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How to do scientific farming of fennel - कैसे करें सौंफ की वैज्ञानिक खेती

औषधीय गुणों से भरपूर है सौंफ -

प्राचीन काल से ही मसाला उत्पादन में भारत का अद्वितीय स्थान रहा है तथा 'मसालों की भूमि' के नाम से विश्वविख्यात है। इनके उत्पादन में राजस्थान की अग्रणी भूमिका हैं। इस समय देश में 1395560 हैक्टर क्षेत्रफल से 1233478 टन प्रमुख बीजीय मसालों का उत्पादन हो रहा है। प्रमुख बीजीय मसालों में जीरा, धनियां, सौंफ व मेथी को माना गया हैं। इनमें से धनिया व मेथी हमारे देश में ज्यादातर सभी जगह उगाए जाते है। जीरा खासकर पश्चिमी राजस्थान तथा उत्तर पश्चिमी गुजरात में एवं सौंफ मुख्यतः गुजरात, राजस्थान, उत्तर प्रदेश, हरियाणा, बिहार तथा मध्य प्रदेश के कई इलाकों में उगाई जाती हैं। हमारे देश में वर्ष 2014-15 में सौंफ का कुल क्षेत्रफल 99723 हैक्टर तथा इसका उत्पादन लगभग 142995 टन है, प्रमुख बीजीय मसालों का उत्पादन व क्षेत्रफल इस प्रकार हैं।

सौंफ एक अत्यंत उपयोगी पादप है। सौंफ का वैज्ञानिक नाम  Foeniculum vulgare होता है। सौंफ के दाने को साबुत अथवा पीसकर विभिन्न खाद्य पदार्थों जैसे सूप, अचार, मीट, सॉस, चाकलेट इत्यादि में सुगन्धित तथा रूचिकर बनाने में प्रयोग किया जाता है। कुछ घरेलू मीठे पकवानों में भी इसका प्रयोग किया जाता है। सौंफ में पाचक तथा वायुनाशक दोनों गुण पाए जाते हैं। इसके दानों को भोजन के बाद चबाने का प्रचलन है। पान में डालकर भी इसे चबाया जाता है। विभिन्न गुणों जैसे पाचक, अग्निदीपक तथा जीवाणुनाशक होने के कारण हैजा, वायुगोला, हिचकी, डकार, कब्ज, पेचिश, दस्त आदि रोगों के इलाज में प्रयुक्त होने वाली आयुर्वेदिक औषधियों में प्रयुक्त होता है।

 सौंफ के औषधीय गुण-

सौंफ में वाष्पशील तेल की मात्रा 3-5 प्रतिशत होती है। सोंफ के वाष्पशील तेल संघटकों में मुख्यतः एनिथोल (Anethole), लाइमोनीन (Limonene), फेंकान (Fenchone), इस्ट्रगोल (Estragole) इत्यादि होते है। सौंफ में फिनोलिक तत्व भी अत्यधिक मात्रा में पाए जाते है एवं ये तत्व प्रति ऑक्सीकारक (Antioxydent) हैं। वर्तमान में फिनोलिक तत्वों के लाभदायक गुणों के कारण सौंफ को विशेष महत्व दिया जाता है। सौंफ के जलीय घोल में फिनोल तत्वों की अधिकता होती है। इसमें पाए जाने वाले क्वेर्सेटीन (quercetin) एवं आइसोक्वेर्सेटीन जोकि फ्लेवेनाइइड समूह में आते हैं, इनमें प्रतिरोधकता बढ़ाने के गुण पाए जाते है। सौफ में पोटेशियम, कैल्शियम, मैग्नीशियम, लौहे व फास्फोरस अधिक मात्रा में पाए जाते है। सौंफ के वाष्पशील एवं अवाष्पशील संघटकों की वजह से दर्द से राहत मिलती है। सौंफ में एनालजेसिक, एंटीइंफ्लेमेटरी एवं एंटीऑक्सीडेंट के गुण पाए जाते है। सौंफ के उपयोग से कोलेस्ट्रोल की मात्रा में कमी होती है। सौंफ के तेल में जीवाणु एवं विषाणुरोधी गुण भी पाए जाते हैं।

सौंफ के प्रति 100 ग्राम दानों में पाए जाने वाले पोषक तत्वों का विवरण

(अ) पोषक तत्व 

  1. एनर्जी (ऊर्जा) -  345 कि.कैलोरी
  2. कार्बोहाइड्रेट -  52.29 ग्राम
  3. प्रोटीन- 15.80 ग्राम
  4. कुल वसा- 14.87 ग्राम
  5. कच्चा रेशा- 39.80 ग्राम

(ब) सौंफ के प्रति 100 ग्राम दानों में पाए जाने वाले विटामिन्स का विवरण

  1. नियासिन- 6.050 मिली ग्राम (37% of daily value)
  2. पायरिडोक्सीन- 0.470 मिली ग्राम (36% of daily value)
  3. राइबोफ्लेविन - 0.353 मिली ग्राम (28% of daily value)
  4. थियामिन- 0.408 मिली ग्राम (34% of daily value)
  5. विटामिन ’ए’ - 0.135 आई.यू. (4.5% of daily value)
  6. विटामिन ’सी’ - 21 मिली ग्राम (35% of daily value)

(स) सौंफ के प्रति 100 ग्राम दानों में पाए जाने वाले  खनिज लवण का विवरण

  1. कैल्शियम - 1196 मिली ग्राम (120% of daily value)
  2. तांबा - 1.067 मिली ग्राम (118% of daily value)
  3. लोहा - 18.54 मिली ग्राम (232% of daily value)
  4. मैग्नीशियम - 385 मिली ग्राम (96% of daily value)
  5. मैंगंनीज - 6.533 मिली ग्राम (284% of daily value)
  6. फाॅस्फोरस - 487 मिली ग्राम (70% of daily value)
  7. जस्ता - 3.70 मिली ग्राम (33% of daily value)
  8. पोटेशियम - 1694 मिली ग्राम (33% of daily value)
  9. सोडियम - 88 मिली ग्राम (33% of daily value)  

सौंफ की अच्छी उपज के लिए आवश्यक जलवायु-

सौंफ की अच्छी उपज के लिए शुष्क एवं ठण्डी जलवायु उत्तम होती है। बीजों के अंकुरण के लिए उपयुक्त तापमान 20-29 डिग्री सेल्सियस है तथा फसल की अच्छी बढ़वार 15-20 डिग्री सेल्सियस पर होती है। 25 डिग्री सेल्सियस से अधिक तापमान फसल की बढ़वार को रोक देता है। फसल के पुष्पन अथवा पकने के समय आकाश में लम्बे समय तक बादल रहने की तथा हवा में अधिक नमी रहने से झुलसा बीमारी तथा माहू कीट के प्रकोप की संभावना बढ़ जाती है।

सौंफ की अच्छी उपज के लिए आवश्यक मृदा -

रेतीली भूमि को छोड़कर सभी तरह की पर्याप्त मात्रा में जैविक पदार्थ से युक्त मृदा में सौंफ सफलतापूर्वक उगाई जा सकती है। इसकी खेती के लिए उर्वरक और अच्छी जल-निकास वाली बलुई दोमट भूमि सर्वोत्तम होती है। सौंफ की अच्छी पैदावार प्राप्त करने के लिए हल्की मृदा की अपेक्षा भारी मृदा ज्यादा उपयुक्त होती है। इसकी खेती के लिए मृदा का पी.एच.मान 6.6 से 8.0 के बीच होना चाहिए।
सौंफ को काली कपासी मृदाओं में विद्युत चालकता 8.0-10.0 डी.एस./मीटर तक सफलतापूर्वक उगाया जा सकता है। 20 प्रतिशत तक सोडियम विनिमेय वाली क्षारीय मृदाओं में भी इसे सफलतापूर्वक उगाया जा सकता है। मृदा क्षारकता के प्रति स्थानीय बी.आर.एस., एन.डी.एफ.-9 तथा एन.डी.एफ.-7 की तुलना में एच.एफ. 107 किस्म सर्वाधिक सहिष्णु हैं। अतः इस किस्म को 30.0 प्रतिशत सोडियम विनिमेय क्षमतायुक्त मृदाओं में उगाया जा सकता है। मृदा क्षारता से वानस्पतिक वृद्धि की तुलना में बीज उत्पादन पर अधिक विपरीत प्रभाव पड़ता हैं। सौंफ की कृषि खेत की मृदा की लवणता तथा क्षारता को कम करने में सक्षम होने के साथ-साथ कैल्शियम तथा फाॅस्फोरस की उपलब्धता बढ़ाती है, जिससे मृदा उर्वरता बढ़ती है। बीजांकुरण क्षमता के आधार पर जी.एफ.-1 तथा आर.एफ. 121, लवणता के प्रति सर्वाधिक सहिष्णु हैं। सौंफ बीजांकुरण की तुलना में वानस्पतिक वृद्धि के समय लवणता के प्रति अधिक सहिष्णु होने के कारण इसकों पौध रोपण द्वारा अधिक लवणता युक्त मृदाओं में उगाया जा सकता हैं।

सौंफ की खेती के लिए भूमि की तैयारी-

खेत की तैयारी के लिए सर्वप्रथम एक या दो जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से करनी चाहिए। उसके बाद 2-3 जुताई देशी हल या हैरो से करके पाटा चलाकर मिट्टी को भुरभुरी करके खेत को अच्छी तरह से तैयार कर लेना चाहिए। खेत खरपतवार, कंकड़-पत्थर आदि अवांछनीय चीजों से मुक्त होना चाहिए। खेत को तैयार करते समय समतल करके सुविधानुसार क्यारियां बना लेनी चाहिए।

सौंफ की उन्नत किस्में -

आर.एफ-105 -

इस किस्म का विकास राजस्थान कृषि विश्वविद्यालय के अधीन श्री कर्ण नरेन्द्र कृषि महाविद्यालय, जोबनेर (जयपुर) द्वारा वर्ष 1995 में किया गया। इसके पौधे बड़े, सीधे और मजबूत तने वाले होते हैं। इस किस्म में छत्रक बड़े और मोटे दाने वाले हैं। यह किस्म 150-160 दिन में पकती है। इस किस्म की औसत उपज 15.50 क्विंटल प्रति हैक्टेयर है।

आर.एफ-125-

इस किस्म का विकास राजस्थान कृषि विश्वविद्यालय के अधीन श्री कर्ण नरेन्द्र कृषि महाविद्यालय, जोबनेर (जयपुर) द्वारा वर्ष 1997 में किया गया। इसके पौधे छोटे होते हैं तथा यह किस्म अपेक्षाकृत जल्दी पकने वाली होती है। इस किस्म से 17.30 क्विंटल प्रति हैक्टेयर उपज ली जा सकती है।

पी.एफ-35 -

इस किस्म का विकास मसाला अनुसंधान केन्द्र, जगुदन (गुजरात) द्वारा 1973 में किया गया। इसके पौधे फैले हुए लम्बे होते हैं तथा पुष्पछत्रक बड़ा होता है। इसके बीज हल्के हरे धारीयुक्त मध्यम आकार के होते हैं। यह पकने में 216 दिन लेती है। इसकी उपज 16.5 क्विंटल प्रति हैक्टेयर है। यह किस्म झुलसा एवं गूंदिया रोग के प्रति मध्यम सहनशील है। इसमें वाष्पशील तेल की मात्रा 1.90 प्रतिशत होती है।

गुजरात सौंफ-1

यह किस्म मसाला अनुसंधान केन्द्र, जगुदन (गुजरात) द्वारा वर्ष 1985 में विकसित की गई। इसका पौधा लम्बा फैला हुआ झाड़ीनुमा होता है। यह किस्म शुष्क परिस्थिति हेतु उपयुक्त है। इसके पुष्पछत्रक कड़े तथा दानें गहरे हरे रंग के बड़े व लम्बे होते हैं जो झड़ते हैं। यह किस्म पकने में 200-230 दिन लेती है तथा 16.95 क्विंटल प्रति हैक्टेयर पैदावार देती है। इसमें वाष्पशील तेल की मात्रा 1.60 प्रतिशत होती है।

गुजरात सौंफ-2 -

यह किस्म सिंचित तथा असिंचित दोनों परिस्थितियों के लिए उपयुक्त है। इसे मसाला अनुसंधान केन्द्र जगुदन, गुजरात द्वारा विकसित किया गया हैं। इसकी औसत उपज 19.4 क्विंटल प्रति हैक्टर हैं। इसमें वाष्प्शील तेल की मात्रा 2.4 प्रतिशत होती है।

गुजरात सौंफ-11

इसका विकास मसाला अनुसंधान केन्द्र, जगुदन (गुजरात) द्वारा किया गया है। यह सिंचित खेती के लिए उपयुक्त है। इसमें वाष्पशील तेल की मात्रा 1.8 प्रतिशत होती है। इसकी औसत पैदावार 24.8 क्विंटल प्रति हैक्टेयर होती है।

को-11

इस किस्म का विकास तमिलनाडु कृषि विश्वविद्यालय, कोयम्बटूर द्वारा 1985 में किया गया। पौधा मध्यम लम्बाई तथा घनी शाखाओं वाला होता है। यह मिश्रित खेती के लिए उपयुक्त है। लवणीय मिट्टी में भी यह किस्म तुलनात्मक रूप से अच्छी पैदावार देती है। यह 210 से 220 दिन में पकती है तथा 5.67 क्विंटल प्रति हैक्टेयर पैदावार देती है।

हिसार स्वरूप-

यह किस्म हरियाण कृषि विश्वविद्यालय द्वारा विकसित की गई है। इसके दाने लम्बे एवं मोटे होते हैं। इसकी औसत उपज 17 क्विंटल प्रति हैक्टर हैं। इसमें वाष्पशील तेल की मात्रा 1.6 प्रतिशत होती है।

एन.आर.सी.एस.एस.ए.एफ-1

इस किस्म का विकास राष्ट्रीय बीजीय मसाला अनुसंधान केन्द्र, अजमेर द्वारा 2005 में किया गया। इसका पौधा बड़ा तथा शाखाओं युक्त होता है जिस पर बड़े आकार के पुष्पछत्रक होते हैं। इसके दानें बोल्ड होते हैं। यह किस्म 180-190 दिन में पक कर तैयार हो जाती है। इस किस्म की सीधी बुवाई द्वारा 19 क्विंटल प्रति हैक्टेयर तथा पौध रोपण द्वारा 25 क्विंटल प्रति हैक्टेयर उपज होती है।

सौंफ की बुवाई का समय-

सौंफ एक लम्बी अवधि में पकने वाली फसल है,, अतः रबी की शुरूआत में बुवाई करने से अधिक उपजप्राप्त होती है। सौंफ का पौधा रोपण सीधा खेत में या पौधशाला में पौध तैयार करके रोपाई करके किया जा सकता जा है। सौंफ की बुवाई के लिए अक्टूबर का प्रथम सप्ताह सर्वोत्तम होता है। नर्सरी विधि से बोने पर नर्सरी में बुवाई जुलाई-अगस्त माह में की जाती है तथा 45-60 दिन के बाद पौध की रोपाई कर दी जाती है।

सौंफ की बीज दर-

सीधे बीज द्वारा सौंफ की बुवाई करने पर 8-10 किलोग्राम बीज प्रति हैक्टर की आवश्यकता होती है परन्तु नर्सरी में सौंफ की एक हैक्टर खेत के लिए पौध तैयार करने हेतु 2.5 से 3.0 किलोग्राम बीज की आवश्यकता पड़ती है।

सौंफ का बीजोपचार-

बीज जनित रोगों से बचाव के लिए गौमूत्र से बुवाई से पूर्व उपचारित कर लेना चाहिए। इसके अलावा बीज को बाविस्टीन दवा 2 ग्राम प्रति कि.ग्रा. बीज की दर से उपचारित करके बुवाई करना चाहिए।

सौंफ की बुवाई की विधि-

सौंफ की बुवाई निम्न प्रकार से की जाती है।

(अ) बीज से सीधी बुवाई-

बीज के द्वारा बुवाई क्यारियों में बीजों को छिटककर या 45 सेंटीमीटर दूर कतारों में बोते हैं। छिटकवाँ विधि में बीजों को छिटकने के बाद लोहे की दंताली या रेक से 2.0 सेंटीमीटर गहराई तक मिट्टी से ढक देते हैं। कतार विधि में 45 सेंटीमीटर की दूरी पर हुक की सहायता से लाइनें खींच देते हैं तथा 2 सेंटीमीटर गहराई पर उपचारित किए हुए बीजों को बुवाई करके तुरन्त बाद क्यारियों में पानी दे दिया जाता है। बीजों का अंकुरण 7-11 दिन के बाद शुरू हो जाता है। अंकुरण के बाद पहली निराई-गुडाई के समय अतिरिक्त पौधों को कतार से निकालकर पौधे से पौधे के बीच की दूरी 20 सेंमी. कर देना चाहिए। यदि सौंफ के बीजों को भिगोकर बोया जाए तो उनका अंकुरण आसानी से शीघ्र होता है।

(ब) रोपण विधि-

इस विधि से सौंफ की बुवाई करने के लिए सर्वप्रथम नर्सरी में पौध तैयार की जाती है। जुलाई के माह में एक हैक्टेयर क्षेत्र के लिए 100 वर्गमीटर भूमि में 3 गुणा 2 मीटर आकार की क्यारियां में 15-20 टोकरी गोबर की खाद या कम्पोस्ट मिला देना चाहिए। 20 सेंटीमीटर की दूरी पर कतारें बनाकर बीजों की बुवाई कर देनी चाहिए।
समय-समय पर आवश्यकतानुसार पानी देते रहना चाहिए। 40-45 दिन में पौध तैयार हो जाती है जिसे 45-60 सें.मी. की दूरी पर कतारों में रोपाई कर दें। पौध से पौध की दूरी 20 सेंटीमीटर रखनी चाहिए।

खाद एवं उर्वरक-

अगर पिछली फसल में गोबर की खाद या कम्पोस्ट डाली गई है तो सौंफ की फसल में अतिरिक्त खाद की आवश्यकता नहीं होती है, अन्यथा खेत की जुताई के पहले 10-15 टन प्रति हैक्टर की दर से अच्छी सड़ी हुई गोबर की खाद या कम्पोस्ट खेत में समान रूप से बिखेर कर मिला देना चाहिए। इसके अलावा 90 किलोग्राम नत्रजन एवं 40 कि.ग्रा. फाॅस्फोरस प्रति हैक्टर की दर से देना चाहिए। 30 कि.ग्रा. नत्रजन एवं फास्फोरस की पूरी मात्रा खेत की अन्तिम जुताई के साथ ऊर कर देवें। शेष 60 कि.ग्रा. नत्रजन को दो भागों में बांटकर 30 कि.ग्रा. बुआई के 45 दिन बाद एवं शेष 30 कि.ग्रा. फूल आने के समय फसल में सिंचाई के साथ देना चाहिए।

सिंचाई व्यवस्था-

सौंफ की फसल के लिए अधिक सिंचाईयों की आवश्यकता होती है। अगर प्रारम्भ में मृदा में नमी की मात्रा कम हो तो बुवाई या रोपाई के तुरन्त बाद एक हल्की सिंचाई करनी चाहिए। इस समय क्यारियों में पानी का बहाव तेज नहीं होना चाहिए, अन्यथा बीज बहकर क्यारियों के किनारों पर इकट्ठे हो सकते हैं। पहली सिंचाई के 8-10 दिन बाद दूसरी सिंचाई की जा सकती है जिसमें सौंफ का अंकुरण हो सके। उपरोक्त दो सिंचाईयों के बाद मृदा की जलधारण क्षमता, फसल की अवस्था व मौसम के अनुसार 10 से 20 दिन के अन्तराल पर सिंचाई करनी चाहिए। सौंफ को औसतन 7-9 सिंचाईयों की जरूरत पड़ती है। सौंफ की फसल में सिंचाई की प्रमुख क्रांतिक अवस्थाएं अंकुरण के समय 8-10 दिन, वानस्पतिक वृद्धि अवस्था 70 दिन, मुख्य छत्रक निकलने के समय 120 दिन, द्वितीय व तृतीय पुष्पगुच्छ अवस्था 150 दिन, बीज वृद्धि अवस्था 180 दिन के अनुसार सिंचाई देनी चाहिए।

अत्यंत उपयोगी है सौंफ की फसल में बूंद-बूंद पद्धति-

यह सिंचाई की वह विधि है जिसमें पौधों की जड़ों के पास जल को बूंदों के रूप् में देकर जड़ीय क्षेत्र को हमेशा आर्द्र रखा जाता हैं। इस विधि में जल के साथ-साथ रासायनिक उर्वरक व रक्षक रसायनों को सीधे जड़ क्षेत्र में पहुँचाया जा सकता है जिससे जल के साथ-साथ उर्वरकों की उपयोग दक्षता में आश्चर्यजनक वृद्धि होती है तथा उर्वरकों व रसायनों के सुनियोजित उपयोग से मृदा प्रदूषण में भी काफी गिरावट आती है। सीमित क्षेत्र में जल के अनुप्रयोग से खरपतवार भी अपेक्षाकृत कम उगते हैं, जिससे श्रम की काफी हद तक कमी होती है। इस विधि में ड्रिप लेटरल फसल की दो पंक्तियों के बीच में लगायी जाती है, जिससे फसल की दोनों पंक्तियां नली से पर्याप्त नमी पाकर अपना जीवन चक्र सफलतापूर्वक पूरा करती हैं व किसी भी सामान्य सिंचाई विधि से ज्यादा उपज देती हैं। इस तरह से सौंफ को आसानी से ड्रिप विधि द्वारा सिंचित किया जा सकता है। राष्ट्रीय बीजीय मसाला अनुसंधान केन्द्र, तबीजी, अजमेर में किए गये एक प्रयोग में पाया गया कि सौंफ की अच्छी बढ़वार तथा उपज प्राप्त करने के लिए बूंद-बूंद सिंचाई पद्धति से 4-5 दिन में एक बार 40-45 मिनट तक (1.0 कि.ग्रा. वर्ग इंच दाब) पानी देना पर्याप्त होता हैं।

निराई-गुड़ाई एवं खरपतवार नियन्त्रण-

सौंफ की बढ़वार प्रारम्भ में धीमी गति से होती है इसलिए इसको खरपतवारों से, पोषक तत्वों, पानी, जगह और प्रकाश के लिए अधिक प्रतियोगिता करनी पड़ती है, अतः फसल को खरपतवारों द्वारा होने वाली हानि से बचाने के लिए कम से कम दो या तीन बार निराई-गुड़ाई के 25-30 दिन बाद तथा दूसरी 60 दिन बाद करनी चाहिए। पहली निराई-गुड़ाई के समय आवश्यकता से अधिक पौधों को निकाल दें तथा कतारों में की गई बुवाई वाली फसल में पौधे से पौधे की दूरी 20 सें.मी. कर देना चाहिए। सौंफ में रासायनिक खरपतवार नियंत्रण के लिए पेन्डीमेथालिन 1.0 कि.ग्रा. सक्रिय तत्व बुआई के पश्चात तथा अंकुरण से पूर्व 500-600 लीटर पानी में घोल बनाकर मिट्टी पर छिड़काव करना चाहिए। राष्ट्रीय बीजीय मसाला अनुसंधान केन्द्र, तबीजी, अजमेर में किए गये एक अध्ययन के अनुसार सौंफ की फसले में बुआई के 1-2 दिन बाद बीज उगाने से पहले 75 ग्राम/हैक्टर के हिसाब से ऑक्सीडाइजिल (राफ्ट) का प्रयोग खरपतवार नियंत्रण में लाभदायक रहता हैं।

फसल के रोग व कीट तथा उनसे बचाव-

खेत की तैयारी करते समय पूरी कम्पोस्ट खाद, केंचुआ खाद, नीम की खली प्रति एकड़ 2 से 3 टन डालें। गर्मियों में खेत की जुताई अवश्य करें। इससे फसल में भूमि से आने वाली बीमारियों का प्रकोप नहीं होगा। यदि आपका खेत बीमार है तो फसल भी बीमार होगी। यदि आपका खेत स्वस्थ है तो फसल भी स्वस्थ होगी अतः प्रयास ऐसा करना चाहिए कि हमारा खेत सदैव स्वस्थ रहे। सौंफ में अधिकतर छाछिया रोग, झुलसा व गूंडिया रोग लगने की संभावनाएं रहती है। इनसे मुक्ति पाने के लिए गौमूत्र, नीम, आक आदि के मिश्रण का छिड़काव नियमित करते रहना चाहिए। पुष्पकाल के समय माहू का भी प्रकोप हो सकता है। दीमक का प्रकोप भी होता है। जैविक कीटनाशकों के नियमित प्रयोग व 'ऋषि कृषि' की विधियों को अपनाकर यह प्रयास सर्वोत्तम व विवेकपूर्ण है।

कॉलर रॉट-

यह रोग उन क्षेत्रों में अधिक दिखाई देता है, जहां पानी का ठहराव पौधे के पास अधिक होता है। पौधों का काॅलर हिस्सा (जड़ के ऊपर) में सड़न/गलन शुरू हो जाती है तथा पीले होकर बाद में मर जाते हैं। सौंफ की फसल की कॉलर रॉट बीमारी को प्रभावी उपायोंसे नियंत्रित किया जा सकता है। किसी भी तांब्रयुक्त फफूंदनाशी के प्रयोग से समाधान किया जा सकता है, जैसे 1.0 प्रतिशत बोर्डों मिश्रण (3:3:50) के छिड़काव से रोग को नियंत्रित किया जा सकता है। खेत को पानी के ठहराव से बचाना चाहिए।

रेमुलेरिया झुलसा (रेमुलेरिया ब्लाइट)-

यह बीमारी रेमुलेरिया फोइनीकुली नामक कवक के कारण होता है। पहले छोटे-छोटे पीले धब्बे पत्तियों पर तथा बाद में पूरे पौधे पर दिखाई देते हैं। ये धब्बे बढ़कर भूरे रंग में बदल जाते हैं। गंभीर अवस्था में पूरा पौधा सूख कर मर जाता है। रेमुलेरिया ब्लाइट को प्रभावी ढंग नियंत्रण के लिए प्रारंभिक अवस्था में डायथेन एम-45 या डायथेन जेड-78 के 0.2 प्रतिशत घोल का छिड़काव करना चाहिए। 1.0 मिली. साबुन का घोल प्रति लीटर पानी में मिलाकर छिड़काव करने से फफूंदनाशक की दक्षता बढ़ जाती है। 2-3 छिड़काव 10 से 15 दिनों के अतंराल में दोहराना चाहिए।

छाछ्या (पाउडरी मिल्ड्यू)-

यह रोग ईरीसाईफी पोलीगोनी नामक फफूंद द्वारा होता है। रोग का प्रकोप फरवरी से मार्च के महीने में अधिक रहता है। इस रोग के लगने पर शुरू में पत्तियों एवं टहनियों पर सफेद चूर्ण दिखाई देता है जो बाद में सम्पूर्ण पौधे पर फैल जाता है। छाछ्या के नियंत्रण के लिए 20 से 25 किलोग्राम गंधक के चूर्ण का भुरकाव प्रति हैक्टर दर से करना चाहिए या कैराथियान एल.सी 1 मिलीलिटर प्रति लीटर पानी की दर से छिड़काव करना चाहिए। आवश्यकतानुसार 15 दिन के अन्तराल पर छिड़काव दोहरावें।

मोयला (माहू)-

मोयला (माहू) सौंफ की फसल का एक प्रमुख कीट है तथा गंभीर क्षति के कारण फसल पैदावार व बीज गुणवत्ता में कमी करता है। इस कीट के भारी प्रकोप से फसल में 50 प्रतिशत तक उपज में नुकसान देखा गया है। मोयला का विकास फसल की वानस्पतिक अवस्था में शुरू होकर बीज परिपक्वता तक जारी रहता है। मोयला कीट की अधिकतम संख्या पुष्पछत्र पर विकसित होती है। निम्फ और वयस्क कोमल पत्तियों से रस चूसते हैं जिससे वे कमजोर होकर सूख जाते हैं। नतीजन पौधों की वृद्धि अवरूद्ध होने से दानों की गुणवत्ता व मात्रा दोनों ही प्रभावित होती है। सामान्यतया बीज का निर्माण नहीं होता है, यदि होता है तो सिकुड़ा या निम्न गुणवत्ता का होता है। सौंफ की फसल में मोयला के प्रकोप को प्रभावी ढंग से निम्न माध्यम से नियंत्रित किया जा सकता हैः
  • उर्वरक और सिंचाई की सिफारिश की गई मात्रा ही देनी चाहिए क्योंकि अत्यधिक नाइट्रोजन व सिंचाई की मात्रा पौधों को रसीला बनाती है जो मोयला की उच्च संख्या के विकास को बढ़ाता है।
  • प्रारंभिक अवस्था में नियंत्रण हेतु एनएसकेई (नीम बीज करनेल निचोड़) के 5 प्रतिशत या नीम तेल 2 प्रतिशत का छिड़काव करें।
  • जब मोयला की अधिक संख्या हो जाए तो डायमिथोएट 0.03 प्रतिशत या मेासिस्टोक्स 0.03 प्रतिशत या इमिडाक्लोप्रिड 0.005 प्रतिशत या थाइमेथाक्साम 0.0025 प्रतिशत में से किसी एक का 15 दिन के अंतराल में छिड़काव करना चाहिए।
  • बीज ततैया-

यह सौंफ के मुख्य कीटों में से एक हैं। वयस्क मादा ततैया विकासशील बीज के अंदर अंडे देती है तथा लार्वा बीज को अंदर से खाता रहता है। वयस्क ततैया बीज के अंदर से बाहर छेद करके एक महीने में बाहर निकालते हैं। अंडे बीज परिपक्वता के स्तर पर दिए जाते हैं एवं वयस्क कटाई के बाद भंडारण के समय बाहर आते हैं। प्रभावित बीज खोखले व कुंठित रंग के हो जाते हैं तथा उनकी अंकुरण क्षमता समाप्त हो जाती है। सौंफ की फसल में बीज ततैया के प्रकोप को प्रभावी ढंग से नियंत्रण हेतु एनएसकेई (नीम बीज करनेल निचोड़) के 5 प्रतिशत या नीम तेल 2 प्रतिशत या इमिडाक्लोरप्रिड 0.005 प्रतिशत या थाइमेथोक्साम 0.0025 प्रतिशत या डायमिथोएट 0.03 प्रतिशत का 10-15 दिन के अंतराल में छिड़काव करना चाहिए।

कर्तन कीट-

कर्तन कीट कुछ प्रभवित क्षेत्रों में अधिक पाया जाता है। लार्वा मिट्टी के अंदर पौधों की सतह के पास पाया जाता है। वे दिन के दौरान मिट्टी नीचे छिपे रहते हैं और रात में मिट्टी की सतह से बहार आ जाते हैं। रात में लार्वा भूख से पीड़ित होकर कोमल पत्तियाँ व तने और शाखाओं को खा जाता है। इस कीट के नियंत्रण हेतु नियमित रूप से खेत का निरीक्षण करना चाहिए तथा इसके नियंत्रण हेतु फोरेट 10 जी 10 कि.ग्रा. प्रति हैक्टर तथा मिथाइल पेराथियान धूल 25 कि.ग्रा. प्रति हैक्टर की दर से प्रयोग करना चाहिए।

सौंफ का पाले से बचाव-

सौंफ पाले से प्रभावित आसानी से हो जाती हे। पाले की अवस्था में फसल को भारी नुकसान हो सकता है। पाले से बचाव के लिए पाला पड़ने की संभावना होने पर सिंचाई करनी चाहिए। मध्य रात्रि के बाद खेत में धुंआ करके फसल को पाले से बचाया जा सकता है। फसल पर पुष्प प्रारम्भ होने के बाद गंधक के अम्ल का 0.1 प्रतिशत घोल छिड़कने से पाले से काफी बचाव होता है। अम्ल के छिड़काव को 10-15 दिन बाद आवश्यकतानुसार दोहराया जा सकता है।

फसल की कटाई-

फसल की कटाई के आवश्यक उत्पाद के हिसाब से की जाती है। उत्तम किस्म चबाने के काम आने वाली लखनवी सौंफ पैदा करने के छत्रकों को परागण के 30 से 40 दिन बाद, जब दानों का आकार पूर्ण विकसित दानों की तुलना में आधा होता है, काटकर साफ जगह पर छाया में फैलाकर सुखाना चाहिए। उत्तम गुणवत्ता वाली सौंफ पैदा करने के लिए दानों के पूर्ण विकसित होते ही काट लेना चाहिए। कटे छत्रकों को छाया में सुखाने के बाद मंडाई और औसाई करके बीजों को अलग कर लेना चाहिए।

उपज-

कृषि की उन्नत विधियाँ अपनाकर औसतन 15 से 20 क्विंटल प्रति हैक्टर सौंफ की उपज प्राप्त होती है जबकि लखनवी सौंफ की उपज 5 से 7.5 क्विंटल प्रति हैक्टर प्राप्त होती है।

आर्थिक लाभ-

आर्थिक दृष्टि से देखा जाय तो सौंफ की फसल से किसान भाईयों को प्रति इकाई अन्य फसलों की तुलना में अधिक लाभ पंहुचता हैं। सौंफ कम पानी की फसल है तथा जिसे शुष्क-अर्द्ध शुष्क क्षेत्रों में बाकी फसलों की तुलना में अधिक लाभ कमाया जा सकता है। सौंफ एक बीजीय मसाला वाली फसल है जिससे प्रति हैक्टर खर्चा काटकर लगभग 41595 रूपये का शुद्ध लाभ किसान भाई कमा सकते हैं।

स्रोत- KVK,काजरी पाली, राजस्थान

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