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प्रतापगढ़ की देश विदेश में मशहूर थेवा कला

थेवा कला काँच पर सोने का सूक्ष्म चित्रांकन है। काँच पर सोने की बारीक, कमनीय और कलात्मक कारीगरी को थेवा कहा जाता है। इस कला में चित्रकारी का ज्ञान होना आवश्यक है। इसमें रंगीन बेल्जियम काँच का प्रयोग किया जाता है। काँच पर सोने की परत चढ़ा कर उस पर लघु चित्रकारी एवं मीनाकारी की यह अनूठी व बेजोड़ थेवा कला देश विदेश में अत्यधिक लोकप्रिय है।
‘थेवा कला’ विभिन्न रंगों के कॉंच को चांदी के महीन तारों से बनी फ्रेम में डालकर उस पर सोने की बारीक कलाकृतियां उकेरने की अनूठी कला है। समूचे विश्व में प्रतापगढ़ ही एकमात्र वह स्थान है जहाँ अत्यंत दक्ष 'थेवा कलाकार' छोटे-छोटे औजारों की सहायता से इस प्रकार की विशिष्ट कलाकृतियां बनाते है। इस कला में पहले कॉंच पर सोने की शीट लगाकर उस पर बारीक जाली बनाई जाती है, जिसे ‘थारणा’ कहा जाता है। फिर दूसरे चरण में काँच को कसने के लिए चांदी के महीन तार से बनाई जाने वाली फ्रेम का कार्य किया जाता है, जिसे ‘वाडा’ कहा जाता है। इसके बाद इसे तेज आग में तपाया जाता है। इस प्रकार शीशे पर सोने की सुंदर डिजाईनयुक्त कलाकृति उभर आती है। यह कहा जाता है कि इन दोनों प्रक्रियाओं 'थारना और वाड़ा' के प्रथम दो अक्षरों से ‘थेवा’ नाम उत्पन्न हुआ है। राजस्थान की इस आकर्षक ‘थेवा कला’ को जानने वाले देश में अब गिने चुने पाँच छः परिवार ही बचे हैं। ये परिवार राजस्थान के प्रतापगढ़ जिले में रहने वाले ‘राज सोनी घराने’ के हैं, जिन्हें इस कला के लिए कई अंतर्राष्ट्रीय, राष्ट्रीय और राज्य स्तरीय पुरस्कार मिल चुके हैं।
राज सोनी परिवार द्वारा शीशे पर अंकित की जाने वाली सोने की बारीक व आकर्षक मीनाकारी की इस सुनहरी ‘थेवा कला’ से बने आभूषण व सजावटी आइटम सभी को लुभाते हैं। यह कहा जाता है कि इस कला में दक्ष राज सोनी परिवार इस कला का ट्रेड सीक्रेट बनाए रखना चाहते हैं। इसी कारण पीढ़ी दर पीढ़ी चलने वाली इस बेजोड़ कला को उनके द्वारा मुख्यतः अपने परिवार के पुरुषों को ही सिखा कर वंश परंपरा को आगे बढ़ाया जाता है। ट्रेड सीक्रेट यहाँ तक रखा जाता है कि वे इसे अपने परिवार की लड़कियों को भी इसे नहीं सिखाते हैं।
यह माना जाता है कि थेवा कला 17वीं शताब्दी में तत्कालीन राजघरानों के संरक्षण में पनपी थी। प्रारम्भ में ‘थेवा कला' लाल नीले और हरे मूल्यवान पत्थरों पर ही उकेरी जाती थी, लेकिन अब यह कला पीले, गुलाबी तथा काले रंग के काँच के मूल्यवान रत्नों पर भी उकेरी जाने लगी है।
थेवा कला से बहुमूल्य आभूषण बॉक्स, प्लेट्स, सिगरेट बॉक्स, इत्रदान, फोटोफ्रेम आदि के अलावा पेंडल, ईयररिंग, हार, पाजेब, बिछूए, कफ के बटन, टाई पिन और साड़ी पिन आदि आभूषण एवं देवी देवताओं की प्रतिमाएँ भी बनाई जाती है। भावमग्न मयूर आकृतियां, रासलीला, शिकार के दृश्य, फूल-पत्ती आदि का कलात्मक अंकन इस कला की उत्कृष्टता प्रतिपादित करते हैं। थेवा कला में कलाकृतियां बनाने में सोना कम लगता है जबकि मेहनत अत्यधिक लगती है। इसमें अलंकृत आभूषणों का मूल्य धातु का न होकर कलाकार की कला का होता है। यही कारण है कि थेवा शिल्प की वस्तुओं के महँगे होने के बावजूद इनकी माँग देश व विदेश में सदैव बनी रहती है। थेवा कला का नाम इनसाइक्लोपीडिया ऑफ ब्रिटेनिका मेँ भी अंकित है। इस कला के प्रमुख कलाकारों में रामप्रसाद राज सोनी, शंकरलाल राजसोनी, वेणीराम राजसोनी, रामविलास राजसोनी, जगदीश राजसोनी, बसंत राजसोनी, रामनिवास राजसोनी व महेश राजसोनी हैं, जिन्हें राष्ट्रपति पुरस्कार से सम्मानित किया जा चुका है।

‘लिम्का बुक ऑफ वर्ल्ड रिकॉर्ड’ में भी दर्ज है थेवा कला

थेवा कला के क्षेत्र में कार्यरत एक ही परिवार के सदस्यों को सर्वाधिक राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त करने के लिए प्रतापगढ़ के राजसोनी परिवार का नाम ‘लिम्का बुक ऑफ रिकार्ड्स- 2011’ में सम्मिलित किया गया है। थेवा कला के लिए विख्यात प्रतापगढ़ के राजसोनी परिवार के निम्नांकित सदस्यों को अब तक आठ राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त हो चुके हैं-

1. सर्वप्रथम रामप्रसाद राजसोनी- 1966

2. शंकरलाल राजसोनी- 1970

3. बेनीराम राजसोनी- 1972

4. रामविलास राजसोनी- 1975

5. जगदीशलाल राजसोनी- 1976

6. बसंतलाल सोनी-1977

7. रामनिवास राजसोनी- 1982

8. महेश राजसोनी- 2005

लुप्त होती जा रही इस अनूठी थेवा कला को आधुनिक फैशन की विविध डिजाईनों में ढालकर राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय बाजार में लोकप्रिय बनाने के प्रयास किए जा रहे हैं।

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