राजा भोज (1010-1050 ई.)
का कुमारकाल
चित्तौडगढ में गुजरा और यहीं पर आरंभिक कृतियों का सजृन किया। यही
पर वास्तु विषयक कृति के प्रणयन के साथ-साथ उन्होंने चित्तौडगढ
में जिस प्रासाद का
निर्माण
करवाया, वह समाधीश्वर प्रासाद है। इसको
समीधेश्वर मंदिर भी कहा जाता है। इसमें शिव की तीन मुंह वाली भव्यतम
प्रतिमा है, अलोरा से शिव के जिस मुखाकृति के भव्य
प्रासाद का क्रम
चला, उसी की भव्यता यहां देखने को मिलती है। इनके
शिल्पियों में वे शिल्पीगण
थे, जिनका संबंध अलोरा के विश्वकर्मा प्रासाद
से रहा है। इन्हीं में एक शिल्पधनी थे उषान्, उन्हीं से प्रेरित होकर भोज ने स्थापत्य कार्य को आगे बढाया, लिखित भी और उत्खचित रूप में भी। (डॉ. श्रीकृष्ण ‘जुगनू’ द्वारा संपादित, अनुदित
समरांगण सूत्रधार की भूमिका, पेज 14)
समीधेश्वर प्रासाद बहुत भव्य बना हुआ है, खासकर उसकी बाह्य भित्तियों का अलंकरण तत्कालीन
समाज और संस्कृति को जानने के लिए पुख्ता आधार लिए हुए हैं, वाहन, अलंकरण, खान-पान, परिधान, व्याख्यान, राजकीय यात्रा, सत्संग, चर्चा, आयुध, मल्ल क्रीडा-धनुर्वेद आदि सभी कुछ इन
प्रतिमाओं में दिखाई देगा।
इसी मंदिर में चालुक्य राजा कुमारपाल का शिलालेख है और एक अभिलेख महाराणा मोकल का है। महाराणा मोकल (निधन 1433 ई.) को इस जीर्ण मंदिर के जीर्णोद्धार का
श्रेय है। महाराणा कुंभाकालीन 'एकलिंग माहात्म्य' के एक श्लोक में मोकल
के इस योगदान का स्मरण किया गया है और कहा गया है कि उन्होंने इस मंदिर में जीर्णोद्धार के बाद मणि तोरण
लगवाया था –
नृप समाधीश्वर सिद्धतेजा: समाधिभाजां परमं रहस्यम्।
आराध्य तस्यालयमुद्धार श्रीचित्रकूटे मणितोरणांकम्।।
इससे पहले भी इसका जीर्णोद्धार
हुआ था जिसके
दो शिल्पियों के आरेखन बाहर छतरियों पर बने हुए हैं। कुंभा के समय प्रासादों
के निर्माण से पूर्व यही प्रासाद यहां के राजाओं के लिए आराध्य स्वरूप था। यह इस काल की अनोखी परंपरा थी कि
शिल्पियों का आरेखन होता था, बाद में भी यह रही।
एकलिंग
माहात्म्य से ज्ञात होता है कि मोकल ने यहीं
पर तीर्थों का ऋणमोचन, पापमोचन करने का संकल्प किया और सुंदर कुंड
का निर्माण
करवाया था, यही कुंड ‘गोमुख कुंड’ के नाम से ख्यात है, यहाँ त्रिजगती का अलंकरण
भी करवाया, यह आज खंडित रूप में है। यह जगती भी भोजराज
ने बनवाई थी। एक अभिलेख में भी यह जिक्र आया है। इस
समाधीश्वर के प्रासाद से ही प्रासादों की चित्रकूट शैली का प्रवर्तन हुआ
जिसे शिल्प ग्रंथों में वर्णित किया गया है, यह वर्णन दक्षिण में रचित 'ईशान शिवगुरुदेव पद्धति' में भी मिलता है।
-डॉ.
श्रीकृष्ण ‘जुगनू’
सादर प्रणाम ।
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