नई दिल्ली के प्रगति मैदान में आयोजित किये गए 34वें अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार मेले के राजस्थान मण्डप में प्रदेश के विभिन्न सिद्धहस्त शिल्पियों के साथ ही ‘थेवा-कला’ से बने आभूषण इन दिनों व्यापार मेला में दर्शकों विशेषकर महिलाओं के लिये विशेष आकर्षण का केन्द्र बने। राजस्थान मण्डप में प्रदेश के एक से बढ़कर एक हस्तशिल्पी अपनी कला से दर्शकों को प्रभावित किया, लेकिन थेवा कला से बनाये गये आभूषणों की अपनी अलग ही पहचान है। शीशे पर सोने की बारीक मीनाकारी की बेहतरीन ‘थेवा-कला’ विभिन्न रंगों के शीशों (काँच) को चांदी के महीन तारों से बनी फ्रेम में डालकर उस पर सोने की बारीक कलाकृतियां उकेरने की अनूठी कला है, जिन्हें कुशल और दक्ष हाथ छोटे-छोटे औजारों की मदद से बनाते हैं। पीढ़ी दर पीढ़ी चलने वाली इस कला को राजसोनी परिवार के पुरूष सीखते हैं और वंश परंपरा को आगे बढ़ाते हैं। इसी ‘थेवा-कला’ से बने आभूषणों का प्रदर्शन व्यापार मेला में ’’ज्वैल एस इंटरनेशनल‘‘ द्वारा किया गया, जिसने मण्डप में आने वाले दर्शकों को अपनी ओर लगातार खींचा।
थेवा कला की शुरूआत लगभग 300 वर्ष पूर्व राजस्थान के नये जिले प्रतापगढ़ में हुई थी, जो कि चित्तौड़गढ़ एवं उदयपुर के पास है। बताया जाता है कि 1707 में नाथूलाल सोनवाल ने सबसे पहले इस शैली की शुरूआत की जो कि एक सुनार का कार्य करते थे। सन् 1765 में महाराजा सुमंत सिंह ने इस कला को प्रोत्साहन देने के लिये नाथूलाल सोनवाल के परिवार को एक जागीर देते हुए उन्हें राजसोनी की उपाधि प्रदान की। तभी से नाथूलाल के परिवार का इस तकनीक पर एकाधिकार हो गया। इस शिल्पकला से सोने पर नक्काशी कर भारत का दौरा करने वाली ब्रिटिश महिलाओं के लिए बेच दिया गया जिन्हें स्मृति चिन्ह के रूप में यूरोप के लिये ले जाया गया।
इस प्रकार इस शिल्प कला का ब्रिटिश बाजार के लिये रास्ता खुल गया और यूरोपीय गहनों में भी थेवा कला के काम को अपनी विशिष्टता प्राप्त हो गयी। मान्यता है कि 250 वर्ष पुराने कुछ टुकड़े अभी भी महारानी एलिजाबेथ के संग्रह में देखे जा सकते हैं।
इस तकनीक का स्थानीय नाम थेवा है जिसका अर्थ है ’’सेटिंग’’। इस बेजोड़ ‘थेवा कला’ को जानने वाले देश में अब गिने चुने परिवार ही बचे हैं। ये परिवार प्रतापगढ़ जिले में रहने वाले ‘राज सोनी घराने’ के हैं। ऐसा नहीं है कि थेवा कला का प्रयोग केवल आभूषणों में ही हो रहा हो। इस शिल्प कला से सजावटी वस्तुएं जैसे- ट्रे, थाली, फोटो फ्रेम, दीवार की घड़ी, ऐशट्रे, टाई पिन, साड़ी पिन (ब्राउच), कफ लिंक्स, सिगरेट के बक्से, कार्ड बॉक्स, इत्र की शीशी के साथ ही आभूषणों में दिल के आकार के पेनडेन्ट्स, गले के हार, कंगन, झुमके, टॉप्स, हाथ के कड़े आदि बनाये जाते हैं। थेवा शैली से बने आभूषणों एवं कलाकृत्तियों को उनके उत्कष्ट कारीगरी के लिये राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर पुरस्कार मिले हैं।
इस अति सुंदर और अनूठी कला को प्रोत्साहित करने के लिए भारत सरकार द्वारा वर्ष 2004 में एक डाक टिकट जारी किया गया था। राजस्थान मण्डप में लगाये गये स्टाल्स के प्रबंधक ने बताया कि थेवा कला को बढ़ावा देने के लिये 1966 के बाद से अभी तक दस राष्ट्रीय पुरस्कार दिये जा चुके हैं और 2009 में थेवा कला को राजीव गांधी राष्ट्रीय एकता सम्मान से नवाजा जा चुका है। थेवा कला का नाम नई दिल्ली से प्रकाशित ''इंडिया बुक ऑफ रिकार्डस-2015'' में भी दर्ज किया गया है। पुस्तक के मुख्य सम्पादक डॉ. विश्वास चौधरी और प्रबंध सम्पादक श्री मनमोहन सिंह रावत है । इससे पूर्व थेवा कला का नाम ''लिम्का बुक ऑफ रिकार्ड्स-2011'' में भी दर्ज है। साथ ही भारत सरकार द्वारा, थेवा कला की प्रतिनिधि संस्था ‘राजस्थान थेवा कला संस्थान’ प्रतापगढ़ को इस बेजोड़ कला के संरक्षण में विशेषीकरण के लिए वस्तुओं का भौगोलिक उपदर्शन (रजिस्ट्रीकरण तथा सरंक्षण) अधिनियम, 1999 के तहत ‘‘ज्योग्राफिकल इंडीकेशन संख्या का प्रमाण-पत्र’’ प्रदान किया गया है। ज्योग्राफिकल इंडीकेशन संख्या का प्रमाण-पत्र किसी उत्पाद को उसकी स्थान विशेष में उत्पत्ति एवं प्रचलन के साथ विशेष भौगोलिक गुणवत्ता एवं पहचान के लिए दिया जाता है।
इस कला में पहले काँच पर सोने की शीट लगाकर उस पर बारीक जाली बनाई जाती है, जिसे ‘थारणा’ कहा जाता है। दूसरे चरण में कांच को कसने के लिए चांदी के बारीक तार से बनाई जाने वाली फ्रेम का कार्य किया जाता है, जिसे ‘वाडा’ बोला जाता है। तत्पश्चात इसे तेज आग में तपाया जाता है। फलस्वरूप शीशे पर सोने की कलाकृति और खूबसूरत डिजाईन उभर कर एक नायाब और लाजवाब कृति का आभूषण बन जाती है।
इन दोनों प्रकार के काम और शब्दों "थारणा" और "वाडा" से मिलकर ‘थेवा’ नाम की उत्पत्ति हुई है। प्रारम्भ में ‘थेवा’ का काम लाल, नीले और हरे रंगों के मूल्यवान पत्थरों हीरा, पन्ना आदि पर ही उकेरी जाती थी, लेकिन अब यह कला पीले, गुलाबी और काले रंग के कांच के बहुमूल्य रत्नों पर भी उकेरी जाने लगी है। प्रारंभ में थेवा कला से बनाए जाने वाले बॉक्स, प्लेट्स, डिश आदि पर लोककथाएं उकेरी जाती थी लेकिन अब यह कला आभूषणों के साथ-साथ पेंडल्स, इयर-रिंग, टाई और साड़ियों की पिन कफलिंक्स, फोटोफ्रेम आदि फैशन में भी प्रचलित हो गई है।
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ReplyDeleteSir very nice article I am hitesh rajsoni thewa artist from the rajsoni family and UNESCO seal of excellence award 2004 winner sir please visit our website www.originalthewaart.com
ReplyDeleteThanks, Hitesh Rajsoni ji for appreciating the article.
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