सांझी, संझ्या, मामुलिया, रली आदि कई नाम से जाना जाने वाला ये पर्व प्रत्येक घर में मनाया जाता है जिसमें महिलाएं विशेषकर कन्याएं अपने घर के मुख्य द्वार के पास की दीवार पर गोबर और फूलों से सझ्याँ की झांकी बनाती है।
साँझी की प्रतिष्ठा राजस्थान में लोक देवी गौरी (पार्वती) के रूप में भी है, इसीलिए यहाँ संध्या देवी को प्रातःकाल में दूध व पुष्प से तथा शाम को शक्कर मिले आटे को छिड़क कर पूजते हैं। लड़कियाँ इस पर्व में साँझी को माता पार्वती मानकर अच्छे घर तथा वर के लिए कामना करती है।
इस पर्व में पहले दिन कुंवारी लड़कियां अपने घर के मुख्य द्वार के समीप गेरू से एक सम चौरस आकृति बनाती है, फिर इस पर चूने से बोर्डर बनाती है। गोबर से अलग-अलग आकृतियां बनाकर उन्हें फूल व पत्तियों से सजाया जाता है। बाद में इसकी पूजा-अर्चना की जाती है। इसे प्रतिदिन भोग लगाया जाता है। ऐसी मान्यता है कि श्राद्ध पक्ष में शाम को घर के बाहर संझ्या बनाने से पितृ खुश होते हैं और सुख-समृद्धि प्रदान करने के साथ ही संकटों से दूर रखते हैं। यह कन्याओं और परिजनों में पितरों के प्रति श्रद्धा भाव जागृत करता है।
पहले दिन सूर्य, चन्द्रमा व तारे, दूसरे दिन पांच पचेटे (पाँच गोलाकार पुष्प रुपी आकृतियाँ) बनाई जाती है। ये पांच पचेटे पंच-परमेश्वर का प्रतीक माने जाते हैं। इनमें संयुक्त परिवार की झलक भी दिखाई देती है। सांझी में बनाई जाने वाली इन आकृतियों में प्रतिदिन चांद, सूरज के साथ ही सबसे ऊपर कौआ बनाया जाता है। इनमें से कौए को प्रतिदिन सूर्योदय से पूर्व संझ्या बनाने वाली किशोरी कन्या ही हटाती है।
अलग अलग स्थानों पर संध्या के रूपांकनों का क्रम अलग अलग हो सकता है किन्तु कमोबेश पहले दिन सूर्य, चन्द्रमा व तारे, दूसरे दिन पाँच फूल (पाँच पचेटे), तीसरे दिन पंखी, चौथे दिन हाथी सवार, पाँचवें दिन चौपड़, छठे दिन स्वस्तिक, सातवें दिन घेवर, आठवे दिन ढोलक, ढोल या नगाड़े, नवें दिन बन्दनवार व दसवें दिन खजूर का पेड़ बनाया जाता है। ग्यारस को छबड़ी, बारस को बीजणी, तेरस को जनेऊ, चौदस को संझ्या की बरात का अलंकरण होता है। अंतिम दिन बनाए जाने वाले ''संझ्याकोट'' में बीचो-बीच सांझी माता बड़े आकार की तथा चारों ओर मानव, पशु-पक्षी आकृतियाँ बनाई जाती है। कहीं-कहीं पाँच पछेटा, पंखा, चौपड़, बीजणी, तिबारी, जनेऊ, घड़ा, कलश, थाल, दोना, फेनी, घेवर, जलेबी, सीढ़ी, छबड़ी, मोर-मोरनी, हनुमान आदि दैनिक जीवन के अलंकरण बनाए जाते हैं। इन अलंकरणों में दैनिक साजसज्जा के सामान यथा- कांच, कांगसी, विभिन्न आभूषणों का चित्रण किया जाता है। अंतिम दिन बनाये जाने वाले कोट का विशेष रंगीन अलंकरण किया जाता है जिसमें अलग-अलग रंग की मालीपन्ना के पत्तियों का प्रयोग किया जाता है।
दैनिक अलंकरण में अक्सर जाड़ी जसोदा (मोटी स्त्री) तथा पतली पेमा (दुबली स्त्री) नामक दो स्त्रियों के रूप में एक मोटी तथा एक दुबली पतली स्त्रियों का चित्रण भी किया जाता है, जो दैनिक जीवन में स्त्रियों के देह आकारों का अंकन होता है।
इस परंपरा का एक पक्ष यह भी है कि मोहल्ले की किशोरियां आरती के समय एक साथ एकत्रित हो जाती है। एक के बाद एक सभी संझ्याओं की आरती सब मिलकर कर करती है। इससे उनमें आपसी प्रेम बना रहता है। इस पर्व में लोकदेवी संझ्या को प्रतिदिन प्रसाद भी अर्पित किया जाता है और आरती के बाद प्रसाद का वितरण किया जाता है। प्रसाद के रूप में गुड़धानी, मिश्री, शक्कर, खाण्ड चणा, पेड़े, हलवा आदि का श्रद्धानुसार भोग चढ़ाया जाता है।कन्याएँ प्रतिदिवस संध्या के गीत भी गाती है -
लोककलाविद डॉ श्रीकृष्ण 'जुगनू' के अनुसार संझ्या की आरती में यह भाव समाहित होता है कि अपनी ही बनाई गई कला को कोई बुरी नजर न लग जाए, इसलिए निराकरण का उपाय किया जाए। आरात्रिक या आरार्तिक... आरती का मूल विचार इस पर्व के साथ जुड़ा है। इस कलापर्व में अनूठी प्रतिस्पर्धा का भाव भी परिलक्षित होता है। लड़कियां संझ्या का चित्रण पूर्ण मनोयोग से ये ध्यान रखती हुई करती है कि उसकी संझ्या गाँव में सबसे सुन्दर बने। चित्रण के बाद सभी अपने आसपास की संझ्या का अवलोकन भी करती है।
संझ्या का निर्माण गोधूली वेला से पूर्व किया जाता है और गोधूली वेला में पूजन का वितरण भी किया जाता है। नई संझ्या बनाने से पूर्व पुरानी को उखाड़ लिया जाता है तथा उसके अवशेष को एक पात्र में इकठ्ठा करते रहते है। पूरे पन्द्रह दिन बाद इसका जल में विसर्जन कर दिया जाता है।
डॉ जुगनू के अनुसार वेद में उषादेवी और रात्रि देवी के पूजन का संदर्भ है मगर संध्यादेवी के पूजन का यह अनूठा पर्व है, जो प्रत्येक तिथि के साथ जुड़ी है और तिथि के वृद्धिसूचक अंकों के अनुसार अपना आकार तय करती जाती है। नारदपुराण में इन्हीं गुणों के कारण संध्यावली को श्रेष्ठ नायिका कहा गया है जो पति, पुत्र सहित महालय में लीन होती है-
लोक देवी गौरी (पार्वती) का रूप भी है संझ्या-
साँझी की प्रतिष्ठा राजस्थान में लोक देवी गौरी (पार्वती) के रूप में भी है, इसीलिए यहाँ संध्या देवी को प्रातःकाल में दूध व पुष्प से तथा शाम को शक्कर मिले आटे को छिड़क कर पूजते हैं। लड़कियाँ इस पर्व में साँझी को माता पार्वती मानकर अच्छे घर तथा वर के लिए कामना करती है।
गोबर और पुष्पों से होता है संझ्या का अलंकरण -
इस पर्व में पहले दिन कुंवारी लड़कियां अपने घर के मुख्य द्वार के समीप गेरू से एक सम चौरस आकृति बनाती है, फिर इस पर चूने से बोर्डर बनाती है। गोबर से अलग-अलग आकृतियां बनाकर उन्हें फूल व पत्तियों से सजाया जाता है। बाद में इसकी पूजा-अर्चना की जाती है। इसे प्रतिदिन भोग लगाया जाता है। ऐसी मान्यता है कि श्राद्ध पक्ष में शाम को घर के बाहर संझ्या बनाने से पितृ खुश होते हैं और सुख-समृद्धि प्रदान करने के साथ ही संकटों से दूर रखते हैं। यह कन्याओं और परिजनों में पितरों के प्रति श्रद्धा भाव जागृत करता है।
पहले दिन सूर्य, चन्द्रमा व तारे, दूसरे दिन पांच पचेटे (पाँच गोलाकार पुष्प रुपी आकृतियाँ) बनाई जाती है। ये पांच पचेटे पंच-परमेश्वर का प्रतीक माने जाते हैं। इनमें संयुक्त परिवार की झलक भी दिखाई देती है। सांझी में बनाई जाने वाली इन आकृतियों में प्रतिदिन चांद, सूरज के साथ ही सबसे ऊपर कौआ बनाया जाता है। इनमें से कौए को प्रतिदिन सूर्योदय से पूर्व संझ्या बनाने वाली किशोरी कन्या ही हटाती है।
क्या होता है संझ्या कोट-
इस पर्व में कन्याएं श्राद्धपक्ष में एकम से अमावस्या तक प्रतिदिन सांझ को लोकदेवी संझ्या के विभिन्न रूपों का चित्रण किया जाता है। लोकदेवी सांझी के पूजन के साथ इस पर्व में लोक कला का भी एक पक्ष होता है, जिसमें महिलाएं अपनी कल्पना को संझ्या के विविध रूपों में रूपांकित करती है। वे अलग अलग तिथि के अनुसार गाय के गोबर से नित नई आकृतियां बनाकर पत्तों, फूल-केसर, पंखुडियों इत्यादि से संझ्या को सजाती है और फिर आरती करती हैं। प्रथम दिन से दस दिन तक एक या दो प्रतीक ही प्रतिदिन बनाए जाते है, किंतु अंतिम दिन बड़े आकार की रंगीन साँझी बनाई जाती है, जिसे संझ्या कोट कहते है।अलग अलग स्थानों पर संध्या के रूपांकनों का क्रम अलग अलग हो सकता है किन्तु कमोबेश पहले दिन सूर्य, चन्द्रमा व तारे, दूसरे दिन पाँच फूल (पाँच पचेटे), तीसरे दिन पंखी, चौथे दिन हाथी सवार, पाँचवें दिन चौपड़, छठे दिन स्वस्तिक, सातवें दिन घेवर, आठवे दिन ढोलक, ढोल या नगाड़े, नवें दिन बन्दनवार व दसवें दिन खजूर का पेड़ बनाया जाता है। ग्यारस को छबड़ी, बारस को बीजणी, तेरस को जनेऊ, चौदस को संझ्या की बरात का अलंकरण होता है। अंतिम दिन बनाए जाने वाले ''संझ्याकोट'' में बीचो-बीच सांझी माता बड़े आकार की तथा चारों ओर मानव, पशु-पक्षी आकृतियाँ बनाई जाती है। कहीं-कहीं पाँच पछेटा, पंखा, चौपड़, बीजणी, तिबारी, जनेऊ, घड़ा, कलश, थाल, दोना, फेनी, घेवर, जलेबी, सीढ़ी, छबड़ी, मोर-मोरनी, हनुमान आदि दैनिक जीवन के अलंकरण बनाए जाते हैं। इन अलंकरणों में दैनिक साजसज्जा के सामान यथा- कांच, कांगसी, विभिन्न आभूषणों का चित्रण किया जाता है। अंतिम दिन बनाये जाने वाले कोट का विशेष रंगीन अलंकरण किया जाता है जिसमें अलग-अलग रंग की मालीपन्ना के पत्तियों का प्रयोग किया जाता है।
जाड़ी जसोदा व पतली पेमा के रूप में हास-परिहास भी इसमें -
दैनिक अलंकरण में अक्सर जाड़ी जसोदा (मोटी स्त्री) तथा पतली पेमा (दुबली स्त्री) नामक दो स्त्रियों के रूप में एक मोटी तथा एक दुबली पतली स्त्रियों का चित्रण भी किया जाता है, जो दैनिक जीवन में स्त्रियों के देह आकारों का अंकन होता है।
प्रतिदिन की जाती है संझ्या रानी की आरती-
इस परंपरा का एक पक्ष यह भी है कि मोहल्ले की किशोरियां आरती के समय एक साथ एकत्रित हो जाती है। एक के बाद एक सभी संझ्याओं की आरती सब मिलकर कर करती है। इससे उनमें आपसी प्रेम बना रहता है। इस पर्व में लोकदेवी संझ्या को प्रतिदिन प्रसाद भी अर्पित किया जाता है और आरती के बाद प्रसाद का वितरण किया जाता है। प्रसाद के रूप में गुड़धानी, मिश्री, शक्कर, खाण्ड चणा, पेड़े, हलवा आदि का श्रद्धानुसार भोग चढ़ाया जाता है।कन्याएँ प्रतिदिवस संध्या के गीत भी गाती है -
मोर पछेटा सात्या सजावां ,
मोत्या मांग पुरावां ,
कोट बणावाँ कलस सजावां,
संझ्यां ने परणावां,
आरती गावाँ लुरलुर जावाँ,
मंगलमोद मनावाँ ।।
लोककलाविद डॉ श्रीकृष्ण 'जुगनू' के अनुसार संझ्या की आरती में यह भाव समाहित होता है कि अपनी ही बनाई गई कला को कोई बुरी नजर न लग जाए, इसलिए निराकरण का उपाय किया जाए। आरात्रिक या आरार्तिक... आरती का मूल विचार इस पर्व के साथ जुड़ा है। इस कलापर्व में अनूठी प्रतिस्पर्धा का भाव भी परिलक्षित होता है। लड़कियां संझ्या का चित्रण पूर्ण मनोयोग से ये ध्यान रखती हुई करती है कि उसकी संझ्या गाँव में सबसे सुन्दर बने। चित्रण के बाद सभी अपने आसपास की संझ्या का अवलोकन भी करती है।
संझ्या का निर्माण गोधूली वेला से पूर्व किया जाता है और गोधूली वेला में पूजन का वितरण भी किया जाता है। नई संझ्या बनाने से पूर्व पुरानी को उखाड़ लिया जाता है तथा उसके अवशेष को एक पात्र में इकठ्ठा करते रहते है। पूरे पन्द्रह दिन बाद इसका जल में विसर्जन कर दिया जाता है।
डॉ जुगनू के अनुसार वेद में उषादेवी और रात्रि देवी के पूजन का संदर्भ है मगर संध्यादेवी के पूजन का यह अनूठा पर्व है, जो प्रत्येक तिथि के साथ जुड़ी है और तिथि के वृद्धिसूचक अंकों के अनुसार अपना आकार तय करती जाती है। नारदपुराण में इन्हीं गुणों के कारण संध्यावली को श्रेष्ठ नायिका कहा गया है जो पति, पुत्र सहित महालय में लीन होती है-
आला फूलां भरियो वाटको जी कांई,संझ्या की बाई ओ,संझ्या ने भेजो करां संझ्या री आरती।।