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भारतीय मूर्तिकला का गांधार स्कूल


  • गांधार-कला प्रथम शताब्दी से लेकर चतुर्थ शताब्दी र्इसवीं तक भारत के उत्तर पश्चिमी भाग में विकसित एवं विस्तृत हुई कला का प्रतिनिधित्व करती है। इस स्कूल की कला-गतिविधियों का मुख्य केन्द्र इस क्षेत्र के साम्राज्य, यथा बैकिट्रया, कपिशा, स्वात एवं गांधार थे।
  • गांधार शैली हेलेनिसिटक रोमन, र्इरानी एवं देशज कला का एक मिश्रण थी।
  • इसकी अनेक सर्जनात्मक विशेषताएँ रोमन मृत्यु सम्बन्धी कला से रूपान्तरित है जबकि इसकी दैवी विशेषताएँ एवं श्रृंगारात्मक तत्वों को हेलेनिस्टक एवं र्इरानी मूलों से ली गई है।
  • कलात्मक अवयवों का यह अन्तर्सम्बन्ध मुख्यत: क्षेत्र की भौगोलिक स्थिति के कारण था जो सांस्कृतिक आदान-प्रदान के चौराहे पर था।
  • इस क्षेत्र ने यूनानी वैकिट्रयार्इ से लेकर कुषाण तक अनेक विदेशी शक्तियों एवं राजनीतिक समाकृतियों के उदभव का दर्शन किया।
  • गांधार स्कूल में प्रयुक्त मुख्य सामग्री धातु थी, यथा शाह जी की ढेरी (धोरी) से प्राप्त कनिष्क पात्र में स्वर्ण प्रयुक्त हुआ है।
  • इस शैली में जहाँ कहीं भी प्रस्तर प्रयुक्त हुआ वह प्राय: नीला अथवा धूसर स्तरित चट्टान और स्लेट है।
  • यह शैली शरीर आकृति, वस्त्र-विन्यास, एवं चित्रात्मक भाव में नैसर्गिक है।
  • ढाँचों को मानव-आकृति की पूर्णता पर विशेष बल देते हुए शास्त्रीय परम्परा के अनुरूप बनाया गया है। अतएव वे प्राय: जवान एवं मजबूत दर्शाए गए हैं।
  • नर-आकृति पेशी पुष्ट एवं चौकोर ड़ के साथ दर्शायी गयी है।
  • तीक्ष्ण लहरदार तहों के साथ वस्त्र-विन्यास का चित्रण वैसा ही है जैसा कि रोमन चोगो में देखा जाता है और यह इस कला की वैसी ही एक विशिष्ट विशेषता है जैसा कि घुंघराले बाल का गुच्छा एवं तीक्ष्ण आकृति
  • इस स्कूल की मूर्तिकलाएँ सामान्यत: सुविचारित मूर्ति-वैज्ञानिक प्रणाली अथवा योजना के साथ वास्तुशिल्पीय सन्दर्भों के अंग के रूप में पायी जाती हैं।
  • यहाँ रचना, आकृतियों की मुद्रा तथा बुद्ध के जीवन की अन्य घटनाओं का मानकीकरण होता है जो यह संकेत करता है कि मूर्तिकार एक स्थापित मूर्तिवैज्ञानिक प्रणाली का अनुसरण कर रहे थे।
  • इस अवधि की अधिकांश मूर्तियाँ बौद्ध हैं, हालाँकि कुछ हेलिनिसिटक मूर्तियां भी बची हुर्इ हैं।
  • खड़ी बुद्ध प्रतिमाएँ इस शैली का अत्यधिक विशिष्ट लक्षण है। इन प्रतिमाओं की मुद्रा, वस्त्र, लक्षण एवं अन्य विशिष्टताओं में एकरूपता है। बुद्ध को सामान्यत: आगे से एक पैर झुका हुआ खड़ा चित्रित किया जाता था। उन्हें दोनों कंधों को आवृत किए हुए भारी चीवर (चोंगा) पहने हुए तथा उनके दाँये हाथ को लटकता हुआ दिखाया गया है। किन्तु उनका दाँया हाथ अभय अथवा वरद मुद्रा में ऊपर उठा हुआ है। सिर पर एक उष्णीश है। 
  • वे किसी अन्य आभूषण से अलंकृत नहीं है, तथापि उनकी लम्बी कर्ण-पालि यह संकेत देती है कि वे राजकुमार के रूप में भारी आभूषण अवश्य पहनते थे। सिर के पीछे कमल के साथ आभामण्डल देखा जा सकता है। 
  • बैठी हुर्इ बुद्ध प्रतिमा धर्मचक्र मुद्रा में प्रदर्शित हैं जो उपदेश देने का संकेत हैं अथवा ध्यान मुद्रा में है जो समाधि का धोतक है।
  •  गांधार क्षेत्र से प्राप्त प्रतिमाओं में से बोधिसत्त्व की मूर्तियाँ एक अन्य महत्वपूर्ण संवर्ग है।
  • ये महासत्त्व बोधिसत्त्व का प्रतिनिधित्व करते हैं जो बोधिसत्त्वत्व की पूर्णता को प्रस्तुत करता है अर्थात बुद्धत्त्व एवं बुद्ध-रूप इस क्षेत्र में प्रचलित महायान बौद्ध-धर्म का अत्यधिक महत्वपूर्ण तत्त्व है।
  • ये नर आकृतियां खड़ी एवं बैठी हुर्इ तथा धोती जैसे अधो-वस्त्र पहने हुए प्रदर्शित की गयी हैं, कंधे के ऊपर शाल जैसे वस्त्र की लम्बार्इ के अलावे ड़ नग्न हैं, केश-विन्यास ज्यादातर कंधे पर गिरते हुए घुंघराले बाल से अलंकृत है।
  • इस क्षेत्र की बुद्ध प्रतिमाओं के सदृश उनके ललाट पर उर्ण और पृष्ठ में आभामण्डल के साथ सिर के ऊपर उष्णीष है। उन्हें चप्पल पहने हुए दर्शाया गया है और कभी-कभी वे बुद्ध के सदृश मुँछ रख सकते हैं।
  • विशिष्ट बोधिसत्त्व अपने लक्षणों, संकेतों तथा सिरोवस्त्र से पहचाने जाते हैं। एक उदाहरण प्रेम के प्रतीक मैत्रय हैं, जिन्हें एक कलश पकड़े हुए दर्शाया गया है।
  •  प्रतिमाओं को सामान्यत: प्रचुर आभूषण एवं ताज से अलंकृत राजपुरुषों के रूप में चित्रित किया गया है। ग्रीक-रोमन परम्पराओं से प्रभावित वे पूर्ण एवं यथार्थ अनुपात में हष्ट-पुष्ट प्रदर्शित किये गये हैं।
  •  गांधार कला में जातक तथा शाक्यमुनि के जीवन के तुषितावस्था से संबंधित विवरणात्मक फलक भी पाये गए हैं। उनमें सम्बोधी और उसके बाद के क्षण पर्याप्त उदारता के साथ चित्रित हैं।
  • ये विवरण बौद्ध-धर्म साहित्य और अश्वघोष के बुद्धचरित जैसे जीवन-सम्बन्धी ग्रन्थों पर आधारित हैं।
  • शाल-वृक्ष के नीचे माया देवी (उनकी माँ) के गर्भ से बुद्ध का जन्म, बुद्ध की सम्बोधी, मार-विजय कुछ ऐसे विषय हैं जो गांधार कला में लोकप्रिय हैं। 
  • प्राकृतिक अनुपात, माप एवं मुद्रा चित्रित किये जाने के लिए महत्वपूर्ण हैं और माप के अनुक्रम के माध्यम से केन्द्रीय एवं महत्वपूर्ण प्रतिमाओं पर बल देने के लिए संयोजन का प्रयोग किया गया है अर्थात अधिक महत्वपूर्ण प्रतिमा की आकृति सबसे अधिक बड़ी होगी।
  • स्वर्ग का चित्रण गांधार कला की महत्वपूर्ण विशेषताओं में से एक है, यथा सुखावति जो कुषाणकाल में उत्तर-पश्चिम भारत में प्रचलित बौद्ध-धर्म के अन्तर्गत स्वर्ग प्रथा का अंग है।
  • यह प्रथा इस विश्वास पर केन्द्रित है कि प्रत्येक उपासक पुण्य के संचयन के माध्यम से उस स्वर्ग में उत्पन्न होने का अभिलाषी है, जहां वह निर्वाण की प्राप्ति तक बिना पुनर्जन्म एवं आवागमन के रह सके।
  • बुद्ध एवं बोधिसत्त्व के अतिरिक्त सेवक देवताओं की भी रचना की गर्इ है, यथा कुबेर-पंचिका एवं हरिति।
  • इनमें से प्रथम को थोड़ा स्थूलकाय राजपुरुष के रूप में दर्शाया गया है जबकि परवर्ती को उनके चारों ओर बच्चों के साथ दर्शाया गया है।
  • द्राक्षासव एवं सुरापान करते व्यक्तियों को दर्शानेवाला मद्यपानोत्सत्त्व दृश्य अपने चित्रण में विशेष रूप से उत्कृष्ट हैं।
  • प्रस्तर के अतिरिक्त, गच की कुछ मूर्तियाँ, विशेषकर यूनानी (ग्रीक) एवं रोमन देवताओं एवं राजकुमारों की अर्द्ध-प्रतिमा गांधार कला का आवश्यक अंग हैं।  आश्चर्यजनक रूप से ये लाल एवं काले रंग से चित्रित हैं। लाल रंग का प्रयोग ओष्ठ के लिए तथा काले रंग का प्रयोग आँखों एवं बाल के लिए किया गया है।
  • मूर्तियों के तक्षण के लिए एक अन्य माध्यम हाथी-दाँत था जिसकी पुष्टि कपिशा क्षेत्र में बेग्राम से प्राप्त बड़े समूह से होती है।
  • धर्म निरपेक्ष राजमहल परिक्षेत्र में प्राप्त साज-सज्जा की अनेक वस्तुएँ यह प्रदर्शित करती है कि यह शैली धार्मिक प्रतिमाओं के उत्पादन तक सीमित नहीं थीं अपितु क्षेत्र की सांस्कृतिक बुनावट में रची-बसी थी।
  • शास्त्रीय एवं देशज शैली के मिश्रण के लिए बेग्राम हाथी-दांत भी रोचक हैं।
  • सभी प्रकार की उत्तेजक मुद्राओं में नारी-प्रतिमाओं की प्रचुरता मथुरा के रेलिंग स्तंभों पर पायी गई यक्षी शालभंजिकाओं की काफी याद दिलाती है।
  • गांधार शैली भारतीय कला को प्रारंभिक मध्य-काल तक प्रभावित करता रहा जैसा कि कश्मीर एवं हिमाचल प्रदेश के भागों में देखा जाता है।

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