चितौड़गढ़ दुर्ग स्वतंत्रता और स्वाभिमान के संघर्ष का प्रतीक है। चित्तौडगढ़ को प्राचीन चित्रकूट दुर्ग भी कहा जाता है। यह किला उत्तरी अक्षांश 24° 59' से पूर्वी देशांतर 75°33' पर स्थित है। इस दुर्ग से राजपूत वीरों की कई वीरगाथाएं जुडी है। चितौड़ राजपूतों के शौर्य, साहस और बलिदान के कारण इतिहास में गौरवपूर्ण स्थान रखता है। यह दुर्ग स्थापत्य कला का बेजोड़ अद्भुत नमूना है।
इसीलिए इसे गढ़ों का सिरमोर कहा जाता है। इसके बारे में कहा गया है-
- "गढ़ तो चितौडगढ़, बाकि सब गढ़ैया"
यह किला अजमेर-रतलाम रेलमार्ग पर चित्तौडगढ़ जंक्शन से 4 किमी दूर बेडच और गंभीरी नदियों के संगम पर 152 मीटर ऊंची पहाड़ी पर लगभग 700 एकड़ के क्षेत्र में फैला है। इसकी लम्बाई लगभग 8 किमी तथा चौडाई 2 किमी है। वीर-विनोद के अनुसार इसका निर्माण 7वीं शताब्दी ई. में मोरी (मौर्य) राजवंश के चित्रांगद मोरी द्वारा करवाया गया था। चित्रांगद के नाम पर ही इसका नाम 'चित्रकोट या चित्रकूट' पड़ा जो अपभ्रंश होकर बाद में चित्तौड़ हो गया। मोरी वंश का यहाँ शासन आठवीं साड़ी तक रहा तथा इसका अंतिम मोरी शासक 'मानमोरी' था जिसे पराजित करके 'बाप्पा-रावल' ने इस पर अधिकार कर लिया। यह किला 7वीं से 16वीं शताब्दी तक यह सत्ता का महत्वपूर्ण केन्द्र रहा है। इस किले के दीर्घ इतिहास में इस पर तीन बार आक्रमण किए गए। पहला- 1303 ई. में अलाऊद्दीन खिलजी द्वारा, दूसरा- 1535 ई. में गुजरात के बहादुर शाह द्वारा तथा तीसरा- 1567-68 ई. में मुगल बादशाह अकबर द्वारा किया गया और प्रत्येक बार यहां जौहर व साका हुआ।
प्रथम साका-
जब चित्तौगढ़ पर 1303 ई. में अलाऊद्दीन खिलजी द्वारा साम्राज्य विस्तार की इच्छा से आक्रमण किया तब वहाँ राणा रतन सिंह का शासन था। यह भी कहा जाता है अलाउद्दीन खिलजी रतन सिंह की अप्रतिम रूप सौन्दर्य की धनी रानी पद्मिनी को भी प्राप्त करना चाहता था। इस युद्ध में राणा अपने वीर योद्धाओं 'गोरा और बादल' के साथ वीरगति को प्राप्त हुआ तथा रानी पद्मिनी ने अन्य रानियों और स्त्रियों के साथ जौहर किया। अलाउद्दीन ने इस किले का शासन अपने पुत्र खिज्रखां को सौंप दिया एवं इसका नाम बदल कर 'खिज्राबाद' कर दिया।
द्वितीय साका-
यह साका 1534 ईस्वी में राणा विक्रमादित्य के शासनकाल में गुजरात के सुल्तान बहादुरशाह के आक्रमण के समय हुआ था। इस समय यहाँ का शासक विक्रमादित्य नाबालिग था और शासन की बागडोर रानी कर्मावती के हाथ में थी। सुल्तान ने चित्तौडगढ़ की कमजोर स्थिति का फायदा उठाने का प्रयास किया। तब नाबालिग राणा को अपने छोटे भाई उदयसिंह के साथ ननिहाल बूंदी भेज दिया। देवलिया प्रतापगढ़ के रावत बाघसिंह के नेतृत्व में युद्ध लड़ा गया जिसमें वो वीरगति को प्राप्त हुए। इसमें रानी कर्मवती के नेतृत्व में स्त्रियों ने जौहर किया था।
तृतीय साका-
यह 1567 में राणा उदयसिंह के शासनकाल में अकबर के आक्रमण के समय हुआ था जिसमें जयमल और पत्ता के नेतृत्व में चित्तौड़ की आठ हजार की सेना ने मुगल सेना का जमकर मुकाबला किया और स्त्रियों ने जौहर किया था।
बनावट-
स्थापत्य की दृष्टि से चित्तौड़ का दुर्ग निराला है। विशिष्ट सुदृढ़ घुमावदार प्राचीर, भव्य सात प्रवेशद्वार, विशाल व उन्नत बुर्ज, महल, मंदिर, दुर्ग, टेढ़ा मेढा सर्पिलाकार मार्ग तथा जलाशय आदि स्वयं इसकी स्मारकीय विरासत वर्णित करते हैं, जो राजपूत वास्तुकला के उत्कृष्ट नमूने हैं।
किले के महत्वपूर्ण स्मारकों का संक्षिप्त विवरण इस प्रकार है:-
प्रवेश द्वार व खिड़कियाँ-
- चित्तौढ़ के किले में प्रवेश के लिए मुख्य प्रवेश द्वार पश्चिम दिशा में है।
- इस दिशा में इसके सात प्रवेश द्वार हैं।
- प्रथम प्रवेश द्वार पाडनपोल के नाम से जाना जाता है।
- इसके बाद भैरव पोल, हनुमान पोल, गणेश पोल, जोड़ला पोल, लक्ष्मण पोल तथा अंत में राम पोल है जो 1459 में बनवाया गया था।
- प्रथम प्रवेश द्वार के पीछे रावत बाघ सिंह का स्मारक है।
- हनुमान पोल व भैरव पोल पर देवताओं की मूर्तियाँ स्थापित है।
- इन दोनों द्वारों के मध्य वीर जयमल और कल्ला जी राठौड़ की छतरियां है।
- अंतिम प्रवेश द्वार रामपोल पर वीर पत्ता सिसोदिया का स्मारक है।
- किले की पूर्वी दिशा में स्थित प्राचीन प्रवेशद्वार को सूरज पोल कहा जाता है।
- उत्तर और दक्षिण दिशा में लघु प्रवेश द्वार या खिड़कियाँ हैं।
- उत्तर दिशा की खिडकी को लाखोटा कहते हैं।
कुम्भा महल-
यह एक पुराना महल था जिसकी मरम्मत महाराणा महाराणा कुम्भा (1433-68) ने करवा कर इसे नवीन स्वरुप दिया था, इसलिए इसे कुम्भा महल कहा जाता है। महल में बड़ी पोल तथा त्रिपोलिया नामक द्वारों से प्रवेश किया जाता है जो आगे खुले आंगन में सूरज गोखड़ा, जनाना महल, कंवरपदा के महल की तरफ जाता है। इस महल परिसर के दक्षिणी भाग में पन्नाधाय तथा मीराबाई के महल स्थित हैं।
पद्मिनी महल-
पद्मिनी महल |
रतन सिंह महल-
रत्नेश्वर तालाब के संलग्न यह महल राणा रतन सिंह II (1528-31) का है। इसकी योजना आयताकार है तथा इसमें एक आंगन है जो कक्षों तथा एक मंडप से घिरा है, जिसकी बालकनी दूसरी मंजिल के पूर्वी भाग पर है।
फतेह प्रकाश महल-
इस सुन्दर दो मंजिला महल का निर्माण महाराणा फतेह सिंह (1884-30 ई.) द्वारा करवाया गया था। इस महल के चारों कोनों पर एक-एक बुर्ज है, जो सुन्दर गुम्बददार छतरियों से सुसज्जित हैं। यह महल आधुनिक भारतीय वास्तुकला का एक उत्कृष्ट नमूना है। वर्तमान में इसे एक संग्रहालय के रूप में विकसित किया गया है।
कालिका माता मंदिर-
राजा मानभंग द्वारा 8वीं शताब्दी में निर्मित यह मंदिर मूल रूप से सूर्य को समर्पित है, जिसका प्रमाण इस मंदिर के द्वार पाखों के केन्द्र में उकेरी गयी सूर्य की मूर्ति से स्पष्ट होता है। समय-समय पर इसका जीर्णोद्धार किया गया। इसमें गर्भगृह, अन्तराल, एक बंद मंडप तथा एक द्वारमण्डप है। वर्तमान में इसमें कलिका माता या काली देवी मंदिर की प्रमुख देवी के रूप में प्रतिष्ठित है।
समाधीश्वर मंदिर-
समाधीश्वर मंदिर |
कुंभस्वामी मंदिर-
यह मंदिर मूल रूप से वराह (विष्णु का शूकर अवतार) को समर्पित है। इस मंदिर का निर्माण 8वीं शताब्दी में करवाया गया था तथा महाराणा कुम्भा (1433-68 ई.) द्वारा इसका बड़े पैमाने पर जीर्णोद्धार किया गया। यह मंदिर एक ऊँचे अधिष्ठान पर निर्मित है तथा इसमें एक गर्भगृह, एक अन्तराल, एक मंडप, एक अर्द्ध मंडप तथा एक खुला प्रदक्षिणा पथ है। मंदिर के पृष्ठ भाग के मुख्य आले में वराह की मूर्ति दर्शाई गई है। मंदिर के सामने एक छतरी के नीचे गरुड़ की मूर्ति है। उत्तर में एक लघु मंदिर है जिसे मीरा मंदिर के नाम से जाना जाता है।
सात बीस देवरी-
27 जैन मंदिरों का यह समूह एक अहाते के बीच स्थित है जिसे 1448 ई. में बनवाया गया था। ये 27 जैन मंदिर स्थानीय रूप से ''सात बीस देवरी'' के नाम से प्रसिद्ध है। प्रमुख मंदिर में गर्भगृह, अंतराल, मंडप, सभा मंडप तथा मुखमंडप स्थित हैं। परिसर के पूर्व में दो पूर्वोन्मुख मंदिर है।
कीर्ति स्तंभ-
विजय स्तम्भ |
यह शानदार स्मारक स्थानीय रूप से विजय स्तंभ के रूप में जाना जाता है। मांडू के सुल्तान पर विजय के उपलक्ष्य में इसका निर्माण महाराणा कुम्भा द्वारा 1440 ई. में प्रारंभ करवाया था, जो 1448 ई. में पूर्ण हुआ। भगवान विष्णु को समर्पित यह स्तम्भ 37.19 मीटर ऊंचा है तथा इसमें नौ मंजिले हैं। ये नौ मंजिल या नौ-खंड नवनिधियों के प्रतीक है। इसमें ब्रह्मा, विष्णु, शिव-पार्वती, आदि देवी-देवताओं के अलावा रामायण व महाभारत के पात्रों की प्रतिमाएं उत्कीर्ण है। सबसे ऊपर की मंजिल में चित्तौड़ के शासकों के जीवन तथा उपलब्धियों का विस्तृत क्रमवार लेखा-जोखा उत्कीर्ण है, जिसे राणा कुम्भा की सभा के विद्वान अत्री ने लिखना शुरू किया था तथा बाद में उनके पुत्र महेश ने इसे पूरा किया। इसकी व्यवस्थित सीढ़ियों द्वारा कोई भी व्यक्ति सबसे ऊपर की मंजिल तक पहुंच सकता है। इस स्तम्भ के वास्तुविद् 'सूत्रधार जैता' तथा उसके तीन पुत्र- नापा, पुजा तथा पोमा के नाम पांचवीं मंजिल में उत्कीर्ण हैं।
जैन कीर्ति स्तंभ-
जैन कीर्ति स्तम्भ
24.50 मीटर ऊंचाई वाला यह छह मंजिला टॉवर प्रथम जैन तीर्थंकर आदिनाथ को समर्पित है। इसका निर्माण श्रेष्ठी जीजा द्वारा 1300 ई. में करवाया गया था। यह स्तम्भ एक ऊँचे उठे हुए चबूतरे पर निर्मित है तथा इसमें अन्दर व्यवस्थित सीढ़ियां हैं। निचली मंजिल में चारों दिशाओं में आदिनाथ की खड़ी प्रतिमाएं बनी हैं। ऊपर की मंजिलों में जैन देवताओं की सैकड़ों छोटी मूर्तियां स्थापित हैं।
गौमुख कुंड-
गौमुख कुंड |
- कंवरपदा के खंडहर,
- भामाशाह की हवेली,
- सलूम्बर, रामपुरा व अन्य ठिकानों की हवेलियाँ,
- आल्हा स्मारक,
- फत्ता तथा जयमल, खातन का महल,
- पुरोहित जी की हवेली,
- हिंगलू आहाड़ा के महल,
- रत्नेश तालाब,
- कुंभ सागर,
- हाथी कुंड,
- मीरा मंदिर के सामने रैदास छतरी ,
- श्रृंगार चौरी
- भीमताल नामक बड़ा तालाब,
- झाली-बाव (पाड़न पोल के पास उदयसिंह की झाली रानी द्वारा निर्मित बावड़ी)
- चित्रांग मोरी तालाब (राजटीला नामक स्थान पर)
- तोपखाना आदि।
चित्तौडगढ़ की वास्तु व्यवस्था से स्पष्ट होता है कि इस दुर्ग में रानियों के लिए रनिवास, राज-परिवार के लिए महल, भव्य मंदिर, अथाह जल संचय कर सकने वाले जलाशय, विशाल बावड़ियां, शस्त्रागार, अन्न भंडार, गुप्त सुरंग के अलावा प्रजा के लिए कई सुविधाएँ विद्यमान थी।