इसका प्रारंभिक रूप दो दलों का जमीन पर बैठ कर किसी विषय पर गायकीबद्ध शास्त्रार्थ करना रहा था। अतः इस प्रकार के ख्याल 'बैठकी ख्याल' या 'बैठकी दंगल' भी कहलाए। इनमें मुकाबला होने के कारण ही इन्हें दंगल कहा जाता है। इसमें भाग लेने वाले दल को अखाड़ा और अखाड़े के मुखिया को उस्ताद कहा जाता है। लोक नाट्यों में "तुर्रा - कलंगी" ख्याल कम - से -कम चार सौ से पाँच सौ वर्ष पुराना है। दो पीर संतों शाहअली और तुकनगीर ने "तुर्रा - कलंगी" ख्यालों का प्रवर्तन किया। ये वस्तुतः एक नहीं अपितु मेवाड़ की ख्याल परंपरा के दो भाग है। कहा जाता है कि एक बार मध्यप्रदेश के चंदेरी गाँव के ठाकुर ने दंगलबाज संत तुकनगीर और फकीर शाहअली को न्यौता देकर दंगल कराया तथा तुकनगीर को तुर्रा व शाह अली को कलंगी का सम्मान दिया। तब से दो अखाड़े बने जो तुर्रा और कलंगी के नाम से प्रसिद्ध हुए। तुर्रा व कलंगी पगड़ी पर सजाए या बाँधे जाने वाले दो आभूषण हैं। तुकनगीर "तुर्रा" के पक्षकार थे तथा शाह अली "कलंगी" के। तुर्रा को शिव और कलंगी को पार्वती का प्रतीक माना जाता है। इन दोनों खिलाड़ियों न...
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