Skip to main content

शुष्क वन अनुसंधान संस्थान, जोधपुर Arid Forest Research Institute- (AFRI)

शुष्क वन अनुसंधान संस्थान (Arid Forest Research Institute- AFRI) जोधपुर, भारत सरकार के पर्यावरण एवं वन मंत्रालय के अधीन एक स्वायत्तशासी निकाय, भारतीय वानिकी अनुसंधान एवं शिक्षा परिषद, देहरादून (ICFRE), के आठ संस्थानों में से एक है। संस्थान परिसर न्यू पाली रोड, जोधपुर पर 66 हैक्टेयर क्षेत्र में फैला हुआ है।
यह संस्थान वन पारिस्थितिकी, वन आनुवंषिकी, ऊतक संवर्ध्दन, आणविक जैविकी, वन संवर्ध्दन, वन कीटविज्ञान तथा रोगनिदान विज्ञान, अकाष्ठ वनोपज पर अनुसंधान कार्य कर रहा है तथा कार्यक्षेत्रों की आवश्यकताओ को ध्यान में रखते हुए परियोजनाएं चला रहा है। संस्थान में राज्य के कई ज्वलंत पहलुओं जैसे खेजडी मृत्यता, लुप्त प्राय: प्रजातियों जैसे गुग्गल (C.wightii) का बहुगुणात्मक उत्पादन, रोहिडा (T.undulata) में स्टेम कैंकर के विरूद्ध प्रतिरोधकता उत्पन्न करना, अपक्षीण भूमि पर वृक्षारोपण, अपवाही संरचनाओं द्वारा जलभरण क्षेत्रों का सुधार, बायोडीजल तथा औषधीय पादपों से जुडी परियोजनाएं भी चल रही हैं। राजस्थान व गुजरात की प्रमुख प्रजातियों जैसे नीम (A. indica), देशी बबूल (A. nilotica), खेजडी (P. Cineraria), रोहिड़ा (T. undulata), अरडू (A. excelsa), शीशम (D.sissoo), सफेदा (E.Camaldulensis) आदि पर संस्थान में अनुसंधान कार्य हो रहा है। हाल ही में चर्चा में आए जलवायु परिवर्तन, कार्बन उत्सर्जन, मृदा पाष्र्विका एवं राजस्थान का वानस्पतिक अध्ययन जैसे विषयों पर अनुसंधान कार्य प्रगति पर हैं। संस्थान में हो रहे अनुसंधान का राजस्थान तथा गुजरात में स्थापित किए गए वन विज्ञान केन्द्रों की मदद से किसान प्रशिक्षण आयोजित कर, अनुसंधान सामग्री का प्रदर्शन कर, संगोष्ठी एवं परिचर्चा आयोजित कर, राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय शोध पत्रिकाओं में अनुसंधान प्रकाशित कर तथा वेबपोर्टल के जरिये पणधारियों (स्टेकहोल्डर) को लाभान्वित किया जा रहा है।
 

वानिकी अनुसंधान के इस संस्थान के उद्देश्य-

  • मानव, वन एवं पर्यावरण के मध्य अन्योन्य क्रिया के फलस्वरुप उपज रही समस्याओं से परिचित कराने तथा इन क्षेत्रों में सहयोग बढ़ाने की दिशा में सतत् रूप से अनुसंधान, शिक्षा एवं प्रसार कार्यक्रम के माध्यम से उत्पादन, संरक्षण तथा उन्नत ज्ञान, प्रौद्योगिकी व समाधान को बढ़ावा देना है।
  • वानिकी एवं संबंधित क्षेत्रों में वैज्ञानिक अनुसंधान कर उत्पादकता और वानस्पतिक क्षेत्र में वृद्धि करना।
  • शुष्क क्षेत्र की जैव विविधता का संरक्षण करना।
  • संस्थान के निर्धारित कार्य क्षेत्रों "राजस्थान, गुजरात, दादरा और नागर हवेली" के गर्म शुष्क और अर्ध शुष्क क्षेत्रों में स्थानीय आवश्यकताओं हेतु प्रौद्योगिकी का विकास करना है।
     
प्रमुख अनुसंधान कार्य-
  • शुष्क क्षेत्रों हेतु कृषि शस्य चरागाह मॉडल विकसित करना।
  • शुष्क क्षेत्रों में वर्षा जल संग्रहण तकनीक विकसित करना।
  • दाब क्षेत्रों के वनीकरण हेतु तकनीक का विकास करना।
  • रेतीले टिब्बों का स्थिरीकरण कर मरुस्थल की पारिस्थितिकी का स्थिरीकरण करना।
  • उच्च गुणवत्ता की रोपण सामग्री तैयार करने की तकनीकें विकसित करना।
  • महत्वपूर्ण शुष्क क्षेत्रीय प्रजातियों के उद्गम स्रोत का परीक्षण करना।
  • जैव कीटनाशी एवं जैव उर्वरकों पर अध्ययन करना।
  • शुष्क क्षेत्र के अकाष्ठ वनोपज पर अनुसंधान करना।
  • जैनेटिक इंजीनियरिंग एवं उत्तक संवर्धन द्वारा पादप सुधार करना।

संस्थान के विभिन्न प्रभाग-

1. वन पारिस्थितिकी प्रभाग-




संपूर्ण विश्व में मरुप्रसार एवं इसके परिणामस्वरूप भूमि का अपक्षीणन (Degradation) एक भयावह समस्या है। पश्चिमोत्तर भारतीय क्षेत्र में यह समस्या मौसम की जटिलताओं कम एवं अनियमित वर्षा (100-400मिमी) तथा उच्च वाष्पोत्सर्जन की दर के कारण और भी विकट है। यहां की मृदा अपरिपक्व, संरचनाहीन तथा स्थूल संरचनायुक्त तत्वों वाली है। जल एवं पोषक तत्वों की कमी के कारण क्षेत्र में वनस्पति आवरण एवं उत्पादकता में कमी स्वत: दृष्टिगत होती है।
उपलब्ध वनस्पति का अतिदोहन तथा लवणीय भूजल द्वारा सिंचाई के परिणामस्वरुप भूमि का अपक्षीणन हुआ है। इसके स्पष्ट प्रमाण मृदा अपरदन, अपवहन एवं लवणीकरण तथा वृक्ष एवं मृदा विहीन पहाड़ियों के रुप में परिलक्षित हुए हैं। वन पारिस्थितिकी प्रभाग का प्रमुख उद्देश्य मरु प्रसार रोक एवं अवक्रमित पहाड़ियों के पुनर्वास से संबंधित विभिन्न पहलुओं पर अनुसंधान करना तथा वर्तमान जलवायु परिवर्तन एवं जैवविविधता को ध्यान में रखते हुए क्षेत्र की उत्पादकता बढ़ाना है।


प्रभाग के उद्देश्य-


इस प्रभाग द्वारा मरुप्रसार की समस्या, जलवायु परिवर्तन एवं जैव विविधता से संबंधित निम्न पहलुओं पर कार्य किया जाता है:

  • वर्षा जल संग्रहण और संरक्षण
  • मृदा संरक्षण एवं रेतीले टिब्बों का स्थिरीकरण
  • सिंचाई जल प्रबंधन एवं अवशिष्ट जल का वानिकी में उपयोग
  • अवक्रमित भूमि का जैव उपचार (Bioremediation)
  • मृदा जल-पादप संबंध एवं पादपों द्वारा जलाक्रांत क्षेत्र का निस्तारण
  • जलवायु परिवर्तन एवं कार्बन स्थूलीकरण (Sequestration)
  • जैव विविधता एवं उत्पादकता


2. कृषि वानिकी एवं विस्तार प्रभाग-



किसान के आर्थिक लाभ में सतत् वृध्दि तभी की जा सकती है, जबकि फसल के साथ आर्थिक महत्व की कुछ वृक्ष प्रजातियों का रोपण किया जाए जिनसे कुछ समय उपरांत आर्थिक लाभ नियमित रुप से प्राप्त होता रहे। इसके अलावा किए गए अनुसंधान परिणामों को फील्ड तक पहुँचाया जाए। इसके लिए कृषि वानिकी एवं विस्तार प्रमाण का गठन हुआ है
यह प्रभाग ग्रामीण किसानों को लाभान्वित करने हेतु कृषि वानिकी के विभिन्न पहलुओं पर अनुसंधान कर रहा है। प्रभाग जनसहभागिता द्वारा वृक्षारोपण तथा कृषि वानिकी मॉडलों की स्थापना पर भी कार्य कर रहा है। संस्थान द्वारा किए गए अनुसंधान परिणामों को वन विभाग, किसान तथा अन्य पणधारियों में विस्तारित करने का कार्य प्रभाग द्वारा किया जा रहा है।


प्रभाग के उद्देश्य-

  • जन सहभागिता द्वारा कृषि वानिकी मॉडल तथा वृक्षारोपण को प्रोत्साहित करना
  • संस्थान के अनुसंधान परिणामों का प्रकाशन
  • वानिकी संग्रहालय की स्थापना और मॉडल बनाना
  • किसान प्रशिक्षण आयोजित करके वानिकी अनुसंधान का विस्तार


3. वन अनुवंषिकी एवं वृक्ष प्रजनन प्रभाग-



वन अनुवंशिकी एवं वृक्ष प्रजनन प्रभाग अनुवांशिक स्रोतों और विभिन्नता संरक्षण, उदगम स्रोत परीक्षण द्वारा आनुवंशिक विभिन्नताओं की जाँच, रोपण सामग्री में सुधार, ऊतक संवर्धन तथा शुष्क व अर्द्ध शुष्क क्षेत्रों की वृक्ष प्रजातियों के कायिक प्रवर्धन की परम्परागत विधियों से बहु मात्रा में उत्पादन किए जाने पर अनुसंधान कार्य कर रहा है। प्रभाग औषधीय एवं आर्थिक महत्व की अति दोहन वाली वन वृक्ष प्रजातियों पर आनुवंशिक इंजीनियरी अनुसंधान को भी बढावा देने की दिशा में पहल कर रहा है। अनुसंधान कार्यों के लिए प्रभाग अत्याधुनिक उपकरणों से सुसज्जित है और सुसंस्थापित ऊतक संवर्धन प्रयोगशाला है।


प्रभाग के उद्देश्य-

  • वन उत्पादकता बढ़ाने के लिए अनुवंशिकी स्रोतों का उपयोग व संरक्षण
  • आगामी वृक्ष प्रजनन कार्यों के लिए अनुवंशिकी विभिन्नता का संरक्षण
  • भौगोलिक विभिन्नता वाले वृक्षों का वृक्षारोपण स्थल के अनुरुप चयन, रोपण सामग्री सुधार
  • अनुसंधान की जैव तकनीक का उपयोग कर स्थानीय प्रजातियों के वैकल्पिक एवं बहु मात्रा में उत्पादन लिए जाने हेतु तकनीक विकसित करना
  • अनुवंशिकी इंजीनियरी द्वारा उच्च गुणवत्ता वाले वृक्ष तैयार करने की तकनीक बनाना
  • आणविक स्तर पर अनुवंशिकी के अध्ययन हेतु नवीनतम तकनीक का उपयोग

4. वन संवर्धन प्रभाग-




किसी भी समुदाय के लिए वन अत्यंत महत्वपूर्ण संसाधन हैं एवं समुदाय की बेहतर आजीविका के लिए इन स्रोतों का समुचित उपयोग किया जाना चाहिए। वृध्दि एवं उपज अध्ययनों द्वारा वनों की उत्पादकता में आशातीत वृध्दि की जा सकती है। समुचित प्रबंधन विधियाँ अपनाकर वनों की उपज में वृध्दि भी की जा सकती है।
वर्धनीय सामग्री के स्तर, इमारती लकड़ी और वृक्ष वृद्धि के मध्य जटिल अंत: क्रिया का विश्लेषण, वन प्रबंधन की मुख्य विषय वस्तु है। वन संसाधनों के प्रभावी प्रबंधन के लिए पूर्व सक्रिय अभिवृत्तिा (pro attitude) और जटिलताओं के साथ स्पर्धा करने की योग्यता अपेक्षित है। पूर्व सक्रियता पुन: सक्रियता प्रबंधन,की तुलना में प्रभावी योजना जरुरतों के लिए मान्य होती है।
वन प्रबंधन इकाई वन मापिकी बायो मैट्रिक्स, बाजार सर्वेक्षण और वन प्रबंधन के विभिन्न पहलुओं पर अनुसंधान कर रही है उदाहरणार्थ-
वृक्षारोपणों में वृद्धि एवं उपज मॉडलिंग तथा पूर्वानुमान, सांख्यिकी बंटन फलन और वानिकी में इनका उपयोग, छॅंगाई प्रबंधन, विभिन्न वन उत्पादों के बाजार मूल्य/विक्रय मूल्य का आकलन एवं सांख्यिकी से संबंधित ऑंकड़ों का एकत्रीकरण।

प्रभाग के उद्देश्य-

  • महत्वपूर्ण शुष्क क्षेत्रीय वृक्ष प्रजातियों हेतु उपज तथा मात्रा समीकरण बनाना।
  • राजस्थान तथा गुजरात राज्यों की महत्वपूर्ण वृक्ष प्रजातियों की प्रभावी सघनता, मर्त्यता, आधारी क्षेत्र का पूर्वाकलन तथा विरलन मॉडलों के स्थलीय इंडेक्स समीकरण एवं वृध्दि व उपज अभिलक्षणों का विकास करना।
  • शुष्क एवं अर्ध्दशुष्क क्षेत्रों की महत्वपूर्ण चारा प्रजातियों की छंगाई का अध्ययन करना।
  • वन वृक्षारोपणों के वृध्दि-मॉडलिंग तथा वृक्षों के आकार का अभिनिर्धारण करने हेतु सांख्यिकी बेस फलन का अभिप्रयोग करना।
  • वन उत्पाद यथा इमारती लकड़ी, जलावन, बांस के बाजार भाव का आंकलन तथा वानिकी सांख्यिकी के आंकड़ो का एकत्रीकरण करना।

5. वन संरक्षण प्रभाग-




वन वृक्षों पर हानिकारक कीटों और बीमारियों का प्रकोप होता है, जो कि वन वृक्ष एवं उनके स्रोतों को हानि पहुँचाते हैं। शुष्क क्षेत्रीय वृक्ष प्रजातियों में हानिकारक कीटों और बीमारियों के अनेक वर्गों के प्रति संवेदनशीलता पायी जाती है। कभी-कभी हानिकारक कीटों एवं बीमारियों का प्रकोप इतना अधिक होता है कि वनों को इनके प्रकोप से बचाने के लिए आपातकालीन प्रबंधन विधियाँ अपनाई जाती हैं। वर्तमान में बहुउद्देशीय वृक्ष प्रजाति खेजड़ी (प्रोसोपिस सिनेरेरिया) पर अज्ञात जैविक कारकों का ग्रसन रिपोर्ट किया गया, जिसके परिणामस्वरुप संपूर्ण पश्चिमी राजस्थान के ग्रामीण समुदाय को अत्यधिक सामाजिक-आर्थिक नुकसान हुआ है। शुष्क तथा अर्ध्द शुष्क क्षेत्रों में जहाँ वन आवरण का घनत्व कम है एवं प्रत्येक वृक्ष प्र्रजाति अत्यंत महत्वपूर्ण है, इस प्रकार की समस्याओं का प्रभावी निराकरण किए बिना वनों का संरक्षण अत्यंत दुष्कर है।
इन समस्याओं के समाधान हेतु संस्थान का वन संरक्षण प्रभाग कार्यरत है एवं समेकित कीट प्रबंधन द्वारा पर्यावरण हितैषी कीट प्रबंधन विधियों को विकसित कर रहा है।

प्रभाग के उद्देश्य-

  • शुष्क तथा अर्ध्द शुष्क वृक्ष प्रजातियों के हानिकारक कीटों का चयन, पहचान और जैव पारिस्थतिकी पर अध्ययन एवं समेकित कीट प्रबंधन विधियों को विकसित कर उनके कीटों एवं बिमारियों का प्रबंधन।

6. अकाष्ठ वनोपज प्रभाग-



शुष्क क्षेत्रीय वनस्पति पर अनुसंधान के उद्देश्य से वर्ष 1992 में अकाष्ठ वनोपज प्रभाग की स्थापना हुई। अकाष्ठ वनोपज को प्राय: गैर-इमारती वनोपज भी कहा जाता है। गैर-इमारती वनोपज के अन्तर्गत सभी तरह के जैविकीय पदार्थ आते हैं जो मानव उपयोग के लिए वनों से प्राप्त होते हैं। वनों से प्राप्त खाद्य पदार्थों में प्रचुर मात्रा में पोषक तत्व: जैसे कार्बोहाइड्रेट, प्रोटीन, वसा और सूक्ष्म पोषक तत्व (विटामिन और खनिज लवण) इत्यादि होते हैं। इस धारणा को बल मिला है कि ग्रामीण जीवन निर्वाह को उन्नत बनाने, सामुदायिक (community) आवश्यकताओं को पूरा करने, खाद्य पदार्थों की पूर्ति करने तथा पोषण देने, अतिरिक्त रोजगार और आय बढाने, रसायनिक क्रिया आधारित उद्यमों को बढावा देने, विदेशी मुद्रा के अर्जन और पर्यावरणीय जैव-विविधता के संरक्षण उद्देश्यों में अकाष्ठ वनोपज की अहम् भूमिका है।
आर्थिक दृष्टि से पशुपालन पर आधारित शुष्क क्षेत्रों में चारा आपूर्ति निर्बाध रूप से बनी रहनी आवश्यक है। अध्ययन से पता चलता है कि वर्तमान में जहां अन्य वनोत्पादों की कमी हो रही है वहीं वनों से चारा इकट्ठा करना ग्रामीणों के लिए उनका प्रमुख कार्य हो गया है। बढती हुई जनसंख्या के दबाव के मद्देनजर बंजर भूमि/लवणीय क्षार युक्त भूमि तथा अपक्षीण भूमि (degraded land) पर चारा उत्पादन हेतु तकनीक विकसित करने की आवश्यकता है।
अकाष्ठ वनोपज प्रभाग, पादप रसायनों, खाद्य पदार्थों एवं औषधीय पौधों के रासायनिक मूल्यांकन करने, लवणीय क्षार युक्त भूमि के उपयोग हेतु तकनीक विकसित करने, बंजर भूमि में वन चारागाह पद्धति (silvi-pastoral) अपनाकर उसको अधिकाधिक उपयोग में लाने तथा शुष्क क्षेत्रों की वृक्ष एवं झाड़ियों से अधिकाधिक गोंद प्राप्त करने जैसे कार्यों में लगा हुआ है।

प्रभाग के उद्देश्य-

  • सुधार प्रबंधन तकनीक और पुनर्वनीकरण द्वारा लवणीय क्षार युक्त भूमि पर चारा उत्पादन
  • औषधीय पादपों के सतत् उपयोग तथा उनकी उपयोगिता को बढाने हेतु पादप रासायनिक मूल्यांकन, जैव विविधता संरक्षण तथा आय अर्जन में बढोतरी।
  • अकाष्ठ वनोपज की प्राप्ति हेतु शुष्क क्षेत्रीय वनस्पति का पता कर चिन्हित करना।
  • शुष्क क्षेत्रीय वनस्पति से अधिकाधिक गोंद प्राप्त करने की तकनीकें विकसित करना।   

Comments

Popular posts from this blog

Baba Mohan Ram Mandir and Kali Kholi Dham Holi Mela

Baba Mohan Ram Mandir, Bhiwadi - बाबा मोहनराम मंदिर, भिवाड़ी साढ़े तीन सौ साल से आस्था का केंद्र हैं बाबा मोहनराम बाबा मोहनराम की तपोभूमि जिला अलवर में भिवाड़ी से 2 किलोमीटर दूर मिलकपुर गुर्जर गांव में है। बाबा मोहनराम का मंदिर गांव मिलकपुर के ''काली खोली''  में स्थित है। काली खोली वह जगह है जहां बाबा मोहन राम रहते हैं। मंदिर साल भर के दौरान, यात्रा के दौरान खुला रहता है। य ह पहाड़ी के शीर्ष पर स्थित है और 4-5 किमी की दूरी से देखा जा सकता है। खोली में बाबा मोहन राम के दर्शन के लिए आने वाली यात्रियों को आशीर्वाद देने के लिए हमेशा “अखण्ड ज्योति” जलती रहती है । मुख्य मेला साल में दो बार होली और रक्षाबंधन की दूज को भरता है। धूलंड़ी दोज के दिन लाखों की संख्या में श्रद्धालु बाबा मोहन राम जी की ज्योत के दर्शन करने पहुंचते हैं। मेले में कई लोग मिलकपुर मंदिर से दंडौती लगाते हुए काली खोल मंदिर जाते हैं। श्रद्धालु मंदिर परिसर में स्थित एक पेड़ पर कलावा बांधकर मनौती मांगते हैं। इसके अलावा हर माह की दूज पर भी यह मेला भरता है, जिसमें बाबा की ज्योत के दर्शन करन...

राजस्थान का प्रसिद्ध हुरडा सम्मेलन - 17 जुलाई 1734

हुरडा सम्मेलन कब आयोजित हुआ था- मराठा शक्ति पर अंकुश लगाने तथा राजपूताना पर मराठों के संभावित आक्रमण को रोकने के लिए जयपुर के सवाई जयसिंह के प्रयासों से 17 जुलाई 1734 ई. को हुरडा (भीलवाडा) नामक स्थान पर राजपूताना के शासकों का एक सम्मेलन आयोजित किया गया, जिसे इतिहास में हुरडा सम्मेलन के नाम  जाता है।   हुरडा सम्मेलन जयपुर के सवाई जयसिंह , बीकानेर के जोरावर सिंह , कोटा के दुर्जनसाल , जोधपुर के अभयसिंह , नागौर के बख्तसिंह, बूंदी के दलेलसिंह , करौली के गोपालदास , किशनगढ के राजसिंह के अलावा के अतिरिक्त मध्य भारत के राज्यों रतलाम, शिवपुरी, इडर, गौड़ एवं अन्य राजपूत राजाओं ने भाग लिया था।   हुरडा सम्मेलन की अध्यक्षता किसने की थी- हुरडा सम्मेलन की अध्यक्षता मेवाड महाराणा जगतसिंह द्वितीय ने की।     हुरडा सम्मेलन में एक प्रतिज्ञापत्र (अहदनामा) तैयार किया गया, जिसके अनुसार सभी शासक एकता बनाये रखेंगे। एक का अपमान सभी का अपमान समझा जायेगा , कोई राज्य, दूसरे राज्य के विद्रोही को अपने राज्य में शरण नही देगा ।   वर्षा ऋत...

Civilization of Kalibanga- कालीबंगा की सभ्यता-
History of Rajasthan

कालीबंगा टीला कालीबंगा राजस्थान के हनुमानगढ़ ज़िले में घग्घर नदी ( प्राचीन सरस्वती नदी ) के बाएं शुष्क तट पर स्थित है। कालीबंगा की सभ्यता विश्व की प्राचीनतम सभ्यताओं में से एक है। इस सभ्यता का काल 3000 ई . पू . माना जाता है , किन्तु कालांतर में प्राकृतिक विषमताओं एवं विक्षोभों के कारण ये सभ्यता नष्ट हो गई । 1953 ई . में कालीबंगा की खोज का पुरातत्वविद् श्री ए . घोष ( अमलानंद घोष ) को जाता है । इस स्थान का उत्खनन कार्य सन् 19 61 से 1969 के मध्य ' श्री बी . बी . लाल ' , ' श्री बी . के . थापर ' , ' श्री डी . खरे ', के . एम . श्रीवास्तव एवं ' श्री एस . पी . श्रीवास्तव ' के निर्देशन में सम्पादित हुआ था । कालीबंगा की खुदाई में प्राक् हड़प्पा एवं हड़प्पाकालीन संस्कृति के अवशेष प्राप्त हुए हैं। इस उत्खनन से कालीबंगा ' आमरी , हड़प्पा व कोट दिजी ' ( सभी पाकिस्तान में ) के पश्चात हड़प्पा काल की सभ्यता का चतुर्थ स्थल बन गया। 1983 में काली...