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जयपुर के पास भरता है गधों का विचित्र मेला



जयपुर से करीब दस किलोमीटर दूर गोनेर रोड पर लूणियावास के निकट भावगढ़ बंध्या में स्थित कुम्हारों की कुलदेवी खनकानी माता (पूर्व नाम कल्याणी माता) के मंदिर परिसर के मैदान में गधों का विचित्र-सा सालाना मेला भरता है, जिसका मुख्य उद्देश्य घोडों गधों और खच्चरों की खरीद और बिक्री है। यूं तो मेले की शुरूआत गधों की खरीद बिक्री से होती है, लेकिन धीरे धीरे अन्य जानवर भी बिकने के लिए आने लगते हैं। मेले में गधों की रोमांचक दौड़ और सौन्दर्य प्रतियोगिता का भी आयोजन किया जाता है। गधों, खच्चरों और घोडों के स्वामी प्रतियोगिता जीतने के लिए उन्हें चना, गुड, चने की दाल खिलाते हैं वहीं कुछ मालिक उनकी मालिश करके तैयार करते हैं। इन्हें सजाया संवारा जाता है तथा उनके गले में घंटिया बांधी जाती है। पशुओं को बुरी नजर से बचाने के लिए काला धागा सहित अन्य कुछ टोटके भी किए जाते हैं। खलकाणी माता के प्रति कुम्हार, धोबी, खटीक आदि जातियों में बरसों पहले से आस्था रही है। 

भावगढ़ पर राजपूतों का शासन रहा था। भावगढ़ के एक पूर्व जागीरदार के अनुसार माधोसिंह द्वितीय ने ईश्वरसिंह राजावत को भावगढ़ की जागीर दी। वर्ष 1935 के जयपुर एलबम में भावगढ़ को राजावत का ठिकाना बताया गया है। कुछ इतिहासकारों ने भी राजावतों को भावगढ़ का जागीरदार माना है। कहा जाता है कि यह गर्दभ मेला प्राचीन काल से भरा जाता है। ऐसी मान्यता है कि कभी देवगणों ने यहां ब्रह्माणी  माता की स्थापना कर भीमा नामक एक राक्षस को केवल रात्रि के समय सरोवर बनाने का निर्देश दिया। राक्षस ने यहाँ की खोरी व रोपाड़ा की पहाड़ियों के पत्थरों से डेढ़ किलोमीटर की परिधि में सरोवर का ढांचा बना दिया। कहा जाता है कि रात को जाग होने पर देवता वहां से चले गए और जाते-जाते इस जगह पर चार दिन गर्दभ का वास होने का शाप दे गए, तब से यहां गर्दभ मेला भरता है।  भीमा राक्षस ने भी सरोवर में पानी नहीं ठहरने का श्राप दिया, तब से सरोवर में पानी नहीं ठहरता। यहां से जाने के बाद देवताओं ने पुष्कर तीर्थ बनाया। पुष्कर में पशु मेला व खलकाणी माता के गर्दभ मेले की तारीख में काफी समानता है।

इस मेले के संबंध में एक रोचक कथा प्रचलित है मीणाओं के गुरु जैन मुनि मगन सागर ने ढूंढाड़ में कछवाहा शासन कायम करने नरवर से आए दूल्हेराय को इस मेले से जोड़ा है। उन्होंने मत्स्य पुराण में उल्लेख किया कि खोह (खोह नागोरियान) का मीणा राजा आलन एक दिन शिकार खेलने गिलारिया के जंगल में गया। तब उसने वहां एक शिशु दूल्हेराय पर काले नाग को फन फैलाए देखा।  नाग के जाने पर शिशु की माता आई और खुद को नरवर की रानी व बेटे का नाम दूल्हेराय बताया। आलन ने महारानी को बहन बना महल में रखा। कर्नल टॉड ने कछवाहा वंश के नरवर से इस महारानी के जंगल में आने का उल्लेख किया है। उन्होंने कहा कि एक ब्राह्मण ने दूल्हेराय को चक्रवर्ती राजा बनने की भविष्यवाणी की, तब खोह के राजा आलन ने दूल्हेराय को खतरा मान मारने की साजिश रची। उसने दूल्हेराय को दिल्ली में तंवर शासक के पास टैक्स चुकाने गर्दभों पर रखे बोरों में रुपयों की बजाय पत्थर भेज दिए, ताकि बोरों में पत्थर निकलने पर दिल्ली का सम्राट उसे मार दे।  आलन की इस साजिश का पता चलने पर दूल्हेराय खलकाणी माता मंदिर में गया। वहां उसने आशीर्वाद लिया कि दिल्ली से जिंदा लौटने पर यहां गर्दभ मेला भरवाएगा। वह दिल्ली पहुंचा तब बोरों में भरे पत्थर सोने की मोहर में बदल गए। दिल्ली से जिंदा आने पर दूल्हेराय ने खलकाणी माता के दर्शन किए और वादे के मुताबिक गर्दभ मेला भरवाया। 

इस  मेले का उद्घाटन करने वालों का हमेशा टोटा ही रहता है। कोई भी नेता यह जोखिम नहीं लेना चाहता। एक विधायक द्वारा एक बार मेले का उद्घाटन करने के बाद चुनाव हारने की घटना ने सभी नेताओं में यह डर पैदा कर दिया है।

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