तीन अलग अलग नगर बनाए जाते हैं।
2. रासलीला -
कृष्ण की लीलाओं पर आधारित रासलीला सर्वाधिक प्रचलन ब्रज क्षेत्र में है। राजस्थान का भरतपुर जिला ब्रज क्षेत्र में होते के कारण यहाँ रासलीलाओं के आयोजन सर्वाधिक होते हैं। इस क्षेत्र में फाल्गुन फाल्गुन व श्रावण माह में राधा और कृष्ण के रूप बने कलाकारों की लोग श्रद्धा पूर्वक पूजा कर आरती करते हैं। भरतपुर जिले के कामाँ या कामवन और डीग का काफी क्षेत्र ब्रज चौरासी कोस की परिक्रमा के अंतर्गत आता है जहाँ भगवान श्रीकृष्ण ने गोपियों के संग रास नृत्य और अनेक लीलाएं की थी। रासलीला के आयोजन में मंच की आवश्यकता नहीं होता है लेकिन कहीं कहीं छोटे या बड़े मंच बना कर भी इसे किया जाता है। राधा वल्लभ साहित्य के अनुसार भरतपुर में रासलीला चार सौ पाँच सौ वर्ष पुरानी है।
प्रमुख रासलीला मंडल -
* मोहन दास रास मंडल
*किशोर दास रास मंडल
* पंडित हर गोविन्द स्वामी रास मंडल
* पं रामस्वरूप स्वामी रास मंडल
रासलीला की विशेषताएँ -
(i) रासलीला का प्रारंभ राधाकृष्ण व गोपियों की झाँकी से होता है। रास मंडल के स्वामीजी और अन्य लोग उनकी वंदना आरती करके उनसे रासलीला में भाग लेने की प्रार्थना करते हैं। इसके बाद राधाकृष्ण मंच से उतर कर नृत्य करते हैं और अन्य कलाकार गायन वादन करते हैं। फिर सामूहिक नृत्य होता है।
(ii) इसमें कृष्ण की अलग अलग लीलाओं का अलग अलग दिन होता है। जिनमें छोटे छोटे लड़कों द्वारा ही स्त्री पुरुष दोनों का अभिनय किया जाता है।
(iii) इसमें किसी औपचारिक मंच की आवश्यकता नहीं होती है। खुले स्थान पर कतिपय चौकियां कुर्सीयां या तख्त डाल कर राधाकृष्ण के आसन बना दिए जाते हैं।
(iv) अभिनय क्रम में रंगसज्जा, दृश्य उपक्रमों की आवश्यकता नहीं होती है। मेकअप और दृश्य परिवर्तन के लिए छोटे पर्दे का उपयोग किया जाता है। पात्र ही गायन करते हुए दृश्य परिवर्तन की सूचना देते हैं।
(v) भरतपुर धौलपुर की रासलीला पर ब्रज का पूर्ण प्रभाव है। रासलीला ब्रज भाषा में होती है।
(vi) इसके प्रमुख कलाकारों में राष्ट्रपति पुरस्कार से सम्मानित पं राम स्वरूप और उप्र संगीत नाटक अकादमी से पुरस्कृत पं हरगोविन्द है। इसके अलावा माधुरीदास, युगलदास, हरिनाथ आदि के महान रास कलाकार होने का उल्लेख मिलता है।
3. मेवाड़ का रासधारी खयाल -
लोक कलाविद् डॉ महेन्द्र भानावत के अनुसार यह भी मूलतः रामलीला ही है। परन्तु कालांतर में इस लोकनाट्य में अनेक और कथाएँ रामलीला के साथ साथ कृष्णलीला, हरिशचन्द्र नागजी व मोरध्वज की भी जुड़ गई।
सबसे पहला रासधारी नाटक लगभग ८० वर्ष पहले मेवाड़ के मोतीलाल जाट द्वारा लिखा गया। रासधारियों की लोक नृत्य नाट्य शैली ख्याल एवं अन्य लोक नाट्यों से सर्वथा भिन्न है। यह विशिष्ट शैली उदयपुर तथा आस-पड़ोस के क्षेत्रों में भी आज भी प्रचलित है। इसके मुख्य रसिया 'बैरागी साधु' जाति के लोग है। रासधारी कलाकारों को रसिया कहा जाता है। मूल रुप में "रासधारी" लोक नृत्य नाटिका ही थी, जिसमें रसियों के अलावा सभी उपस्थित जन प्रसन्नतापूर्वक भाग लेते थे। परन्तु धीरे-धीरे यह खास पेशे के लोगों की धरोहर हो गया। जिन्होंने इसे अपनी जीविका निर्वाह का आधार बना लिया और इन्हीं लोगों ने व्यवसायिक आय का साधन बनाने के लिए अपनी मण्डलियाँ तथा समूह बना लिए।
अन्य लोक नृत्य नाटिकाओं से रासधारी विद्या अनेक दृष्टियों से भिन्न है। सबसे मुख्य बात तो यह है कि इसमें किसी अखाड़े या मंच के निर्माण की जरुरत नहीं होती। गाँव के चौराहों पर रासधारी नाटक देखने को मिलते हैं। लोग सैकड़ों की भीड़ में देखने के लिए इकट्ठे होते हैं। गीत प्राय: अनलिखे होते हैं और रसियों को मौखिक याद होते हैं। नृत्य व गीत गाते हुए सारी कथा व्याख्यान कर दी जाती है। गाँव के लोग इस नृत्य नाटिका को मुफ्त में देखते हैं। ग्रामीण समाज ही इनके रहने, खाने-पीने आदि की व्यवस्था करता है व पारिश्रमिक भी देता है।
4. वागड़ का रासमंडल
डूंगरपुर के बेणेश्वर के प्रसिद्ध संत मावजी द्वारा साद लोगों अर्थात बुनकरों को कृष्ण की लीला रचाने के लिए मुकुट और घाघरा पहनाया था। यहाँ मावजी को कृष्ण का अवतार माना जाता है। इस रास में कृष्ण घाघरा पहनते हैं। सभी पात्र घुंघरू बाँधते हैं और दोहे व साखियों के साथ नाचते हैं। आदिवासियों के कुंभ के नाम से प्रसिद्ध बेणेश्वर के मेले में यह रास विशेषकर आयोजित होती है। लोग मनौती पूर्ण होने पर भी रास का आयोजन कराते हैं।
1. राम लीला -
इसमें तुलसीकृत रामचरित मानस, कथा वाचक राधेश्याम की रामरामायण तथा केशव की रामचंद्रिका पर आधारित रामलीलाएं प्रमुखत: खेली जाती है।
प्रमुख रामलीलाएं -
>भरतपुर की रामलीला
>कोटा के पाटूंदा गाँव की रामलीला - हाड़ौती के प्रभाव वाली।
>कामां तहसील के जुरहरा की प्रसिद्ध रामलीला -
जुरहरा की रामलीला में पंडित शोभाराम की लिखी लावणीयां बड़ी लोकप्रिय है। यह पूरा गाँव ही रामलीला की पावन स्थली है।
अलवर के हिन्दी के प्राध्यापक डॉ जीवन सिंह के ठाकुर घराने द्वारा संरक्षित है। वो स्वयं भी रावण का बहुत अच्छा अभिनय करते हैं।
>बिसाऊ की रामलीला - मूकाभिनय और मुखौटों के लिए प्रसिद्ध। राम, चारों भाई व अन्य पात्र मुखौटे पहनते हैं।
>अटरू की धनुषलीला - इसमें धनुष राम द्वारा नहीं तोड़ा जाता है बल्कि विवाह योग्य युवकों द्वारा तोड़ा जाता है। मान्यता है कि इसके पश्चात इनका विवाह शीघ्र हो जाता है।
>माँगरोल की ढाई कड़ी की रामलीला -
लगभग ढाई सौ वर्ष पुरानी इस रामलीला में अयोध्या जनकपुरी व लंका के तीन अलग अलग नगर बनाए जाते हैं।
2. रासलीला -
कृष्ण की लीलाओं पर आधारित रासलीला सर्वाधिक प्रचलन ब्रज क्षेत्र में है। राजस्थान का भरतपुर जिला ब्रज क्षेत्र में होते के कारण यहाँ रासलीलाओं के आयोजन सर्वाधिक होते हैं। इस क्षेत्र में फाल्गुन फाल्गुन व श्रावण माह में राधा और कृष्ण के रूप बने कलाकारों की लोग श्रद्धा पूर्वक पूजा कर आरती करते हैं। भरतपुर जिले के कामाँ या कामवन और डीग का काफी क्षेत्र ब्रज चौरासी कोस की परिक्रमा के अंतर्गत आता है जहाँ भगवान श्रीकृष्ण ने गोपियों के संग रास नृत्य और अनेक लीलाएं की थी। रासलीला के आयोजन में मंच की आवश्यकता नहीं होता है लेकिन कहीं कहीं छोटे या बड़े मंच बना कर भी इसे किया जाता है। राधा वल्लभ साहित्य के अनुसार भरतपुर में रासलीला चार सौ पाँच सौ वर्ष पुरानी है।
प्रमुख रासलीला मंडल -
* मोहन दास रास मंडल
*किशोर दास रास मंडल
* पंडित हर गोविन्द स्वामी रास मंडल
* पं रामस्वरूप स्वामी रास मंडल
रासलीला की विशेषताएँ -
(i) रासलीला का प्रारंभ राधाकृष्ण व गोपियों की झाँकी से होता है। रास मंडल के स्वामीजी और अन्य लोग उनकी वंदना आरती करके उनसे रासलीला में भाग लेने की प्रार्थना करते हैं। इसके बाद राधाकृष्ण मंच से उतर कर नृत्य करते हैं और अन्य कलाकार गायन वादन करते हैं। फिर सामूहिक नृत्य होता है।
(ii) इसमें कृष्ण की अलग अलग लीलाओं का अलग अलग दिन होता है। जिनमें छोटे छोटे लड़कों द्वारा ही स्त्री पुरुष दोनों का अभिनय किया जाता है।
(iii) इसमें किसी औपचारिक मंच की आवश्यकता नहीं होती है। खुले स्थान पर कतिपय चौकियां कुर्सीयां या तख्त डाल कर राधाकृष्ण के आसन बना दिए जाते हैं।
(iv) अभिनय क्रम में रंगसज्जा, दृश्य उपक्रमों की आवश्यकता नहीं होती है। मेकअप और दृश्य परिवर्तन के लिए छोटे पर्दे का उपयोग किया जाता है। पात्र ही गायन करते हुए दृश्य परिवर्तन की सूचना देते हैं।
(v) भरतपुर धौलपुर की रासलीला पर ब्रज का पूर्ण प्रभाव है। रासलीला ब्रज भाषा में होती है।
(vi) इसके प्रमुख कलाकारों में राष्ट्रपति पुरस्कार से सम्मानित पं राम स्वरूप और उप्र संगीत नाटक अकादमी से पुरस्कृत पं हरगोविन्द है। इसके अलावा माधुरीदास, युगलदास, हरिनाथ आदि के महान रास कलाकार होने का उल्लेख मिलता है।
3. मेवाड़ का रासधारी खयाल -
लोक कलाविद् डॉ महेन्द्र भानावत के अनुसार यह भी मूलतः रामलीला ही है। परन्तु कालांतर में इस लोकनाट्य में अनेक और कथाएँ रामलीला के साथ साथ कृष्णलीला, हरिशचन्द्र नागजी व मोरध्वज की भी जुड़ गई।
सबसे पहला रासधारी नाटक लगभग ८० वर्ष पहले मेवाड़ के मोतीलाल जाट द्वारा लिखा गया। रासधारियों की लोक नृत्य नाट्य शैली ख्याल एवं अन्य लोक नाट्यों से सर्वथा भिन्न है। यह विशिष्ट शैली उदयपुर तथा आस-पड़ोस के क्षेत्रों में भी आज भी प्रचलित है। इसके मुख्य रसिया 'बैरागी साधु' जाति के लोग है। रासधारी कलाकारों को रसिया कहा जाता है। मूल रुप में "रासधारी" लोक नृत्य नाटिका ही थी, जिसमें रसियों के अलावा सभी उपस्थित जन प्रसन्नतापूर्वक भाग लेते थे। परन्तु धीरे-धीरे यह खास पेशे के लोगों की धरोहर हो गया। जिन्होंने इसे अपनी जीविका निर्वाह का आधार बना लिया और इन्हीं लोगों ने व्यवसायिक आय का साधन बनाने के लिए अपनी मण्डलियाँ तथा समूह बना लिए।
अन्य लोक नृत्य नाटिकाओं से रासधारी विद्या अनेक दृष्टियों से भिन्न है। सबसे मुख्य बात तो यह है कि इसमें किसी अखाड़े या मंच के निर्माण की जरुरत नहीं होती। गाँव के चौराहों पर रासधारी नाटक देखने को मिलते हैं। लोग सैकड़ों की भीड़ में देखने के लिए इकट्ठे होते हैं। गीत प्राय: अनलिखे होते हैं और रसियों को मौखिक याद होते हैं। नृत्य व गीत गाते हुए सारी कथा व्याख्यान कर दी जाती है। गाँव के लोग इस नृत्य नाटिका को मुफ्त में देखते हैं। ग्रामीण समाज ही इनके रहने, खाने-पीने आदि की व्यवस्था करता है व पारिश्रमिक भी देता है।
4. वागड़ का रासमंडल
डूंगरपुर के बेणेश्वर के प्रसिद्ध संत मावजी द्वारा साद लोगों अर्थात बुनकरों को कृष्ण की लीला रचाने के लिए मुकुट और घाघरा पहनाया था। यहाँ मावजी को कृष्ण का अवतार माना जाता है। इस रास में कृष्ण घाघरा पहनते हैं। सभी पात्र घुंघरू बाँधते हैं और दोहे व साखियों के साथ नाचते हैं। आदिवासियों के कुंभ के नाम से प्रसिद्ध बेणेश्वर के मेले में यह रास विशेषकर आयोजित होती है। लोग मनौती पूर्ण होने पर भी रास का आयोजन कराते हैं।
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