त्रिपुरा सुंदरी
बाँसवाड़ा
सकराय या शाकम्भरी माता
झुंझनूँ
शिलादेवी, आमेर
जयपुर
आई माता
बिलाड़ा जोधपुर
आवड़ माता
जैसलमेर
शीतलामाता
चाकसू जयपुर
बाँसवाड़ा
राजस्थान में बाँसवाड़ा से लगभग 14 किमी दूर तलवाड़ा गाँव से मात्र 5 किमी की दूरी पर उमराई के छोटे से ग्राम में माता त्रिपुर सुंदरी प्रतिष्ठित है। यह मंदिर तीसरी सदी से भी प्राचीन माना जाता है। इस मंदिर का जीर्णोद्धार तीसरी शती के आस-पास पांचाल जाति के चांदा भाई लुहार ने करवाया था। मंदिर के समीप ही भागी (फटी) खदान है, जहाँ किसी समय लौह उत्खनन की खदान हुआ करती थी। यह मंदिर भारत के 51 शक्तिपीठों में से एक माना जाता है। देवी त्रिपुरा के गर्भगृह में सिंहवाहिनी देवी की विविध आयुध से युक्त अठारह भुजाओं वाली काले रंग की तेजयुक्त आकर्षक मूर्ति है। पास ही नौ-दस छोटी मूर्तियां है जिन्हें दस महाविद्या अथवा नव दुर्गा कहा जाता है। मूर्ति के नीचे के भाग के संगमरमर के काले व चमकीले पत्थर पर श्रीयंत्र उत्कीर्ण है, जिसका भी अपना विशेष महत्व है। गुजरात, मालवा और मेवाड़ के राजा त्रिपुरा सुन्दरी के उपासक थे। गुजरात के सोलंकी राजा सिद्धराज जयसिंह की यह इष्ट देवी रही है। यहाँ दोनों ही नवरात्रियों में विशाल मेला सकता है।
सकराय या शाकम्भरी माता
झुंझनूँ
सुरम्य घाटियों के बीच बना यह आस्था केन्द्र झुंझनूँ जिले के उदयपुरवाटी के समीप है। यहाँ के आम्रकुंज, स्वच्छ जल का झरना आने वाले व्यक्ति का मन मोहित करते हैं। इस शक्तिपीठ पर आरंभ से ही नाथ संप्रदाय वर्चस्व रहा है जो आज तक भी है। यहाँ देवी शंकरा, गणपति तथा धन स्वामी कुबेर की प्राचीन प्रतिमाएँ स्थापित हैं। यह मंदिर खंडेलवाल वैश्यों की कुल देवी के मंदिर के रूप में विख्यात है। इसमें लगे शिलालेख के अनुसार मंदिर के मंडप आदि बनाने में धूसर और धर्कट के खंडेलवाल वैश्यों सामूहिक रूप से धन इकट्ठा किया था। विक्रम संवत 749 के एक शिलालेख प्रथम छंद में गणपति, द्वितीय छंद में नृत्यरत चंद्रिका एवं तृतीय छंद में धनदाता कुबेर की भावपूर्ण स्तुति लिखी गई है।
शिलादेवी, आमेर
जयपुर
जयपुर के राजाओं की कुलदेवी शिलादेवी का यह मंदिर आमेर के महल में स्थित है। यह प्रतिमा अष्टभुजी महिषासुरमर्दिनी की है। मूर्ति के ऊपरी हिस्से में पंचदेवों की प्रतिमाएँ उत्कीर्ण है। मंदिर के दरवाजे चाँदी के हैं जिन पर दस विद्याओं की प्रतिमाएँ बनी है। इस देवी को अकबर के सेनापति एवं आमेर के राजा मानसिंह प्रथम ने बंगाल विजय के पश्चात 16 वीं सदी के अंत में यहाँ लाकर प्रतिष्ठित किया था। एक मत के अनुसार वे बंगाल के यशोहर के शासक प्रतापादित्य को पराजित कर यह मूर्ति लाए थे जबकि एक अन्य मत के अनुसार विक्रमपुर के शासक केदारराय को पराजित कर लाए थे। उन्होंने केदारराय की पुत्री से विवाह भी किया था। यहाँ प्रतिवर्ष नवरात्रि में विशाल मेले लगते हैं।
आई माता
बिलाड़ा जोधपुर
आईमाता नवदुर्गा देवी का अवतार कही जाती है। इनकी कथा है कि आईमाता मालवा के बीका जबी की पुत्री थी। उनके रूप की चर्चा सुनकर मांडू का बादशाह उनसे विवाह करने के लिए आया। बीका ने तो उसके प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया किन्तु विवाह मंडप में आईजी ने उग्र व प्रचंड रूप दिखा कर उसे भगा दिया। इसके बाद आईमाता लोक कल्याण व साधना में लग गई। ये मुल्तान और सिन्ध की ओर से आबू व गोड़वाड़ प्रांत में होती हुई विक्रम संवत 1521 में बिलाड़ा आई थी और चैत्र सुदी 2 संवत 1561 में यहीं स्वर्ग सिधारी। यहाँ इनके अधिकतर भक्त सीरवी जाति के लोग हैं जो राजपूतों से निकली एक कृषक जाति है। 13 वीं सदी में अल्लाउद्दीन खिलजी के आक्रमण से त्रस्त होकर ये जालोर राज्य को छोड़ कर बिलाडा आ गए। बाद में आईमाता ने इन्हें अपने पंथ में मिला लिया। आईमाता के मंदिर में कोई मूर्ति नहीं होती है। इसके थान को बडेर कहते हैं। सिरवी लोग आईमाता के मंदिर को दरगाह कहते हैं। बहुत से लोग आईमाता को बाबा रामदेवजी 'रामसा पीर' का शिष्या मानते हैं। यह भी कहा जाता है कि राणा कुंभा का पुत्र राजमल भी इनका भक्त था और देश निकाले के बाद इनके पास आया था।
आवड़ माता
जैसलमेर
यह मंदिर जैसलमेर से 25 किमी दक्षिण में बना हुआ है। चारणों द्वारा पूज्य इस देवी को हिंगलाज माता (पाकिस्तान) का अवतार माना जाता है। इसी कारण इस स्थान को दूसरा हिंगलाज के नाम से जाना जाता है। लोकदेवी आवड़ माता का जैसलमेर आगमन विक्रम संवत 888 के आसपास माना जाता है। कहा जाता है कि ये सात बहने-आवड, गुलो, हुली, रेप्यली, आछो, चंचिक, और लध्वी थी और सातों ही देवी बन गई। इनके पिता मामड़ साउवा शाखा के चारण थे। जैसलमेर जिले में तेमड़ा पर्वत पर आवड़ माता का स्थान बना है जिसके कारण आवड़ माता को तेमड़ाताई भी कहते हैं। यह कहा जाता है कि इस पर्वत पर तेमड़ा नामक विशालकाय हुण जाति का असुर था। जिसे माता ने उक्त पर्वत की गुफा में गाढ दिया था। तत्कालीन शासक देवराज ने इस पर्वत पर मन्दिर बनाया। चारण देवियों के संबंध में मान्यता है कि वे 'नौ लख लोवड़ियाल' अर्थात नौ लाख तार की ऊनी साड़ी पहनती थी। इन देवियों के स्तुति पाठ को 'चरजा' कहते हैं। ये दो प्रकार की होती हैं- सिगाऊ व घाड़ाऊ। 'सिगाऊ' शांति के समय पढ़ी जाती है। 'घाड़ाऊ' को भक्त विपत्ति के समय पढ़ता है।
शीतलामाता
चाकसू जयपुर
यह चेचक की निवारक माता है। यह मंदिर चाकसू में शीतली डूंगरी पर सवाई माधोसिंह ने बनवाया था। यहाँ शीतलाष्टमी को लक्खी मेला लगता है। गधा इस देवी का वाहन तथा कुम्हार इसके पुजारी माने जाते हैं। यह एकमात्र ऐसी देवी है जो खंडित रूप में पूजी जाती है। इसकी मूर्ति फफोलेदार व खंडित होती है।
बीकानेर distt -bhikampur
ReplyDeleteचोवटिया जौशिओ की कुलदेवी लूम-झूम माता के बारे में कोई जानकारी हो तो उपलब्ध करवाने की वयवस्था करवाए मौ.नं.:-9314712599