पर्यावरण संरक्षण के लिए पश्चिमी राजस्थान संपूर्ण विश्व में जाना जाता है। राजस्थानी की प्रसिद्ध कहावत "सर साठे रूंख रहे तो भी सस्तो जाण" (अर्थात सिर कटवा कर वृक्षों की रक्षा हो सके, तो भी इसे सस्ता सौदा ही समझना चाहिए) को जोधपुर जिले का खेजड़ली गाँव के लोगों ने पूरी तरह से चरितार्थ किया था जहाँ संवत् 1787 की भादवा सुदी दशमी को खेजड़ी के पेड़ों की रक्षा के लिए विश्नोई जाति के 363 व्यक्तियों ने अपने प्राणों की आहूति दी थी। वनों के संरक्षण तथा संवर्द्धन के लिए संत जांभोजी के अनुयायी विश्नोई समाज ने सदैव सामाजिक प्रतिबद्धता को उजागर किया है। जांभोजी ने संवत् 1542 की कार्तिक बदी अष्टमी को विश्नोई धर्म का प्रवर्तन किया तथा अपने अनुयायियों को "सबद वाणी" में उपदेश दिया कि वनों की रक्षा करें। उन्होंने अपने अनुयायियों से उनतीस (20+9) नियमों के पालन करने के लिए प्रेरित किया। बीस + नौ नियमों के पालन के उपदेश के कारण ही उनके द्वारा प्रवर्तित संप्रदाय को विश्नोई संप्रदाय कहा गया। इन नियमों में से एक नियम हरे वृक्ष को नहीं काटने का भी था। इस संप्रदाय के सैकड़ों लोगों द्वारा खेजड़ली गाँव में वृक्षों की रक्षा के लिए किए गए बलिदान की शौर्य गाथा अत्यंत रोमांचक होने के साथ साथ आज सभी के लिए प्रेरणास्पद भी बनी हुई है। यह घटना उस समय की है जब जोधपुर के किले के निर्माण में काम आने वाले चूने को निर्मित करने वाले भट्टों के ईंधन के लिए लकड़ियों की आवश्यकता हुई। लकड़ी की पूर्ति करने के लिए खेजड़ली गाँव के खेजड़ी वृक्षों की कटाई करने का निर्णय किया गया। इस बात का पता चलते ही देवता समान माने जाने वाले पेड़ों की कटाई को रोकने के लिए खेजड़ली गाँव के विश्नोई समाज के लोगों ने बलिदान देने का निश्चय किया। उन्होंने आसपास के गाँवों को भी अपने इस निर्णय की सूचना दे दी। एक महिला अमृता देवी के नेतृत्व में लोग सैकड़ों की संख्या में खेजड़ली गांव में एकत्रित हो गए तथा वृक्षों को बचाने के लिए उनसे चिपक गए। उन्होंने पेड़ कटाई के विरोध में अनूठे सत्याग्रह का एलान कर दिया कि अगर तुम्हे पेड़ काटना है तो पहले हमें काटना होगा। हत्यारे कब रुकने वाले थे, वे टूट पड़े और जब पेड़ों को काटा जाने लगा, तो लोगों के शरीर भी टुकड़े-टुकड़े होकर गिरने लगे तथा बलिदानी धरती लाशों से पट गई। इस बलिदान में जान देने वालोँ लोगों में खेजड़ली की महान महिला अमृतादेवी और उनकी दो पुत्रियां अग्रिम पंक्ति में थी। पुरूषों में सर्वप्रथम अणदोजी ने बलिदान दिया तथा कुल 363 स्त्री-पुरूषों ने अपने प्राण पर्यावरण को समर्पित कर दिए। जब इस घटना की सूचना जोधपुर के महाराजा को मिली, तो उन्होंने पेड़ों की कटवाई रुकवाई तथा भविष्य में वहाँ पेड़ न काटने के आदेश भी दिए। इन वीरों की स्मृति में यहां खेजड़ली गाँव में हर वर्ष भादवा सुदी दशमी को विशाल मेला भरता है, जिसमें हजारों की संख्या में लोग इकट्ठे होते हैं। इस मेले में देश विदेश के पर्यावरण प्रेमी भी हिस्सा लेते हैं।
हुरडा सम्मेलन कब आयोजित हुआ था- मराठा शक्ति पर अंकुश लगाने तथा राजपूताना पर मराठों के संभावित आक्रमण को रोकने के लिए जयपुर के सवाई जयसिंह के प्रयासों से 17 जुलाई 1734 ई. को हुरडा (भीलवाडा) नामक स्थान पर राजपूताना के शासकों का एक सम्मेलन आयोजित किया गया, जिसे इतिहास में हुरडा सम्मेलन के नाम जाता है। हुरडा सम्मेलन जयपुर के सवाई जयसिंह , बीकानेर के जोरावर सिंह , कोटा के दुर्जनसाल , जोधपुर के अभयसिंह , नागौर के बख्तसिंह, बूंदी के दलेलसिंह , करौली के गोपालदास , किशनगढ के राजसिंह के अलावा के अतिरिक्त मध्य भारत के राज्यों रतलाम, शिवपुरी, इडर, गौड़ एवं अन्य राजपूत राजाओं ने भाग लिया था। हुरडा सम्मेलन की अध्यक्षता किसने की थी- हुरडा सम्मेलन की अध्यक्षता मेवाड महाराणा जगतसिंह द्वितीय ने की। हुरडा सम्मेलन में एक प्रतिज्ञापत्र (अहदनामा) तैयार किया गया, जिसके अनुसार सभी शासक एकता बनाये रखेंगे। एक का अपमान सभी का अपमान समझा जायेगा , कोई राज्य, दूसरे राज्य के विद्रोही को अपने राज्य में शरण नही देगा । वर्षा ऋतु के बाद मराठों के विरूद्ध क
इस घटना के समय जोधपुर महाराजा कौन थे
ReplyDeleteAbahay Singh (Jaswant singh ka pota aur Ajit singh ka beta
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