अपनी लोक संस्कृति एवं परम्पराओं के लिए सुविख्यात राजस्थान के दक्षिण में स्थित जनजाति बहुल जिला डूंगरपुर अब जनजाति महाकुंभ कहे जाने वाले बेणेश्वर मेले से भी विश्व पर्यटन मानचित्र पर पहचान बनाने लगा है। साबला के निकट डूंगरपुर एवं बांसवाड़ा जिले की सीमा रेखा पर अवस्थित वागड प्रयाग के नाम से सुविख्यात आस्था, तप एवं श्रद्धा के प्रतीक बेणेश्वर धाम पर प्रतिवर्ष बांसती बयार के बीच आध्यात्मिक एवं लोक संस्कृति का अनूठा संगम देखने को मिलता है। सोम-माही-जाखम के मुहाने पर अवस्थित ‘बेणेका टापू’ लोक संत मावजी महाराज की तपोस्थली है। श्रद्धा व संस्कृति के इस संगम मेले में राजस्थान के साथ ही पूरे देशभर व पड़ौसी राज्यों गुजरात, मध्यप्रदेश व महाराष्ट्र से भी लाखों श्रद्धालु पहुंचते है। वैसे तो यह मेला ध्वजा चढ़ने के साथ ही प्रारंभ हो जाता है परंतु ग्यारस से माघ पूर्णिमा तक लगने वाले मुख्य मेले में पहुंचने वाले श्रद्धालुओं की संख्या बहुत अधिक होती है। मेले में तीन दिन तक जिला प्रशासन, जनजाति क्षेत्रीय विकास विभाग एवं पर्यटन विभाग के द्वारा संयुक्त तत्वाधान में विभिन्न सांस्कृतिक एवं खेलकूद कार्यक्रमों का आयोजन किया जाता है। इस वर्ष भी 17 से 19 फरवरी तक संस्कृति के विविध आयामों का दिग्दर्शन कराने वाला वागड़ का प्रसिद्ध जनजाति महाकुंभ बेणेश्वर मेला बहुरंगी जनजाति संस्कृतियों के संगम स्थल का साक्षी बना।
बहुरंगी जनजाति संस्कृति की दिखती है झलक-
अपनी आदिम संस्कृति की विशिष्टताओं के लिए सुविख्यात वागड़ प्रयाग के इस विश्व विख्यात जनजाति महाकुंभ मेले में पारम्पारिक परिधानों में सजे और अलहड़ मस्ती में झूमते-गाते जनजाति वांशिदे लोक तरानों से फ़िजा को लोक सांस्कृतिक उल्लास के रंगो से रंग देते हैं। कई वर्ग किलोमीटर फैले संगम तटों पर विभिन्न क्षेत्रों से उमडने वाले जनसैलाब की निरन्तरता में बहुरंगी जनजाति संस्कृति की सहज झलक दिखाई देती है।
अल सुबह से ही शुरू होता है अस्थि-विसर्जन का दौर-
लोकानुरंजन के साथ ही परम्पराओं एवं धार्मिक रीति रिवाजों के लिए माघ पूर्णिमा के पवित्र अवसर पर सर्द अल सुबह के हल्के कोहरे और धुंध के बीच हजारों-हजार मेलार्थियों द्वारा अपने दिवंगत परिजनों के मोक्ष कामनार्थ आबूदर्रा स्थित संगम तीर्थ पर विधि-विधान के साथ त्रिपिण्डीय श्राद्ध आदि उत्तर क्रियाएँ पारंपरिक एवं धार्मिक अनुष्ठानों के साथ करते हुए जलांजलि दी जाती है।
भोर से शुरू होने वाले अस्थि विसर्जन का यह क्रम दोपहर बाद तक चरमोत्कर्ष पर रहता है और कई हजार श्रद्धालु अपने पूर्वजों की मोक्ष कामना सेे उत्तरक्रियाऍं पूरी कर उऋण होने का एहसास करते हैं। विसर्जन के लिए संगम तटों व जलीय क्षेत्रों में जनगंगा निरन्तर उमडती रहती है। मेलार्थियों द्वारा नदी के घाटों, संगम तटों तथा शिलाखण्डीय टापूूओं पर कण्डे जलाकर देसी भोजन बाटी-चूरमा का भोग लगाकर परिजनों के साथ सामूहिक भोज का आंनद लेते है। संगम तटों पर भोर में जहां कोहरा बादलों की तरह छाया रहता है वहीं लकड़ियों एवं सरकण्डों के जलने से धुुएँ के बादल भी दिनभर उठते रहते हैं।
आस्था के साथ होता है आनंद-
बेणेश्वर धाम के मुख्य मन्दिर राधा-कृष्ण देवालय पर संत मावजी महाराज की जयन्ती माघशुक्ल ग्यारस को महन्त अच्युतानंद द्वारा सप्तरंगी ध्वज चढाने से शुरू होने वाला यह मेला दिन प्रतिदिन उभार पर रहता है। दूर-दूर तक जहां-जहां दृष्टि जाये वहीं अपार जनगंगा प्रवाहमान रहती है। दूर-दूर से आए भक्त, साद सम्प्रदाय के भगत, साधु-संत, महंत के साथ ही पर्यटक मन्दिर परिसरों तथा संगम तटों पर यत्र-तत्र डेरा डाले धार्मिक एवं आध्यात्मिक आनन्द में गोते लगाते रहते है।
मेलार्थियों व श्रद्धालु परिजनों के साथ सामूहिक स्नान एवं भोज के बाद बेणेश्वर शिवालय, राधा-कृष्ण मन्दिर, वाल्मीकि मन्दिर, ब्रह्मा मन्दिर, हनुमान मंदिर आदि देवालयों में जाकर देव-दर्शन, पूजा-अर्चना आदि धार्मिक क्रियाकलापों को सम्पन्न करते हैं। मेला बाजार में वागड़ अंचल के लघु उद्योगों एवं कुटीर उद्योगों की जीवन्त झांकी दिखाई देती है। मेला स्थल पर स्थानीय पारम्पारिक एवं कलात्मक वस्तुओं के साथ ही अन्य सामान की लगी दुकानों पर जमकर खरीददारी कर मेले का लुत्फ उठाया जा सकता है। साथ ही मेलार्थी रंगझूलों में बैठकर हवा में तैरने का आनन्द भी लेते हैं।
पालकी यात्रा व महंत के शाही स्नान में उमडता है श्रद्धा का ज्वार-
मेले का मुख्य आकर्षण, निष्कलंक भगवान एवं महन्त की पालकी यात्रा एवं संगम पर महंत का शाही स्नान रहता है। मावजी महाराज की जन्मस्थली साबला के हरि मन्दिर से सवेरे गाजे-बाजे और ढोल-नगाडों के साथ निष्कलंक भगवान एवं महंत अच्युतानंद की पालकी यात्राएं निकलती है। सैकडों धर्मध्वजाओं, भजन-कीर्तन, गाजे-बाजे एवं रास लीला के मनोहारी दृश्यों से भरपूर इस पालकी यात्रा में भक्तगण कहार बनते हैं। रास्ते भर पालकी यात्रा का ग्रामीणों द्वारा जगह-जगह भावभीना स्वागत किया जाता है। इस दौरान समूचा मेला स्थल संत मावजी की जय-जयकार से गूंज उठता है। पालकियां राधा कृष्ण मंदिर पहुंचती है जहां महंत देव दर्शन करते हैं। इसके बाद पुनः हजारों भक्त पालकियों को लेकर जलसंगम तीर्थ ‘आबूदर्रा’ की ओर बढ़ते हैं जहां महन्त जल तीर्थों का आवाह्न करते हैं और मावजी महाराज सहित बेणेश्वर के आद्य महन्तों का स्मरण करते हुए पारंपरिक अनुष्ठानों के साथ स्नान किया जाता है।
बहुप्रसिद्ध एवं वागड़ क्षेत्र की पहचान बन चुके लोक नृत्य ‘गैर’ इस मेले का प्रमुख आकर्षण बन चुका है। मुख्य मेले के दिन होने वाली ‘गैर’ प्रतियोगिताओं में रंगबिरंगे पारम्पारिक परिधानों व आभूषणों में सजे ‘गेरिये’ के लोक वाद्य यंत्रों कुण्डी, ढ़ोल, नगाड़ों की थापों पर थिरकते कदमों से समूचा मेला फाल्गुनी रंगों में रंग जाता है। गैर नृत्य एवं खेल प्रतियोगिताओं में उमड़ने वाली अथाह जनमेदीनी जहां प्रतिभागियों की हौंसलाफजाई करती है वहीं अपने दल के सदस्यों के जीतने पर खुशियां भी मनाई जाती है।
सांस्कृतिक संध्या में दिखता है संस्कृति का उल्लास-
पवित्र तीर्थ स्थल पर पूर्णिमा की धवल चांदनी में जलसंगम में बिखरती रश्मियों के बीच स्थानीय लोक कलाकारों एवं देश के विभिन्न हिस्सों से आये कलाकारों द्वारा तीन दिन तक सांस्कृतिक संध्या में एक से बढ़कर एक शानदार प्रस्तुतियों दी जाती है । इन प्रस्तुतियों में देश की विविध संस्कृतियों की छटा सहज ही दृष्टव्य होती है। जिला प्रशासन, जनजाति क्षेत्रीय विकास विभाग एवं पर्यटन विभाग के संयुक्त तत्वाधान में बेणेश्वर धाम पर बने मुक्ताकाशी रंगमंच पर तीन दिवसीय रात्रि कालीन सांस्कृतिक संध्या के तहत देश के विभिन्न भागों से आए राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय स्तर के ख्यातनाम लोक कलाकारों द्वारा दी गई मनोहारी प्रस्तुतियों से हर शाम एक यादगार शाम बन जाती है ।
भजनों से फ़िजा में घुलती है आध्यात्मिक स्वर लहरियां-
मेले में लोक संत मावजी महाराज के भक्तों एवं संतो द्वारा स्थानीय वागड़ी बोली में गाये जाने वाले भजनों से न केवल वातावरण भक्ति से सरोबार हो जाता है वरन् फ़िजा में घुली ये स्वर लहरियां मेले को आध्यात्मिक ऊंचाईयां प्रदान करती है।
लुप्त होते स्थानीय खेलों का होता है जीवंत प्रदर्शन -
कम्प्यूटर के इस युग में मैदान में खेले जाने वाले स्थानीय खेल सितौलिया, रस्साकसीं, गिडा डोट, कुर्सी रेस, मटका दौड आदि का आयोजन इस मेले को स्थानीयता से जोड़ता है। लगभग भूला दिये गये इन खेलों के जीवंत एवं रोमांचकारी प्रदर्शन में पुरूषों के साथ-साथ महिलाओं द्वारा भी जबर्दस्त उत्साह से भाग लिया जाता है । साथ ही भावी पीढ़ी भी इन विस्मृत प्रायः हो चुके खेलों से रूबरू होती है।
जनजाति संस्कृति के बहुआयामी रंगों का एक ही स्थान पर दिग्दर्शन कराने वाला यह मेला विश्व में अपने आप में एक अनूठा मेला है। अपने वैशिष्ट्य परम्पराओं व जीवन संस्कृति को निकटता से अनुभूत कराने वाला बेणेश्वर मेला आस्था व संस्कृति का अद्भुत संगम है।
Excellent post! Baneshwar Fair Dungarpur 2020 looks like the perfect event for a family getaway. I heard that it is also called The Maha Kumbh Of Tribals. I hope that my family will love this vacation & we can make some great memories for life.
ReplyDeleteThanks ....
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