राजस्थान के पश्चिमी भाग के जोधपुर, बीकानेर, जैसलमेर आदि क्षेत्रों में सुहागिनें अखंड सुहाग की कामना के लिए धींगा गवर की पूजा करती है। यह पूजा सामान्यत: गणगौर पूजा के बाद चैत्र शुक्ल तृतीय से वैसाख कृष्ण पक्ष की तृतीया तक होती है। धींगा गवर का पर्व पति-पत्नी के आपसी प्रेम का द्योतक भी माना जाता है। गवर को विधवाएं व सुहागिनें साथ-साथ पूजती हैं, लेकिन कुंआरी लडकियों के लिए गवर पूजा निषिद्ध है। गवर की सोलह दिवसीय पूजा शुरू करने से पूर्व महिलाएं मोहल्ले के किसी एक घर में दीवार पर गवर का चित्र बनाती है। ये स्त्रियाँ घरों की दीवारों पर कच्चे रंग से शिव, गजानन व बीचों बीच में घाघर सिर पर उठाए स्त्री के चित्र भी बनाती हैं।
इन चित्रों में मूषक, सूर्य व चंद्रमा आदि के भी चित्र होते हैं। इन चित्रों के नीचे कूकड, माकडव तथा उसके चार बच्चों के चित्र भी बनाए जाते हैं या फिर उनके मिट्टी से बने पुतले रखे जाते हैं। इसके अलावा कई घरों में गवर की प्रतिमा भी बिठाई जाती है। इस पर्व की पूजा का समापन बैसाख शुक्ल पक्ष की तीज की रात्रि को गवर माता के रातीजगा के साथ होता है। गवर पूजा में सोलह की संख्या का अत्यंत महत्व है। पूजा के स्थानों पर महिलाएँ सोलह की संख्या में इकट्ठा होकर पूजा करती है तथा पूजन के पश्चात सोलह की संख्या में ही एक साथ भोजन करती है। यह संख्या घटाई-बढ़ाई नहीं जा सकती है।
धींगा गवर के बारे में हालांकि कोई तथ्यात्मक जानकारी उपलब्ध नहीं है लेकिन कहा जाता है कि धींगा गवर ईसर जी के नाते आई हुई उपपत्नी थी। धींगा गवर पूजने वाली प्रत्येक महिला 16 दिनों तक अपने-अपने हाथों में 16 गांठों का डोरा बांधती हैं। इसके बाद वे बारी-बारी से दीवार पर बने चित्रों की फूल, चावल, कुंकुम एवं फल चढ़ा कर पूजा-अर्चना करती हैं। यह पूजा दोपहर में की जाती है। इसमें गवर की मूर्ति को वस्त्रादि से सजा कर सोने के गहने भी पहनाए जाते हैं। रतजगा में भोलावणी की जाती है। इसमें स्त्रियां विशेष पारम्परिक गीत गाती हुई गवर को उठाकर समूहों में चलती हैं तथा अपने हाथों में बंधा 16 गाँठ का धागा खोल कर गवर के बाँध देती हैं। भोलावणी का यह उपक्रम देर रात तक होता है, जिसमें सिर्फ औरतें ही जाती हैं।
जोधपुर का धींगा गवर का बेंतमार मेला -
धींगा गवर के रतजगे पर जोधपुर शहर में मेले का जबरदस्त माहौल होता है। इसमें विभिन्न मोहल्लों से भाग लेने वाली हजारों महिलाएँ अपने घरों से विभिन्न स्वांग बना कर या मुखौटे लगाकर हाथों में लंबा बेंत { डंडा } लेकर चलती हैं। ये स्त्रियां राजा-रानी, डॉक्टर, पुलिस, वकील, जाट-जाटनी, विष्णु, महादेव, भिखारी, सेठ इत्यादि नाना प्रकार के भेष धारण कर नाचती गाती वहाँ जाती हैं जहाँ धींगा गवर स्थापित होती है।
जब ये महिलाएं स्वांग रच कर रात्रि में सड़क पर निकलती हैं तो रास्ते में जहाँ भी पुरुष नजर आता है, उसे बेंत से पीटती हैं। मेले में भारी भीड़ के बीच में वो पुरुष चाहे पुलिस, प्रशासन के व्यक्ति भी क्यों न हों, डंडे की मार से भागते नजर आते हैं। इस मेले में बेंत की मार से पिटा कोई भी पुरुष इसे बुरा नहीं मानता है।
धींगा गवर के बेंतमार मेले का सफल आयोजन गणगौर कमेटी द्वारा ही किया जाता है। इस अजीब मेले के दर्शकों की लाखों की संख्या में भीड़ पूरी रात बनी रहती है। पुराने जमाने में महल के झरोखे से राजा व रानियां भी इस मेले का आनंद लेते थे। जोधपुर का यह बैंतमार गणगौर का मेला राजस्थान की अनूठी स्वांग नाट्य परंपरा को भी संपोषित कर रहा है जिसमें केवल महिलाएं ही स्वांग रचती है।
"बेंत पड़ी तो ब्याव पक्कौ" अर्थात यहाँ मान्यता है कि इस मेले में बेंत खाने से कुंवारे युवकों की शादी जल्दी हो जाती है। इसके चलते युवक बेंत खाने को लालायित रहते हैं। इस वर्ष यह मेला दिनांक 20 अप्रैल रात्रि से 21 अप्रैल प्रातःकाल तक आयोजित हुआ।
इन चित्रों में मूषक, सूर्य व चंद्रमा आदि के भी चित्र होते हैं। इन चित्रों के नीचे कूकड, माकडव तथा उसके चार बच्चों के चित्र भी बनाए जाते हैं या फिर उनके मिट्टी से बने पुतले रखे जाते हैं। इसके अलावा कई घरों में गवर की प्रतिमा भी बिठाई जाती है। इस पर्व की पूजा का समापन बैसाख शुक्ल पक्ष की तीज की रात्रि को गवर माता के रातीजगा के साथ होता है। गवर पूजा में सोलह की संख्या का अत्यंत महत्व है। पूजा के स्थानों पर महिलाएँ सोलह की संख्या में इकट्ठा होकर पूजा करती है तथा पूजन के पश्चात सोलह की संख्या में ही एक साथ भोजन करती है। यह संख्या घटाई-बढ़ाई नहीं जा सकती है।
धींगा गवर के बारे में हालांकि कोई तथ्यात्मक जानकारी उपलब्ध नहीं है लेकिन कहा जाता है कि धींगा गवर ईसर जी के नाते आई हुई उपपत्नी थी। धींगा गवर पूजने वाली प्रत्येक महिला 16 दिनों तक अपने-अपने हाथों में 16 गांठों का डोरा बांधती हैं। इसके बाद वे बारी-बारी से दीवार पर बने चित्रों की फूल, चावल, कुंकुम एवं फल चढ़ा कर पूजा-अर्चना करती हैं। यह पूजा दोपहर में की जाती है। इसमें गवर की मूर्ति को वस्त्रादि से सजा कर सोने के गहने भी पहनाए जाते हैं। रतजगा में भोलावणी की जाती है। इसमें स्त्रियां विशेष पारम्परिक गीत गाती हुई गवर को उठाकर समूहों में चलती हैं तथा अपने हाथों में बंधा 16 गाँठ का धागा खोल कर गवर के बाँध देती हैं। भोलावणी का यह उपक्रम देर रात तक होता है, जिसमें सिर्फ औरतें ही जाती हैं।
जोधपुर का धींगा गवर का बेंतमार मेला -
धींगा गवर के रतजगे पर जोधपुर शहर में मेले का जबरदस्त माहौल होता है। इसमें विभिन्न मोहल्लों से भाग लेने वाली हजारों महिलाएँ अपने घरों से विभिन्न स्वांग बना कर या मुखौटे लगाकर हाथों में लंबा बेंत { डंडा } लेकर चलती हैं। ये स्त्रियां राजा-रानी, डॉक्टर, पुलिस, वकील, जाट-जाटनी, विष्णु, महादेव, भिखारी, सेठ इत्यादि नाना प्रकार के भेष धारण कर नाचती गाती वहाँ जाती हैं जहाँ धींगा गवर स्थापित होती है।
जब ये महिलाएं स्वांग रच कर रात्रि में सड़क पर निकलती हैं तो रास्ते में जहाँ भी पुरुष नजर आता है, उसे बेंत से पीटती हैं। मेले में भारी भीड़ के बीच में वो पुरुष चाहे पुलिस, प्रशासन के व्यक्ति भी क्यों न हों, डंडे की मार से भागते नजर आते हैं। इस मेले में बेंत की मार से पिटा कोई भी पुरुष इसे बुरा नहीं मानता है।
धींगा गवर के बेंतमार मेले का सफल आयोजन गणगौर कमेटी द्वारा ही किया जाता है। इस अजीब मेले के दर्शकों की लाखों की संख्या में भीड़ पूरी रात बनी रहती है। पुराने जमाने में महल के झरोखे से राजा व रानियां भी इस मेले का आनंद लेते थे। जोधपुर का यह बैंतमार गणगौर का मेला राजस्थान की अनूठी स्वांग नाट्य परंपरा को भी संपोषित कर रहा है जिसमें केवल महिलाएं ही स्वांग रचती है।
"बेंत पड़ी तो ब्याव पक्कौ" अर्थात यहाँ मान्यता है कि इस मेले में बेंत खाने से कुंवारे युवकों की शादी जल्दी हो जाती है। इसके चलते युवक बेंत खाने को लालायित रहते हैं। इस वर्ष यह मेला दिनांक 20 अप्रैल रात्रि से 21 अप्रैल प्रातःकाल तक आयोजित हुआ।
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