जंतर मंतर का शाब्दिक अर्थ है- 'यंत्र और मंत्र'। अर्थात ऐसे खगोलीय सूत्र जिन्हें यंत्रों के माध्यम से ज्ञात किया जाता है। ये वेधशालाएं प्राचीन खगोलीय यंत्रों एवं जटिल गणितीय संरचनाओं के माध्यम से ज्योतिषीय तथा खगोलीय घटनाओं का विश्लेषण और सटीक भविष्यवाणी करने के लिए लिए प्रयोगशाला की तरह काम आती थी। देश में पांच जंतर मंतर वेधशालाएं हैं और सभी का निर्माण जयपुर के संस्थापक महाराजा सवाई जयसिंह द्वितीय ने कराया था। जयपुर के अतिरिक्त अन्य वेधशालाएं दिल्ली, उज्जैन, वाराणसी और मथुरा में स्थित हैं। इन सबमें सिर्फ जयपुर और दिल्ली की वेधशालाएं ही वर्तमान में ठीक अवस्था में हैं, शेष वेधशालाएं जीर्ण शीर्ण हो चुकी हैं।
जयपुर के शाही महल चंद्रमहल के दक्षिणी-पश्चिमी सिरे पर मध्यकाल की बनी वेधशाला जंतर-मंतर पौने तीन सौ साल से भी अधिक समय से जयपुर की शान बनी हुई है। इस विश्वप्रसिद्ध अप्रतिम वेधाशाला का निर्माण जयपुर के संस्थापक महाराजा सवाई जयसिंह ने अपनी देखरेख में कराया था। सन 1734-35 में यह वेधशाला बनकर तैयार हुई। कई प्रतिभाओं के धनी महाराजा सवाई जयसिंह एक बहादुर योद्धा और मुगल सेनापति होने के साथ साथ खगोल विज्ञान में गहरी रूचि भी रखते थे। वे स्वयं एक कुशल खगोल वैज्ञानिक थे। जिसका प्रमाण है जंतर-मंतर में स्थित 'जय प्रकाश यंत्र' जिसके आविष्कारक स्वयं महाराजा जयसिंह थे। महाराजा के मन में सन 1718 से ही ज्योतिष संबंधी वेधशाला के निर्माण का विचार उत्पन्न हुआ था। भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने अपनी पुस्तक 'भारत एक खोज' में इन वेधशालाओं का जिक्र करते हुए लिखा है कि महाराजा सवाई जयसिंह ने जयपुर में वेधशाला के निर्माण से पहले विश्व के कई देशों में अपने सांस्कृतिक दूत भेजकर वहां से खगोल विज्ञान के प्राचीन और महत्वपूर्ण ग्रन्थों की पांडुलिपियां मंगाई। उन्हें पोथीखाने में संरक्षित कर अध्ययन के लिए उनका अनुवाद कराया। संपूर्ण जानकारी जुटाने के पश्चात ही महाराजा ने जयपुर सहित दिल्ली, मथुरा, उज्जैन और वाराणसी में वेधशालाएं बनवाई। लेकिन सभी वेधशालाओं में जयपुर की वेधशाला सबसे विशाल है और यहां के यंत्र और शिल्प भी बेजोड़ है। जंतर-मंतर के निर्माण करने में दो विद्वानों का महत्वपूर्ण योगदान रहा था। जब महाराजा ने वेधशाला के निर्माण का विचार किया , तब उन्होंने इस निमित्त ज्योतिष संबंधी विभिन्न ग्रंथों का अध्ययन करने के लिए अलग-अलग भाषाओं में लिखे गणितीय व ज्योतिष की पुस्तकों का संस्कृत भाषा में अनुवाद विभिन्न भाषाओं के ज्ञाता मराठा ब्राह्मण पंडित जगन्नाथ सम्राट द्वारा करवाया। इसके अलावा उन्होंने श्रीमाली पंडित केवलरामजी से गणित ज्योतिष संबंधी सारणियों का निर्माण कराया। ये दोनों विभिन्न भाषाओं के विद्वान थे। उनका इस कार्य में पूर्ण सहयोग रहा था। इसके अलावा महाराजा जयसिंह ने अरब ब्रिटेन यूरोप व पुर्तगाल आदि अनेक देशों में अनेक विद्वानों को भेजकर वहां के ज्योतिष संबंधी ग्रंथों का सारभूत अध्ययन कराया। इस प्रकार वर्षों तक निरंतर अनुशीलन तथा अनुसंधान करने के बाद सन 1734 में पहली वेधशाला दिल्ली में स्थापित की गई।
जंतर-मंतर तक दो रास्तों से पहुंचा जा सकता है। एक रास्ता हवामहल रोड से जलेब चौक होते हुए जंतर मंतर पहुंचता है, दूसरा रास्ता त्रिपोलिया बाजार से आतिश मार्केट होते हुए चांदनी चौक से जंतर मंतर तक पहुंचता है। जंतर मंतर का प्रवेश द्वार सिटी पैलेस के वीरेन्द्र पोल के नजदीक से है। यूनेस्को ने जयपुर के जंतर-मंतर को विश्व धरोहर सूची में शामिल किया गया है। विश्व धरोहर की सूची में शामिल किए जाने के बाद यहां स्थानीय, राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय पर्यटन का महत्व काफी बढ़ गया है।
इसका जीर्णोद्धार 1901 में महाराजा सवाई माधोसिंह के समय में पं चंद्रधर गुलेरी और पंडित गोकुलचंद के सहयोग से संगमरमर के पत्थरों पर किया गया। इससे पूर्व यह वेधशाला चूने और पत्थर से बनी हुई थी। कालान्तर में इस विषय के प्रकांड विद्वान पं केदारनाथजी इस वेधशाला में ज्योतिषीय आदि का कार्य सम्यक रूप से करते रहे। यहां के षष्ठांस यंत्र का जीर्णोद्धार भी इन्होंने ही कराया।
यूनेस्को ने वर्ष 2010 में जयपुर के जंतर-मंतर को विश्व धरोहर सूची में शामिल किया। ब्राजील की राजधानी ब्राजीलिया में वर्ल्ड हैरिटेज कमेटी के 34वें अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन में इस वेधशाला को विश्व विरासत स्मारक की श्रेणी में शामिल किया गया। जंतर मंतर को विश्व विरासत की श्रेणी में लेने के पीछे कई ठोस कारण हैं। इनमें यहां के सभी प्राचीन यंत्रों का ठीक अवस्था में होना और इन यंत्रों के माध्यम से आज भी मौसम, स्थानीय समय, ग्रह-नक्षत्रों ग्रहण आदि खगोलीय घटनाओं की सटीक गणना संभव होना आदि प्रमुख कारण हैं। यूनेस्को ने 282 वर्ष पहले लकड़ी, चूना, पत्थर और धातु से निर्मित यंत्रों के माध्यम से खगोलीय घटनाओं के अध्ययन की इस भारतीय विद्या को अद्भुत मानकर इसे विश्व धरोहर में शामिल करने पर विचार किया। इन यंत्रों की खास बात यह है कि इनकी गणना के आधार पर आज भी स्थानीय पंचांगों का प्रकाशन होता है। साथ ही हर साल आषाढ पूर्णिमा को खगोलशास्त्रियों और ज्योतिषियों द्वारा यहां पवन धारणा के माध्यम से वर्षा की भविष्यवाणी की जाती है।
जंतर-मंतर के प्रमुख यंत्र-
1. सम्राट यंत्र-
जंतर मंतर में सम्राट यंत्र सबसे विशाल और आकर्षक यंत्र है, सतह से इस यंत्र की ऊंचाई 90 फीट है और यह यंत्र स्थानीय समय की सटीक जानकारी देता है। जिस तरह एक राज्य में सबसे ऊंचा ओहदा सम्राट का होता है उसी प्रकार जंतर मंतर में सबसे विशाल यंत्र सम्राट यंत्र है। अपनी भव्यता और विशालता के कारण ही इसे सम्राट यंत्र कहा गया। जंतर मंतर परिसर के बीच स्थित सम्राट यंत्र दक्षिण से उत्तर की ओर बढ़ती एक त्रिकोणीय प्राचीर है। यंत्र की भव्यता का अंदाजा इसी से हो जाता है कि धरातल से इसके शीर्ष की ऊंचाई 90 फीट है। सम्राट यंत्र में शीर्ष पर एक छतरी भी बनी हुई है। सामने से देखने पर यह एक सीधी खड़ी इमारत की तरह नजर आता है। यह यंत्र ग्रह नक्षत्रों की क्रांति, विषुवांश और समय ज्ञान के लिए स्थापित किया गया था। यंत्र का जीर्णोद्धार 1901 में राजज्योतिषी गोकुलचंद भावन ने कराया था।
2. उन्नतांश यंत्र-
जंतर मंतर के प्रवेश द्वार के ठीक बांये ओर एक गोलकार चबूतरे के दोनो ओर दो स्तंभों के बीच लटके धातु के विशाल गोले को उन्नतांश यंत्र के नाम से जाना जाता है। यह यंत्र आकाश में पिंड के उन्नतांश और कोणीय ऊंचाई मापने के काम आता था।
3. दक्षिणोत्तर भित्ति यंत्र-
उन्नतांश यंत्र के पूर्व में उत्तर से दक्षिण दिशाओं के छोर पर फैली एक दीवारनुमा इमारत दक्षिणोत्तर भित्तियंत्र है। सामने के भाग में दीवार के मध्य से दोनों ओर सीढियां बनी हैं, जो दीवार के ऊपरी भाग तक जाती हैं। जबकि दीवार का पृष्ठ भाग सपाट है। दीवार के सामने की ओर 180 डिग्री को दर्शाया गया है जबकि पीछे के भाग में में डिग्रियों के दो फलक आपस में क्रॉस की स्थिति में हैं। दक्षिणोदत भित्ति यंत्र का जीर्णोद्धार 1876 में किया गया था। यह यंत्र मध्याह्न समय में सूर्य के उन्नतांश तथा उन के द्वारा सूर्य क्रांति एवं दिनमान आदि को जानने के काम आता था।
4. दिग्मशा (दिशा) यंत्र-
यह एक सरल यंत्र है। जंतर मंतर परिसर में बीचों बीच एक बड़े वर्गाकार समतल धरातल पर लाल पत्थर से विशाल वृत बना है और केंद्र से चारों दिशाओं में एक समकोण क्रॉस बना है। यह दिशा यंत्र है जिससे सामान्य तौर पर दिशाओं का ज्ञान होता है।
5. जयप्रकाश यंत्र 'क' और 'ख'-
जय प्रकाश यंत्रों की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इन यंत्रों का आविष्कार स्वयं महाराजा जयसिंह ने किया। महाराजा जयसिंह स्वयं ज्योतिष तथा खगोल विद्या के ज्ञाता थे और इन विषयों में गहरी रूचि रखते थे। कटोरे के आकार के इन यंत्रों की बनावट बेजोड़ है। भीतरी फलकों पर ग्रहों की कक्षाएं रेखाओं के जाल के रूप में उत्कीर्ण हैं। इनमें किनारे को क्षितिज मानकर आधे खगोल का खगोलीय परिदर्शन और प्रत्येक पदार्थ के ज्ञान के लिए किया गया था। साथ ही इन यंत्रों से सूर्य की किसी राशि में स्थिति का ज्ञान होता है। ये दोनो यंत्र परस्पर पूरक हैं। जंतर मंतर परिसर में ये यंत्र सम्राट यंत्र और दिशा यंत्र के बीच स्थित हैं। इन यंत्रों का जीर्णोद्धार 1901 में पंडित गोकुलचंद भावन और चंद्रधर गुलेरी ने करवाया।
6. षष्ठांश यंत्र-
षष्ठांश यंत्र सम्राट यंत्र का ही एक हिस्सा है। यह वलयाकार यंत्र सम्राट यंत्र के आधार से पूर्व और पश्चिम दिशाओं में चन्द्रमा के आकार में स्थित है। यह यंत्र भी ग्रहों नक्षत्रों की स्थिति और अंश का ज्ञान करने के लिए प्रयुक्त होता था।
7. ध्रुवदर्शक पट्टिका-
जैसा कि नाम से प्रतीत होता है। ध्रुवदर्शक पट्टिका ध्रुव तारे की स्थिति और दिशा ज्ञान करने के लिए प्रयुक्त होने वाला सरल यंत्र है। उत्तर दक्षिण दिशा की ओर दीवारनुमा यह पट्टिका दक्षिण से उत्तर की ओर क्रमश: उठी हुई है। इसके दक्षिणी सिरे पर नेत्र लगाकर देखने पर उत्तरी सिरे पर घ्रुव तारे की स्थिति स्पष्ट होती है। उल्लेखनीय है कि ध्रुव तारे से उत्तर दिशा का ज्ञान करना अतिप्राचीन विज्ञान है।
8. नाड़ीवलय यंत्र (विषुव डायल Equinoctial Dial)-
नाड़ीवलय यंत्र प्रवेशद्वार के दायें भाग में स्थित है। यह यंत्र दो गोलाकार फलकों में बंटा हुआ है। उत्तर और दक्षिण दिशाओं की ओर झांकते इन फलकों में से दक्षिण दिशा वाला फलक नीचे की ओर झुका हुआ है जबकि उत्तर दिशा की ओर वाला फलक कुछ डिग्री आकाश की ओर उठा हुआ है। इनके केंद्र बिंदु से चारों ओर दर्शाई विभिन्न रेखाओं से सूर्य की स्थिति और स्थानीय समय का सटीक अनुमान लगाया जा सकता है।
9. राशि वलय यंत्र-
राशि वलय यंत्र 12 राशियों को इंगित करते हैं। प्रत्येक राशि और उनमें ग्रह नक्षत्रों की अवस्थिति को दर्शाते इन बारह यंत्रों की खास विशेषता इन सबकी बनावट है। देखने में ये सभी यंत्र एक जैसे हैं लेकिन आकाश में राशियों की स्थिति को इंगित करते इन यंत्रों की बनावट भिन्न भिन्न है। इन यंत्रों में मेष, वृष, मिथुन, कन्या, कर्क, धनु, वृश्चिक, सिंह, मकर, मीन, कुंभ और तुला राशियों के प्रतीक चिन्ह भी दर्शाए गए हैं।
10. लघु सम्राट यंत्र-
लघु सम्राट यंत्र घ्रुव दर्शक पट्टिका के पश्चिम में स्थित यंत्र है। इसे धूप घड़ी भी कहा जाता है। लाल पत्थर से निर्मित यह यंत्र सम्राट यंत्र का ही छोटा रूप है इसीलिये यह लघुसम्राट यंत्र के रूप में जाना जाता है। इस यंत्र से स्थानीय समय की सटीक गणना होती है।
11. रामयंत्र-
रामयंत्र जंतर मंतर की पश्चिमी दीवार के पास स्थित दो यंत्र हैं। इन यंत्रों के दो लघु रूप भी जंतर मंतर में इन्हीं यंत्रों के पास स्थित हैं। राम यंत्र में स्तंभों के वृत्त के बीच केंद्र तक डिग्रियों के फलक दर्शाए गए हैं। इन फलकों से भी महत्वपूर्ण खगोलीय गणनाएं की जाती रही थी।
12. चक्र यंत्र-
राशिवलय यंत्रों के उत्तर में चक्र यंत्र स्थित है। लोहे के दो विशाल चक्रों से बने इन यंत्रों से खगोलीय पिंडों के दिकपात और तत्काल के भौगोलिक निर्देशकों का मापन किया जाता था।
13. दिगंश यन्त्र-
दिगंश यंत्र निकास द्वार के करीब स्थित है। यह यंत्र वृताकार प्राचीर में छोटे वृत्तों के रूप में निर्मित है। इस यंत्र के द्वारा पिंडों के दिगंश का ज्ञान किया जाता था।
14. लघु राम यन्त्र (बेलनाकार यन्त्र)-
इसे वृहद राम यन्त्र को 1891 में पुनर्निर्मित करने के लिए एक मॉडल के रूप में बनाया गया था । इसके निर्माण का काल ज्ञात नहीं है किन्तु संभवतः इसे महाराजा सवाई जयसिंह द्वितीय के काल में बनाया गया था।
15. ध्रुवदर्शक यन्त्र (North Star Indicator)-
यह यन्त्र ध्रुव तारे की स्थिति पता लगाने में उपयोगी है।
16. क्रांतिवृत्त यन्त्र-
यह आकाशीय अक्षांश और देशांतर की माप के लिए इस्तेमाल किया जा सकता है। ऐसा कि कहा जाता है कि यह यंत्र 1743 से पहले महाराजा सवाई जय सिंह द्वितीय के काल में पंडित जगन्नाथ के निर्देशन में बनाया गया था और लापता अधिरचना के साथ, इसे कभी पूरा नहीं किया जा सका है
17. क्रांतिवृत्त यन्त्र-II
यह यन्त्र भी आकाशीय अक्षांश और देशांतर की माप के लिए इस्तेमाल किया जा सकता है। मूल क्रांतिवृत्त यंत्र, जिसे अधूरा छोड़ दिया गया था, की क्रियाविधि को स्पष्ट करने के लिए क्रांतिवृत्त द्वितीय का निर्माण गैरेट ने 1901-1902 में किया था।
18. क्षैतिज सूर्य-घड़ी नाड़ीवलय (पलाभा) Horizontal Sun Dial atop Nadivalaya (Palabha)-
यह विषुव के दिन पर समय निर्धारित करता है। इसका संभवतः 1771 निर्माण किया गया था।
19. कपाला यन्त्र (अर्धगोल डायल Hemispherical Dial)-
यह यंत्र 1743 से पहले महाराजा सवाई जय सिंह द्वितीय की देखरेख में निर्मित किया गया था। यह लग्न और राशि चक्रों की माप के लिए इस्तेमाल किया जाता था।