- गोडावण यानी "ग्रेट इंडियन बस्टर्ड" राजस्थान का राज्य पक्षी है।
- इसका वैज्ञानिक नाम Choriotis Nigriceps या Ardeotis Nigriceps है।
- उड़ने वाले पक्षियों में यह सबसे अधिक भारी पक्षियों में से एक है।
- यह जैसलमेर के मरू उद्यान, सोरसन (बारां) व अजमेर के शोकलिया क्षेत्र में पाया जाता है। राष्ट्रीय मरु उद्यान (डेज़र्ट नेशनल पार्क) को गोडावण की शरणस्थली भी कहा जाता है।
- यह पक्षी अत्यंत ही शर्मिला है और सघन घास में रहना इसका स्वभाव है।
- जैसलमेर की सेवण घास (Lasiurus sindicus) इसके लिए उपयुक्त है।
- गोडावण को 1981 में राज्य पक्षी घोषित किया गया था।
- यह पक्षी सोहन चिडिया तथा शर्मिला पक्षी के उपनामों से भी प्रसिद्ध है। यह एक शांत पक्षी है, लेकिन जब इसे डराया जाए तो यह हुक जैसी ध्वनि निकालता है। इसीलिए उत्तरी भारत के कुछ भागों में इसे हुकना के नाम से भी पुकारा जाता है। इसके द्वारा बादल के गरजने अथवा बाघ के गुर्राने जैसी ध्वनि उत्पन्न करने के कारण गगनभेर या गुरायिन का नाम से भी जाना जाता है।
- गोडावण का अस्तित्व वर्तमान में खतरे में है तथा इनकी बहुत कम संख्या ही बची हुई है अर्थात यह प्रजाति विलुप्ति की कगार पर है।
- सरकार इस प्राणी के संरक्षण के लिए प्रयासरत है। इस शर्मिले पक्षी के संरक्षण के लिए सख्त कानून अस्तित्व में है। वन्य जीव संरक्षण अधिनियम 1972 की धारा 9 सी के तहत गोडावण प्रथम श्रेणी में शामिल है।
- इंटरनेशनल यूनियन ऑफ कंजर्वेशन ऑफ नेचर (IUCN) की संकटग्रस्त प्रजातियों पर प्रकाशित होने वाली रेड डाटा पुस्तिका (बुक) में इसे 'गंभीर रूप से संकटग्रस्त' श्रेणी में रखा गया है।
- इस विशाल पक्षी को बचाने के लिए राजस्थान सरकार ने वर्ष 2013 जून में गोडावण संरक्षण के लिए 12 करोड़ 90 लाख की जीआईबीपी (ग्रेट इंडियन बस्टर्ड प्रोजेक्ट) शुरू किया था। इस प्रोजेक्ट का विज्ञापन "मेरी उड़ान न रोकें" जैसे मार्मिक वाक्यांश से किया गया है।
- भारत सरकार के वन्यजीव निवास के समन्वित विकास के तहत किये जा रहे 'प्रजाति रिकवरी कार्यक्रम' (Species Recovery Programme) के अंतर्गत चयनित 17 प्रजातियों में गोडावण भी सम्मिलित है।
- इसका शिकार करने वालों को 10 वर्ष की सजा एवं 25 हजार रुपए का जुर्माना भुगतना पड़ सकता है। इसके बावजूद भी इसका शिकार किया जा रहा है और इसकी संख्या निरंतर घट रही है।
- इस निरीह प्राणी के शिकार का कारण मुख्यतः मांस ही है। कतिपय लोग मनोरंजन के कारण भी शिकार करते हैं।
- वैसे थार में घास के मैदानों की कमी हो जाने के कारण इनके पाकिस्तान की ओर विस्थापित हो जाने के फलस्वरूप भी थार रेगिस्तान में इनकी संख्या घटी है।
- यह सर्वाहारी पक्षी है। इसकी खाद्य आदतों में गेहूँ, ज्वार, बाजरा आदि अनाजों का भक्षण करना शामिल है किंतु इसका प्रमुख खाद्य टिड्डे आदि कीट है।
- यह साँप, छिपकली, बिच्छू आदि भी खाता है।
- यह पक्षी बेर के फल भी पसंद करता है।
- गोडावण की अनाज खाने की आदत से ही लोगों को यह गलतफहमी रही थी कि यह फसल नष्ट कर देता है। इसी गलतफहमी के चलते भी कई बार इसे मार दिया जाता था।
- गोडावण ने थार के वातावरण के साथ अपने आप को अनुकूलित कर लिया है। जैसलमेर में यह कई दिनों तक बिना पानी के भी गुजर करता हुआ देखा जाता है।
- शुतरमुर्ग के समान एक लंबी गर्दन और लंबी टांगों वाला यह विशाल धावक गोडावण पक्षी दौड़ लगाने में दक्ष होता है।
- इसके शरीर का रंग भूरा होता है और पंखों पर काले, भूरे व स्लेटी निशान होते हैं। हल्के रंग की गर्दन और सिर व माथे पर काले किरीट से इसे आसानी से पहचाना जा सकता है।
- गोडावण की ऊंचाई लगभग एक मीटर होती है।
- नर गोडावण की लम्बाई लगभग 110-120 सेमी होती है और इसका भार 8-15 किग्रा तक होता है। नर गोडावण की तुलना में मादा की लम्बाई कम (92-95 सेमी) होती है एवं इसका वजन 2.5 से 6.75 किग्रा तक होता है।
- नर गोडावण गहरे रेतीले बादामी रंग का होता है तथा प्रजनन काल में इसके सीने पर एक काली पट्टी बन जाती है। सिर पर काले रंग का किरीट होता है, जिसे नर गोडावण फुला लेते हैं।
- नर गोडावण की जीभ के बिल्कुल नीचे एक सुविकसित गले की थैली होती है, जो मादाओं को आकर्षित करने के लिए मनमोहक ध्वनि उत्पन्न करने में सहायक होती है। इस ध्वनि को 500 मीटर की दूरी तक सुना जा सकता है।
- गोडावण की मादाओं में सिर तथा गर्दन शुद्ध सफेद नहीं होती हैं। मादाओं के सीने पर पट्टी अल्प विकसित या टूटी हुई होती है, या फिर यह होती ही नहीं है।
- ये पक्षी रात में खुले में निवास करते हैं, किन्तु दिन में ये घनी घास या झाड़ियों में छिप कर रहते हैं। इस पक्षी की दृष्टि व श्रवण क्षमता अत्यधिक होती है। यह खतरे की स्थिति में स्वयं को छुपाने में माहिर होता है।
हुरडा सम्मेलन कब आयोजित हुआ था- मराठा शक्ति पर अंकुश लगाने तथा राजपूताना पर मराठों के संभावित आक्रमण को रोकने के लिए जयपुर के सवाई जयसिंह के प्रयासों से 17 जुलाई 1734 ई. को हुरडा (भीलवाडा) नामक स्थान पर राजपूताना के शासकों का एक सम्मेलन आयोजित किया गया, जिसे इतिहास में हुरडा सम्मेलन के नाम जाता है। हुरडा सम्मेलन जयपुर के सवाई जयसिंह , बीकानेर के जोरावर सिंह , कोटा के दुर्जनसाल , जोधपुर के अभयसिंह , नागौर के बख्तसिंह, बूंदी के दलेलसिंह , करौली के गोपालदास , किशनगढ के राजसिंह के अलावा के अतिरिक्त मध्य भारत के राज्यों रतलाम, शिवपुरी, इडर, गौड़ एवं अन्य राजपूत राजाओं ने भाग लिया था। हुरडा सम्मेलन की अध्यक्षता किसने की थी- हुरडा सम्मेलन की अध्यक्षता मेवाड महाराणा जगतसिंह द्वितीय ने की। हुरडा सम्मेलन में एक प्रतिज्ञापत्र (अहदनामा) तैयार किया गया, जिसके अनुसार सभी शासक एकता बनाये रखेंगे। एक का अपमान सभी का अपमान समझा जायेगा , कोई राज्य, दूसरे राज्य के विद्रोही को अपने राज्य में शरण नही देगा । वर्षा ऋतु के बाद मराठों के विरूद्ध क