राजस्थान के विभिन्न अंचलों में दशामाता का पर्व धूमधाम से मनाया जाता है। जब मनुष्य की दशा ठीक होती है तब उसके सभी कार्य अनुकूल होते हैं किंतु जब दशा प्रतिकूल होती है तब अत्यंत परेशानी होती है। इसी दशा को दशा भगवती या दशा माता कहा जाता है। अपने परिवार की दशा उत्तम रखने के निमित्त हिंदू धर्म में दशा माता की पूजा तथा व्रत करने का विधान है।
दस दिनों तक होती है दशामाता की पूजा किन्तु मुख्य पूजा होती है चैत्र कृष्ण दशम को-
दशा माता का पूजन होली के दूसरे दिन अर्थात चैत्र कृष्ण 1 से ही प्रारंभ हो जाता है जब महिलाएँ स्नान कर के दशा माता के थान पर धूप दीपक और घी गुड़ का प्रसाद एवं गेहूँ आदि अनाज के आखे अर्पित करके दशा माता की कथा, जिसे स्थानीय भाषा में ''दशा माता री वात'' कहते हैं, का श्रवण करती है। महिलाएं 10 दिनों तक रोजाना दशा माता की अलग अलग कहानियों को कहती व श्रवण करती है। दसवें दिन अर्थात चैत्र कृष्ण दशमी को दशा माता का मुख्य त्यौहार मनाया जाता है । इस दिन महिलाओं द्वारा व्रत रखा जाता है तथा पीपल का पूजन कर दशामाता की कथा सुनी जाती है। इस दिन घरों में पकवान बनाए जाते हैं और दशामाता व अन्य देवी देवताओं को भोग लगाकर पूरे परिवार के साथ प्रसाद ग्रहण किया जाता है। राजस्थान में इस त्यौहार का अत्यंत महत्व है। इस दिन पीपल वृक्षस्थलों पर तड़के से ही पूरी तरह सज धज कर पूजा करने वाली स्त्रियों की भीड़ बनी रहती है जो अपराह्न तक रहती है। इस अवसर पर लाखों महिलाएँ अपने सुहाग की रक्षा और घर-परिवार की खुशहाली की कामना से पूरी श्रद्धा के साथ दशामाता के नियमों का पालन करते हुए व्रत पूजा करती है।
क्या होती है दशामाता की वेळ-
पूजा समाप्ति के पश्चात महिलाओं द्वारा दशावेल धारण की जाती है। दशावेल हल्दी से रंगा हुआ पीले रंग का एक धागा होता है जिसमें दस गांठे होती है। महिलाएं इस वेळ को वर्षभर गले में धारण करती है। पूजा के बाद पीपल की छाल को सोना मानकर कनिष्ठा या चट्टी अंगुली से खुरेचकर घर लाया जाता है और अलमारी, तिजोरी, पेटी या मंजूषा में रखा जाता है। साथ ही अपने घर व परिवार की बुजुर्ग स्त्रियों के पैर छूकर उनसे सौभाग्य व समृद्धि का आशीर्वाद लिया जाता है।
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