नाथद्वारा की सन्त "महात्मा भूरी बाई अलख"
"महात्मा भूरी बाई अलख" का जन्म राजसमन्द जिले के लावा सरदारगढ़ गाँव में संवत् 1949 में आषाढ़ शुक्ला 14 को एक सुथार परिवार में हुआ। माता का नाम केसर बाई और पिता का नाम रूपा जी सुथार था। तेरह वर्ष की अल्पायु में भूरी बाई का विवाह नाथद्वारा के एक अधेड़ आयु के धनी चित्रकार फतहलाल जी सुथार के साथ कर दिया गया। इस बेमेल विवाह के नतीजे अच्छे नहीं हुए। कालान्तर में पति का बीमारी से देहान्त हो गया तो भूरीबाई के गृहस्थ जीवन में एक भूचाल आ गया और उनका मन धीरे-धीरे संसार से विरक्त हो कर प्रभु भक्ति की ओर अग्रसर हो गया। साधना और भक्ति के क्षेत्र में उनमें एक ऐसी तीव्र लगन उत्पन्न हो गई कि कई धर्मपरायण लोग उनसे प्रभावित हुए तथा उनके पास सत्संग करने आने लगे। गृहस्थ जीवन में रह कर सभी कर्तव्यों का पालन करते हुए भी दार्शनिक विचारों व भक्ति भावना के कारण वे महात्मा भूरीबाई के नाम से विख्यात हो गई। महात्मा भूरीबाई विचारों से अद्वैत की परम समर्थक थी। भूरीबाई दार्शनिक चर्चा में ज्यादा विश्वास नहीं करती थीं। उनका अपनी भक्त-मंडली में एक ही निर्देश था- ‘‘चुप’’। बस चुप रहो और मन ही मन उसे भजो, उसमें रमो। बोलो मत। ‘चुप’ शब्द समस्त विधियों का निषेध है। बोलने-कहने से विभ्रम पैदा होता है, बात उलझती है और अधूरी रह जाती है। इसीलिए ब्रह्मानन्द को अनिर्वचनीय माना गया है। उसे अनुभव तो किया जा सकता है, पर कहा नहीं जा सकता। ‘भूरी बाई’ सबको कहती ‘‘चुप’’! बोलो मत, उसे ध्याओ, उसमें रमो, उसको भजो! बाकी सब बेकार।महात्मा भूरीबाई कोई मामूली हस्ती नहीं थी। अध्यात्म जगत में भूरीबाई के नाम, उनकी भक्ति और ज्ञान की प्रसिद्धि पाकर ओशो रजनीश जैसे विश्व प्रसिद्ध चिंतक व दार्शनिक भी उनसे मिलने आए थे और भूरीबाई की भक्ति व दर्शन की मुक्त कंठ से प्रशंसा की थी। विख्यात सन्त सनातन देव जी और अनेक दार्शनिक, ज्ञानी, भक्त, महात्मा, कई रियासतों के ठाकुर, अन्य खास व आम लोग बिना बुलाए इस साधारण सी अल्पशिक्षित विधवा से बार-बार सान्निध्य पाकर मार्गदर्शन हेतु आते रहते थे।
मेवाड़ के महान् तत्त्वज्ञानी सन्त बावजी चतुरसिंह जी भी भूरीबाई से चर्चा हेतु आया करते थे। महात्मा भूरीबाई भजन पर जोर देती थी तथा सांसारिक बातों से बचने की सलाह देतीं, लेकिन संसार के सभी कर्तव्यों को पूरा करने का भी आग्रह करती। उनकी चर्चा का माध्यम प्रायः मेवाड़ी बोली ही रहती थी। मेवाड़ी में ही सहज बातचीत करते हुए ही वे ऊंची से ऊंची तत्त्व ज्ञान की बात कह देती थी।
इस विभूति का देहावसान 3 मई 1979 ई., वैशाख शुक्ला 7 संवत् 2036 को हुआ। अध्यात्म जगत में वे आज भी लोकप्रिय है। उनके देहावसान के बाद भी नाथद्वारा स्थित उनके छोटे से आश्रम पर प्रति सप्ताह लोग सत्संग करने आया करते हैं। उदयपुर के डॉ. लक्ष्मी झाला ने महात्मा भूरीबाई के जीवन-दर्शन पर ‘‘सहज साधना सन्त परंपरा के परिप्रेक्ष्य में मेवाड़ की महात्मा भूरी बाई का दार्शनिक विवेचन’’ शीर्षक से शोध करके पुस्तक लिखी है तथा पीएच.डी. प्राप्त की है।
🙏🙏🙏❤️
ReplyDeleteजी सही कहा आपने .. आपका बहुत बहुत आभार धन्यवाद ।।
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