पुष्टिमार्गीय वल्लभ संप्रदाय के प्रमुख तीर्थ स्थल नाथद्वारा में दीपावली का दिन सर्वाधिक आनंद का दिन होता है। भक्त मानते हैं कि प्रभु श्रीनाथजी प्रातः जल्दी उठकर सुगन्धित पदार्थों से अभ्यंग कर, श्रृंगार धारण कर खिड़क (गौशाला) में पधारते हैं, गायों का श्रृंगार करते हैं तथा उनको खूब खेलाते हैं।
श्रीजी का दीपावली का सेवाक्रम -
दीपावली का महोत्सव होने के कारण श्रीनाथजी मंदिर के सभी मुख्य द्वारों की देहरी (देहलीज) को हल्दी से लीपी जाती हैं एवं आशापाल की वंदनमाल बाँधी जाती हैं। मंदिर में प्रातः 4.00 बजे शंखनाद होता है तथा प्रातः लगभग 4.45 बजे मंगला के दर्शन खोले जाते हैं। मंगला के दर्शन के उपरांत प्रभु को चन्दन, आंवला एवं फुलेल (सुगन्धित तेल) से अभ्यंग (स्नान) कराया जाता है। श्रीनाथजी को लाल सलीदार ज़री की सूथन, फूलक शाही श्वेत ज़री की चोली, चाकदार वागा एवं श्रीमस्तक पर ज़री की कूल्हे के ऊपर पाँच मोरपंख की चन्द्रिका की जोड़ धारण कराई जाती है। भगवान को आज वनमाला का (चरणारविन्द तक) तीन जोड़ी (माणक, हीरा-माणक व पन्ना) का भारी श्रृंगार किया जाता है जिसमें हीरे, मोती, माणक, पन्ना तथा जड़ाव सोने के सर्व आभूषण धारण कराए जाते हैं। मस्तक पर फूलकशाही श्वेत ज़री की जडाव की, कूल्हे के ऊपर सिरपैंच तथा पांच मोरपंख की चन्द्रिका की जोड़ एवं बाईं ओर शीशफूल सुशोभित कराएँ जाते हैं। श्रीकर्ण में मकराकृति कुंडल, बाईं ओर माणक की चोटी (शिखा), पीठिका के ऊपर प्राचीन हीरे का जड़ाव का चौखटा, श्रीकंठ में बघनखा, गुलाबी एवं श्वेत पुष्पों की दो सुन्दर थागवाली माला से श्रृंगार किया जाता है। श्रीहस्त में कमलछड़ी, हीरा के वेणुजी (बांसुरी) एवं दो वेत्रजी पधराये जाते हैं। आज श्रीनाथजी में जड़ाव की, श्याम आधारवस्त्र पर कूंडों में वृक्षावली एवं पुष्प लताओं के मोती के सुन्दर ज़रदोज़ी के काम वाली पिछवाई सज्जित की जाती है। जडाऊ गद्दी, तकिया एवं चरणचौकी पर लाल रंग की मखमल की बिछावट की जाती है। यहाँ पर अन्नकूट के महोत्सव की तैयारी बहुत पहले से ही करनी प्रारंभ कर दी जाती है। इसी क्रम में कार्तिक कृष्ण दशमी से कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा (अन्नकूट उत्सव) तक सात दिवस ग्वाल भोग के दर्शन के समय में श्रीनाथजी को अन्नकूट के लिए सिद्ध की जा रही विशेष सामग्रियों का प्रसाद धरा जाता हैं। इस श्रृंखला में दीपावली के दिन विशेष रूप से ग्वाल भोग में दीवला व दूधघर में बनाई गई केसरयुक्त बासोंदी की हांडी परोसी जाती है। ये सामग्रियां दीपावली के दूसरे दिन होने वाले अन्नकूट उत्सव पर भी चढ़ाई जाती है। राजभोग में दाख (किशमिश) का रायता और सखड़ी में केसरयुक्त पेठा, मीठी सेव आदि का प्रसाद निवेदित किया जाता है।
राजभोग आरती के पश्चात मंदिर के तिलकायत महाराज अन्नकूट महोत्सव के लिए चावल पधराने जाते हैं। उनके साथ चिरंजीवी श्री विशालबावा, श्रीजी के मुखियाजी व अन्य सेवक श्रीजी के ख़ासा भण्डार में जा कर टोकरियों में भर कर चावल को अन्नकूट की रसोई में जाकर पधराते हैं। तदुपरांत नगरवासी व अन्य वैष्णव भक्त भी अपने चावल अन्नकूट की रसोई में अर्पित करते हैं। सायं से अन्नकूट की चावल की सेवा प्रारंभ होती है। आज श्रीजी में राजभोग दर्शन पश्चात कोई दर्शन बाहर नहीं खोले जाते। भोग समय फीका के स्थान पर बीज-चालनी (घी में तले नमकयुक्त सूखे मेवे व बीज) अरोगाये जाते हैं। श्री नवनीतप्रियाजी में सायं के समय कानजगाई के व शयन समय रतनचौक में हटड़ी के दर्शन होते हैं।
कानजगाई -
कानजगाई संध्या के समय होती है। इस उत्सव में गौ-माता की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। कानजगाई के अवसर पर प्रभु को विशेष रूप से दूधघर में सिद्ध केशर मिश्रित दूध की मटकी (चपटिया) का प्रसाद अर्पित किया जाता है एवं शिरारहित पान की बीड़ा धरा जाता है। संध्या के समय गौशाला से मोरपंख, गले में घंटियों और पैरों में घुंघरूओं से सुशोभित व श्रृंगारित इतनी संख्या में गाएं लाई जाती है कि मंदिर का गोवर्धन पूजा का पूरा चौक भर जाए। श्रृंगारित गायों की पीठ पर मेहंदी कुंकुम के छापे व सुन्दर आकृतियाँ बनी होती है। ग्वाल-बाल भी सुन्दर वस्त्रों से सुसज्जजित होकर गायों को रिझाते एवं क्रीडा करवाते हैं। गाएं उनके पीछे दौड़ती हैं जिससे भक्त नगरवासी और वैष्णव भक्तजन आनन्द लेते हैं। गौधूली वेला में शयन समय कानजगाई होती है। नवनीतप्रियाजी के मंदिर से लेकर सूरजपोल की सभी सीढ़ियों तक विभिन्न रंगों की चलनियों से रंगोली की साजसज्जा की जाती है। कीर्तन की मधुर स्वरलहरियों के मध्य नवनीतप्रियाजी को सोने की चकडोल में गोवर्धन पूजा के चौक में सूरजपोल की सीढ़ियों पर एक चौकी पर बिराजमान किया जाता है। श्रीनाथजी व श्री नवनीतप्रियाजी के कीर्तनिया कीर्तन करते हैं व झालर, घंटा बजाये जाते हैं। पूज्य श्री तिलकायत महाराज गायों का पूजन कर, तिलक-अक्षत कर लड्डू का प्रसाद खिलाते हैं। गौशाला के बड़े ग्वाल को भी प्रसाद दिया जाता है। तत्पश्चात पूज्य श्री तिलकायत नंदवंश की मुख्य गाय को आमंत्रण देते हुए कान में कहते हैं – “कल प्रातः गोवर्धन पूजन के समय गोवर्धन को गूंधने को जल्दी पधारना”, गायों के कान में आमंत्रण देने की इस रीति को कानजगाई कहा जाता है। प्रभु स्वयं गायों को आमंत्रण देते हैं ऐसा भाव है।
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