नाड़ी-
यह एक प्रकार का पोखर होता है। इसमें वर्षा का जल एकत्रित होता है। यह विशेषकर जोधपुर की तरफ होती है। 1520 ई. में राव जोधाजी ने सर्वप्रथम एक नाड़ी का निर्माण करवाया था। पश्चिमी राजस्थान के प्रत्येक गांव में नाडी़ मिलती है। रेतीले मैदानी क्षेत्रों में ये नाडि़याँ 3 से 12 मीटर तक गहरी होती है। इनमें जल निकासी की व्यवस्था भी होती है। यह पानी 10 महीने तक चलता है। एल्युवियल मृदा (मिटृी) वाले क्षेत्रों की नाड़ी आकार में बड़ी होती है। इनमें पानी 12 महीने तक एकत्र रह सकता है। एक सर्वेक्षण के अनुसार नागौर, बाड़मेर व जैसलमेर में पानी की कुछ आवश्यकता का 38 प्रतिशत पानी नाड़ी द्वारा पूरा किया जाता है। नाड़ी वस्तुतः भूसतह पर बना एक गड्डा होता है, जिसमें वर्षा जल आकर एकत्रित होता रहता है। समय समय पर इसकी खुदाई भी की जाती है, क्योंकि पानी के साथ गाद भी आ जाती है जिससे उसमें पानी की क्षमता कम हो जाती है। कई बार छोटी-छोटी नाडियों की क्षमता बढा़ने के लिए दो तरफ से उनको पक्की कर दिया जाता है। नाड़ी बनाने वाले के नाम पर ही इनका नाम रख दिया जाता है। अधिकांश नाडि़या आधुनिक युग में अपना अस्तिव खोती जा रही है। इन्हें सुरक्षा की आवश्यकता है।
बावड़ी-
राजस्थान में बावड़ी निर्माण की परम्परा भी प्राचीन है। प्राचीन काल, पूर्व मध्यकाल एवं मध्यकाल सभी में बावडि़यों के बनाए जाने की जानकारी मिलती है। कई बावडि़याँ वास्तुशास्त्र से बनाई जान पड़ती है। अपराजितपृच्छा ग्रन्थ में बावडि़यों के चार प्रकार बताये गए हैं। अधिकांश बावडि़याँ मन्दिरों, किलों या मठों के नजदीक बनाई जाती थी। आभानेरी की चाँद बावड़ी हर्षद माता के मन्दिर के साथ बनी हुई हैं। इस चाँद बावड़ी के दोनों ओर बरामदे एवं स्नानगृह है। बावडि़यां पीने के पानी, सिंचाई एवं स्नान के लिए महत्वपूर्ण जल स्त्रोत रही हैं। राजस्थान की बावडि़याँ वर्षा जल संचय के काम आती है। कहीं कहीं इनमें आवासीय व्यवस्था भी रहती थी। मेघदूत में बावडी़ निर्माण का उल्लेख मिलता है। आज राजस्थान में बावडि़यों की दशा ठीक नहीं है। इनका जीर्णोंद्धार किया जाना चाहिए।
टांका-
टांका राजस्थान में रेतीले क्षेत्र में वर्षा जल को संग्रहित करने की महत्वपूर्ण परम्परागत प्रणाली है। इसे कुंड भी कहते हैं। यह विशेष तौर से पेयजल के लिए प्रयोग होता है। यह सूक्ष्म भूमिगत सरोवर होता है। जिसको ऊपर से ढक दिया जाता है इसका निर्माण मिटृी से भी होता है और सीमेण्ट से भी होता है। यहाँ का भू-जल लवणीय होता हैं इसलिए वर्षा जल टांके में इकट्ठा कर पीने के काम में लिया जाता है। वह पानी निर्मल होता है। यह तश्तरी प्रकार का निर्मित होता हैं। टांका किलों में, तलहटी में, घर की छत पर, आंगन में और खेत आदि में बनाया जाता है। इसका निर्माण सार्वजनिक रूप से लोगों द्वारा, सरकार द्वारा तथा निजी निर्माण स्वयं व्यक्ति द्वारा करवाया जाता है। पंचायत की जमीन पर निर्मित टांका सार्वजनिक होता हैं। जिसका प्रयोग पूरा गांव करता है। कुछ टांके (कुंडी) गांव के अमीरों द्वारा धर्म के नाम पर परोपकार हेतु बनवा दिए जाते हैं। एक परिवार विशेष उसकी देख-रेख करता हैं। कुंडी या टांके का निर्माण जमीन या चबूतरे के ढलान के हिसाब से बनाए जाते हैं जिस आंगन में वर्षा का जल संग्रहित किया जाता है, उसे आगोर या पायतान कहते हैं। जिसका अर्थ होता बटोरना। पायतान को साफ रखा जाता है, क्योंकि उसी से बहकर पानी टांके में जाता है। टांके के मुहाने पर इंडु (सुराख) होता है जिसके ऊपर जाली लगी रहती है, ताकि कचरा नहीं जा सके। टांका चाहे छोटा हो या बडा़ उसको ढंक कर रखते हैं। पायतान का तल पानी के साथ कटकर नहीं जाए, इस हेतु उसको राख, बजरी व मोरम से लीप कर रखते हैं। टांका 40-30 फीट तक गहरा होता है। पानी निकालने के लिए सीढि़यों का प्रयोग किया जाता है। ऊपर मीनारनुमा ढे़कली बनाई जाती है जिससे पानी खींचकर निकाला जाता है। खेतों में थोड़ी-थोड़ी दूरी पर टांकें या कुडि़या बनाई जाती हैं।
खडीन -
खडीन का सर्वप्रथम प्रचलन 15 वीं शताब्दी में जैसलमेर के पालीवाल ब्राह्मणों ने किया था। यह बहु उद्देशीय परम्परागत तकनीकी ज्ञान पर आधारित होती है। खडीन के निर्माण हेतु राज द्वारा जमीन दी जाती थी जिसके बदले में उपज का 1/4 हिस्सा देना पड़ता था। जैसलमेर जिले में लगभग 500 छोटी बड़ी खडीनें विकसित हैं, जिनसे 1300 हैक्टेयर जमीन सिंचित की जाती है। वर्तमान में ईराक के लोग भी इस प्रणाली को अपनाये हुए हैं। यह ढालवाली भूमि के नीचे निर्मित होता है। इसके दो तरफ मिट्टी की पाल होती है। तीसरी तरफ पत्थर की पक्की चादर बनाई जाती है। खडीन का क्षेत्र विस्तार 5 से 7 किलो मीटर तक होता है। पाल सामान्यतया 2 से 4 मीटर तक ऊंची होती है। पानी की मात्रा अधिक होने पर पानी अगले खडीन में प्रवेश कर जाता है। सूखने पर पिछली खडीन की भूमि में नमी के आधार पर फसलें उगाई जाती है। मरू क्षेत्र में इन्हीं परिस्थितियों में गेहूँ की फसल उगाई जाती है। खडीन तकनीकी द्वारा बंजर भूमि को भी कृषि योग्य बनाया जाता है। जिस स्थान पर पानी एकत्रित होता है, उसे खडीन तथा इसे रोकने वाले बांध को खडीन बांध कहते हैं। खडीन बांध इस प्रकार से बनाए जाते हैं ताकि पानी की अधिक आवन पर अतिरिक्त पानी ऊपर से निकल जाए। गहरी खडीनों में पानी को फाटक से आवश्यकतानुसार निकाल दिया जाता है।खडीनों में बहकर आने वाला जल अपने साथ उर्वरक मिट्टी बहाकर लाता है। जिससे उपज अच्छी होती हैं। खडीन पायतान क्षेत्र में पशु चरते है जिससे पशुओं द्वारा विसरित गोबर मृदा (भूमि) को उपजाऊ बनाता है। खडीनों के नीचे ढलान में कुआं भी बनाया जाता है जिसमें खडीन से रिस कर पानी आता रहता है, जो पीने के उपयोग में आता है। जल प्रबधन कार्यक्रम में परम्परागत निर्मित प्राचीन खडीनों का वैज्ञानिक रख-रखाव होना चाहिए तथा नई खडीनें पारम्परिक तकनीकी ज्ञान के सहारे निर्मित की जानी चाहिए। राजस्थान सरकार ने नई खडीने बनवाने की योजना बनाई है।
टोबा -
टोबा भी एक महत्वपूर्ण पारम्परिक जल प्रबन्धन है, यह नाडी के समान आकृतिवाला होता है। यह नाड़ी से अधिक गहरा होता है। सघन संरचना वाली भूमि, जिसमें पानी का रिसाब कम होता है, टोबा निर्माण के लिए यह उपयुक्त स्थान माना जाता है। इसका ढलान नीचे की ओर होना चाहिए। टोबा के आस-पास नमी होने के कारण प्राकृतिक घास उग आती है जिसे जानवर चरते हैं। प्रत्येक गाँव में जनसंख्या के हिसाब से टोबा बनाये जाते हैं प्रत्येक जाति के लोग अपने अपने टोबा पर झोपडि़यां बना लेते हैं। टोबा में वर्ष भर पानी उपलब्ध रहता है। टोबा में पानी कभी-कभी कम हो जाता है, तो आपसी सहमति से जल का समुचित प्रयोग करते है। एक टोबा के जल का उपयोग सामान्यतः बीस परिवार तक कर सकते हैं। समय समय पर टोबा की खुदाई करके पायतान (आगोर) को बढाया जा सकता है। इसे गहरा किया जाता है, ताकि पानी का वाष्पीकरण कम हो।
झालरा-
झालरा, अपने से ऊंचे तालाबों और झीलों के रिसाव से पानी प्राप्त करते हैं। इनका स्वयं का कोई आगोर (पायतान) नहीं होता है। झालराओं का पानी पीने हेतु नहीं, बल्कि धार्मिक रिवाजों तथा सामूहिक स्नान आदि कार्यो के उपयोग में आता था। इनका आकार आयताकार होता है। इनके तीन ओर सीढियां बनी होती थी। 1660 ई. में, निर्मित जोधपुर का महामन्दिर झालरा प्रसिद्ध था। अधिकांश झालराओं का आजकल प्रयोग बन्द हो गया है। जल संचय की दृष्टि से इनका विशेष महत्व रहा है। झालराओं का वास्तुशिल्प सुन्दर होता हैं। इनके संरक्षण की आवश्यकता है। प्रशासनिक व्यवस्था के साथ-साथ जनसहयोग की भी आवश्यकता है।
कुई या बेरी -
कुई या बेरी सामान्यतः तालाब के पास बनाई जाती है। जिसमें तालाब का पानी रिसता हुआ जमा होता है। कुई मोटे तोर पर 10 से 12 मीटर गहरी होती हैं। इनका मुँह लकड़ी के फन्टों से ढंका रहता है ताकि किसी के गिरने का डर न रहे। पश्चिमी राजस्थान में इनकी अधिक संख्या है। भारत-पाक सीमा से लगे जिलों में इनकी मौजूदगी अधिक हैं। 1987 के भयंकर सूखे के समय सारे तालाबों का पानी सूख गया था, तब भी बेरियों में पानी आ रहा था। परम्परागत जल-प्रबन्धन के अन्तर्गत स्थानीय ज्ञान की आपात व्यवस्था कुई या बेरी में देखी जा सकती है। खेत के चारों तरफ मेंड ऊँची कर दी जाती हैं जिससे बरसाती पानी जमीन में समा जाता है। खेत के बीच में एक छिछला कुआँ खोद देते हैं जहां इस पानी का कुछ हिस्सा रिसकर जमा हो जाता है। इसे काम में लिया जाता है।
(संदर्भ- माध्यमिक शिक्षा बोर्ड, राजस्थान की राजस्थान अध्ययन की पुस्तक)
Comments
Post a Comment
Your comments are precious. Please give your suggestion for betterment of this blog. Thank you so much for visiting here and express feelings
आपकी टिप्पणियाँ बहुमूल्य हैं, कृपया अपने सुझाव अवश्य दें.. यहां पधारने तथा भाव प्रकट करने का बहुत बहुत आभार