Skip to main content

राजस्थान में पारसी हिन्दी रंगमंच

बीसवीं शताब्दी के प्रारंभ से देश में एक नई रंगमंचीय कला "पारसी थियेटर" का विकास हुआ। किंतु अधिकांश विद्वान यह भी मानते हैं कि इस शैली का विकास "शेक्सपीरियन थियेटर" से प्रभावित होकर इंग्लैड में हुआ था। यह रंगमंचीय विधा लगभग आधी सदी तक उत्तर भारत में जन चेतना के संचार का सशक्त माध्यम रही।

पारसी रंगमंच कला के विशिष्ट तत्व निम्नांकित हैं -

(1) अभिनेताओं द्वारा मुख-मुद्राओं तथा हावभाव का व्यापक प्रदर्शन।

(2) नाटक का निश्चित कथात्मक स्वरूप।

(3) बोलचाल की भाषा का समावेश तथा संवाद की एक खास शैली।

पारसी थियेटर शैली ने तीसरे दशक में राजस्थान के रंगकर्मियों पर पूरा प्रभाव डाला।
कहा जाता है कि सर्वप्रथम बरेली के जमादार साहब की थिएटर कंपनी राजस्थान आई थी। इसके पश्चात स्व. लक्ष्मणदास डाँगी ने जोधपुर में मारवाड़ नाटक संस्था की स्थापना की तथा जानकी स्वयंवर, हरीशचंद्र, भक्त पूरणमल जैसे कई नाटक किए। इस कंपनी ने जयपुर, लखनऊ और कानपुर में भी कई नाटक किए।
महबूब हसन नामक व्यक्ति ने आगा हश्र कश्मीरी के लिखे पारसी शैली के अनेक नाटक जयपुर व अलवर मेँ मंचित किए। व्यापक प्रभाव को जमाने वाले इन नाटकों को खेलने की दिशा में यह महबूब हसन का व्यक्तिगत प्रयास था, जिसे किसी राजा-महाराजा तथा सामन्तों का आर्थिक संरक्षण भी न मिला। इसी कारण उसे इन नाटकों को टिकट लगाकर प्रदर्शित करना पड़ा। उन दिनों कुछ राज्यों में राजाओं द्वारा बनवाए गए उनके अपने थियेटर हुआ करते थे तथा उन्हें संचालित करने के लिए अलग विभाग होते थे।
एक समय ऐसा था जब पारसी थियेटर ने रंगमंच पर अपना पूर्ण अधिकार ही कायम कर लिया था और यह वर्चस्व उस समय तक लगातार बना रहा जब तक कि उसका स्थान "सिनेमा" ने नहीं ले लिया। राजस्थान में बाबू माणिकलाल डाँगी तथा कन्हैया लाल पँवार पारसी थियेटर के विख्यात रंगकर्मी व निर्देशक थे। बाबू माणिकलाल डांगी ने इस रंगमंच को नई दिशा प्रदान की तथा कई कलाकारों को उन्होंने अखिल भारतीय स्तर पर स्थापित करने में सहयोग किया। माणिकलाल डाँगी के संबंधी लगने वाले गणपतलाल डाँगी ने इस परम्परा का निर्वाह करते हुए " दि वार थिएट्रिकल कंपनी" की स्थापना की और इस सन् 1993 तक सक्रिय रह कर इस कला को ऊँचाई तक पहुंचाया। कन्हैयालाल पँवार ने सन् 1942 में "शाहजहाँ थियेट्रिकल कम्पनी" में नौकरी की तथा वहाँ उन्होंने राजस्थान की लोक कथाओं पर आधारित अनेक नाटक मंचित किए। इनमें से "रामू चनणा, ढोला मारु, तथा चुन्दड़ी" आदि प्रमुख थे। वे राजस्थान लौट आए और उन्होंने नाथद्वारा की "मरुधर थियेट्रिकल कम्पनी" में नौकरी कर ली। यहाँ उन्होंने "सीता वनवास, कृष्ण-सुदामा" तथा अन्य नाटकों में भाग लिया, उन्होंने बाद में अपनी स्वयं की कम्पनी पंवार थिएटर कलकत्ता में स्थापित की।
सन् 1977 में उत्कृष्ट अभिनेता ए. पी. सक्सेना ने आगा हश्र कश्मीरी का लिखा "यहूदी की लड़की" का मंचन किया। इनके द्वारा पारसी थियेटर शैली को नई अभिनय शैली के अनुकूल बदलने के भी छुटपुट प्रयास किए। पारसी रंगमंच के अन्य कलाकारों में फूलचंद डांगी, पन्ना लाल पीयूष, आगा हश्र, शकुंतला देवी, सोराबजी केरेवाला, सोराबजी ओगरा, कावसजी खटाऊ, मीना शौरी, बसंती चुरूवाली, मुख्तार बेगम, मास्टर नैनूराम आदि प्रमुख थे।

Comments

Popular posts from this blog

Baba Mohan Ram Mandir and Kali Kholi Dham Holi Mela

Baba Mohan Ram Mandir, Bhiwadi - बाबा मोहनराम मंदिर, भिवाड़ी साढ़े तीन सौ साल से आस्था का केंद्र हैं बाबा मोहनराम बाबा मोहनराम की तपोभूमि जिला अलवर में भिवाड़ी से 2 किलोमीटर दूर मिलकपुर गुर्जर गांव में है। बाबा मोहनराम का मंदिर गांव मिलकपुर के ''काली खोली''  में स्थित है। काली खोली वह जगह है जहां बाबा मोहन राम रहते हैं। मंदिर साल भर के दौरान, यात्रा के दौरान खुला रहता है। य ह पहाड़ी के शीर्ष पर स्थित है और 4-5 किमी की दूरी से देखा जा सकता है। खोली में बाबा मोहन राम के दर्शन के लिए आने वाली यात्रियों को आशीर्वाद देने के लिए हमेशा “अखण्ड ज्योति” जलती रहती है । मुख्य मेला साल में दो बार होली और रक्षाबंधन की दूज को भरता है। धूलंड़ी दोज के दिन लाखों की संख्या में श्रद्धालु बाबा मोहन राम जी की ज्योत के दर्शन करने पहुंचते हैं। मेले में कई लोग मिलकपुर मंदिर से दंडौती लगाते हुए काली खोल मंदिर जाते हैं। श्रद्धालु मंदिर परिसर में स्थित एक पेड़ पर कलावा बांधकर मनौती मांगते हैं। इसके अलावा हर माह की दूज पर भी यह मेला भरता है, जिसमें बाबा की ज्योत के दर्शन करन...

राजस्थान का प्रसिद्ध हुरडा सम्मेलन - 17 जुलाई 1734

हुरडा सम्मेलन कब आयोजित हुआ था- मराठा शक्ति पर अंकुश लगाने तथा राजपूताना पर मराठों के संभावित आक्रमण को रोकने के लिए जयपुर के सवाई जयसिंह के प्रयासों से 17 जुलाई 1734 ई. को हुरडा (भीलवाडा) नामक स्थान पर राजपूताना के शासकों का एक सम्मेलन आयोजित किया गया, जिसे इतिहास में हुरडा सम्मेलन के नाम  जाता है।   हुरडा सम्मेलन जयपुर के सवाई जयसिंह , बीकानेर के जोरावर सिंह , कोटा के दुर्जनसाल , जोधपुर के अभयसिंह , नागौर के बख्तसिंह, बूंदी के दलेलसिंह , करौली के गोपालदास , किशनगढ के राजसिंह के अलावा के अतिरिक्त मध्य भारत के राज्यों रतलाम, शिवपुरी, इडर, गौड़ एवं अन्य राजपूत राजाओं ने भाग लिया था।   हुरडा सम्मेलन की अध्यक्षता किसने की थी- हुरडा सम्मेलन की अध्यक्षता मेवाड महाराणा जगतसिंह द्वितीय ने की।     हुरडा सम्मेलन में एक प्रतिज्ञापत्र (अहदनामा) तैयार किया गया, जिसके अनुसार सभी शासक एकता बनाये रखेंगे। एक का अपमान सभी का अपमान समझा जायेगा , कोई राज्य, दूसरे राज्य के विद्रोही को अपने राज्य में शरण नही देगा ।   वर्षा ऋत...

Civilization of Kalibanga- कालीबंगा की सभ्यता-
History of Rajasthan

कालीबंगा टीला कालीबंगा राजस्थान के हनुमानगढ़ ज़िले में घग्घर नदी ( प्राचीन सरस्वती नदी ) के बाएं शुष्क तट पर स्थित है। कालीबंगा की सभ्यता विश्व की प्राचीनतम सभ्यताओं में से एक है। इस सभ्यता का काल 3000 ई . पू . माना जाता है , किन्तु कालांतर में प्राकृतिक विषमताओं एवं विक्षोभों के कारण ये सभ्यता नष्ट हो गई । 1953 ई . में कालीबंगा की खोज का पुरातत्वविद् श्री ए . घोष ( अमलानंद घोष ) को जाता है । इस स्थान का उत्खनन कार्य सन् 19 61 से 1969 के मध्य ' श्री बी . बी . लाल ' , ' श्री बी . के . थापर ' , ' श्री डी . खरे ', के . एम . श्रीवास्तव एवं ' श्री एस . पी . श्रीवास्तव ' के निर्देशन में सम्पादित हुआ था । कालीबंगा की खुदाई में प्राक् हड़प्पा एवं हड़प्पाकालीन संस्कृति के अवशेष प्राप्त हुए हैं। इस उत्खनन से कालीबंगा ' आमरी , हड़प्पा व कोट दिजी ' ( सभी पाकिस्तान में ) के पश्चात हड़प्पा काल की सभ्यता का चतुर्थ स्थल बन गया। 1983 में काली...