>. झालावाड़ से चार किमी दूरी पर अरावली पर्वतमाला की एक सुदृढ़ चट्टान पर कालीसिन्ध और आहू नदियों के संगम पर बना यह किला जल दुर्ग की श्रेणी में आता है। पानी और जंगलों से सुरक्षित यह किला राजस्थान के विशिष्ट ऐतिहासिक स्थलों में से एक है जिसमें से यह ‘वन’ और ‘जल’ दुर्ग दोनों हैं।
>. इस किले का निर्माण कार्य डोड राजा बीजलदेव ने बारहवीं सदी में करवाया था। इतिहासकारों के अनुसार, इस दुर्ग का निर्माण सातवीं सदी से लेकर चौदहवीं सदी तक चला था। पहले इस किले का उपयोग दुश्मनों को मौत की सजा देने के लिए किया जाता था।
>. यहां 14 युद्ध और 2 जोहर (जिसमें महिलाओं ने अपने को मौत के गले लगा लिया) हुए हैं।
>. दुर्गम पथ, चौतरफा विशाल खाई तथा मजबूत दीवारों के कारण यह दुर्ग अपने आप में अनूठा और अद्भुत है। किले के दो मुख्य प्रवेश द्वार हैं। एक द्वार नदी की ओर निकलता है तो दूसरा पहाड़ी रास्ते की ओर।
>. सीधी खड़ी चट्टानों पर ये किला आज भी बिना नींव के सीधा खड़ा हुआ है। किले
में तीन परकोटे है जबकि राजस्थान के अन्य किलो में दो ही परकोटे होते हैं।
>. संत पीपा की नगरी है यह-
यह दुर्ग शौर्य ही नहीं भक्ति और त्याग की गाथाओं का साक्षी है। संत रामानन्द के शिष्य संत पीपा इसी गागरोन के शासक रहे हैं, जिन्होंने राजसी वैभव त्यागकर राज्य अपने अनुज अचलदास खींची को सौंप दिया था।
हुआ यह था कि 1338 ई से 1368 तक राजा प्रताप राव ने गागरोण पर राज किया और इसे एक समृद्ध रियासत बना दिया। बाद में सन्यासी बनकर वही 'राजा संत पीपा' कहलाए। गुजरात के द्वारका में आज उनके नाम का मठ है।
>. गागरोन में मुस्लिम संत पीर मिट्ठे साहब की दरगाह भी है, जिनका उर्स आज भी प्रतिवर्ष यहाँ लगता है। प्रत्येक वर्ष मोहर्रम के अवसर पर यहाँ एक
मेला आयोजित किया जाता है।
>. यह किला अचलदास खींची की वीरता के लिए प्रसिद्ध रहा है जो 1423 में मांडू के सुल्तान हुशंगशाह से लड़ता हुआ वीरगति को प्राप्त हुआ। युद्धोपरान्त रानियों ने अपनी रक्षार्थ जौहर किया।
कौन थे अचलदास खींची
>. मध्यकाल में गागरोन की संपन्नता एवं समृद्धि पर मालवा में बढ़ती मुस्लिम शक्ति की नजर रहती थी।
>. 1423 ई. में मांडू के सुल्तान होशंगशाह ने 30 हजार घुड़सवार, 84 हाथी, अनगिनत पैदल सेना, अनेक अमीर राव और राजाओं के साथ इस गढ़ को घेर लिया।
>. अपने से विशाल सेना एवं उन्नत अस्त्र-शस्त्रों के सामने जब अचलदास को लगा कि उनकी हार निश्चित है तो उन्होंने कायरतापूर्ण आत्मसमर्पण की जगह वीरता से लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त हुए। इसके बाद दुश्मन से अपनी असमत की रक्षा के लिए हजारों महिलाओं ने मौत को गले लगा लिया था।
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