राजस्थान के महान कवि सूर्यमल्ल मिश्रण (या मीसण) का जन्म चारण जाति में बूंदी जिले के हरणा गांव में कार्तिक कृष्णा प्रथम वि. सं. 1872 को हुआ था। उनके पिता का नाम चंडीदान तथा माता का नाम भवानी बाई था। उनके पिता अपने समय के प्रकांड विद्वान तथा प्रतिभावान कवि थे। बूँदी के तत्कालीन महाराज विष्णु सिंह ने इनके पिता कविवर चंडीदान को एक गाँव, लाखपसाव तथा कविराजा की उपाधि प्रदान की थी। बूंदी के राजा राम सिंह उनका बड़ा सम्मान करते थे। चंडीदान ने बलविग्रह, सार सागर एवं वंशाभरण नामक अत्यंत महत्त्व के तीन ग्रंथों की रचना की। सूर्यमल्ल मिश्रण का जन्म जिस समय हुआ उस समय राजस्थान में राजपूत युग की आभा लगभग ढल चुकी थी। वीर दुर्गादास का समय बीत चुका था। सवाई जयसिंह, अजीत सिंह, अभय सिंह आदि ने अपने काल में राजपूती वैभव के लिए प्रयास किये थे, किन्तु मिश्रण के जन्म के समय उनका भी वक़्त बीत चुका था। उस समय राजस्थान मराठों के आक्रमण से त्रस्त था और अमीर खां जैसे व्यक्तियों के दुराचारों से त्राहि-त्राहि कर रहा था। यहाँ के राजा आपसी वैमनस्य और अन्य अनियमित व्यवहारों से अपना ओज व तेज खो चुके थे। इसी अवसर का फायदा उठाते हुए अंग्रेजों ने दो-तीन सालों में ही राजस्थान पर अपना अधिकार कर लिया। राजस्थान के राजपूत सरदार अपनी वीरता और साहस को भूल चुके थे। ऐसे समय में सूर्यमल्ल मिश्रण का उदय हुआ। वे बचपन से ही कुशाग्र बुद्धि एवं स्मरण शक्ति से संपन्न थे। इस महान कवि ने बाल्यकाल से ही कई विद्याओं का गहन ज्ञान प्राप्त कर लिया। उन्होंने स्वरूपानंद से योग, वेदान्त, न्याय, वैशेषिक साहित्य आदि की शिक्षा प्राप्त की। आशानन्द से उन्होंने व्याकरण, छंदशास्त्र, काव्य, ज्योतिष, अश्ववैधक, चाणक्य शास्त्र आदि की शिक्षा प्राप्त की तथा मुहम्मद से फ़ारसी तथा एक अन्य यवन से उन्होंने वीणा-वादन सीखा। इस प्रकार सूर्यमल्ल मिश्रण को प्रारंभ से ही शैक्षिक, साहित्यिक और ऐतिहासिक वातावरण मिला। इससे उनमें विद्या, विवेक एवं वीरता का अनोखा संगम प्रस्फुटित हुआ। उनके जीवनकाल में उनके काव्य का प्रसार सम्पूर्ण राजस्थान एवं मालवा में हो चुका था। उनकी विद्वता तथा सत्यवक्ता व्यक्तित्व की धाक चहुँ ओर फ़ैल चुकी थी। बुद्धिजीवी समाज और राजदरबार में उनका अत्यंत सम्मान था। उन्हें बूंदी के पांच रत्नों में गिना जाता था। उनके द्वारा लिखे गए वीरता एवं ओज से परिपूर्ण गीत जनमानस द्वारा गाए जाते थे तथा इनसे राजा-महाराजा तथा राजपूत सरदार प्रेरणा प्राप्त करते थे। वे सदैव सत्य का समर्थन करते थे तथा सत्य के लिए उन्होंने बड़े से बड़े प्रलोभन को ठुकरा दिया। फलतः उनका 'वंशभास्कर' ग्रन्थ भी अधूरा रह गया जिसे बाद में उनके दत्तक पुत्र मुरारीदान ने पूर्ण किया। इस ग्रन्थ में उनकी मृत्यु की तिथि वि.सं. 1905 आषाढ़ शुक्ला एकादशी लिखी है जिसे बाद में किसी कवि ने जोड़ दिया होगा। जीवनकाल में उनकी ख्याति इतनी विस्तृत हो गई कि बड़े-बड़े राजा, प्रतिष्ठित कवि एवं विद्वान उनके दर्शन को लालायित रहते थे। ये सब उनकी सत्यप्रियता और विद्वता के फलस्वरुप था, इसमें किसी प्रकार का स्तुतिपरक कार्य नहीं था। उनकी सत्यनिष्ठता इतनी प्रगाढ़ थी कि वे अपने आश्रयदाता की कमियाँ और दोष बताने में भय नहीं करते थे। कहा जाता है कि बूंदी के महाराव रामसिंह ने सूर्यमल्ल मिश्रण से अपने वंश का इतिहास 'वंशभास्कर' लिखने के लिए कहा तो वे इस शर्त के साथ राजी हुए कि जो सही होगा वही लिखा जायेगा, परन्तु महाराव के दोषों का वर्णन करने के कारण दोनों में मन-मुटाव हो गया, जिससे ये 'वंशभास्कर' अधूरा ही रह गया। सूर्यमल मिश्रण वस्तुत: राष्ट्रीय-विचारधारा तथा भारतीय संस्कृति के पुरोधा रचनाकार थे। उनको आधुनिक राजस्थानी काव्य के नवजागरण का पुरोधा कवि माना जाता है। उन्होंने अपनी रचनाओं के माध्यम से मातृभूमि के प्रति प्रेम, आज़ादी हेतु सर्वस्व लुटा देने की भावना का विकास करने तथा राजपूतों में विस्मृत हो चुकी वीरता की भावना को पुनः जागृत करने का कार्य किया। जब 1857 का स्वाधीनता संघर्ष प्रारंभ हुआ तो उसमें तीव्रता व वीरता पोषित करने में इस कवि की रचनाओं का अत्यंत महत्त्वपूर्ण योगदान रहा। बूँदी के इस साहित्यकार सूर्यमल्ल मिश्रण ने अपनी कृतियों अथवा पत्रों के माध्यम से गुलामी करने वाले राजपूत शासकों को धिक्कारा है। उन्होंने पीपल्या के ठाकुर फूलसिंह को लिखे एक पत्र में राजपूत शासकों को गुलामी करने की मनोवृत्ति की कटु आलोचना की थी। राजस्थान में वीरता पोषित करने के कारण सूर्यमल्ल मिश्रण के विचारों एवं रचनाओं को ''राजस्थान में राष्ट्रीयता की संवृद्धि का सर्वप्रथम प्रेरक'' माना जाता है। वीरता के संपोषक इस वीररस के कवि को 'वीर रसावतार' कहा जाता है। महाकवि सूर्यमल्ल की प्रतिभा और विद्वता का पता तो इस बात से ही चल जाता था है कि मात्र 10 वर्ष की अल्पायु में ही उन्होंने 'रामरंजाट' नामक खंड-काव्य की रचना कर दी थी। सूर्यमल्ल मिश्रण के प्रमुख ग्रन्थ 'वंशभास्कर' एवं 'वीर सतसई' सहित समस्त रचनाओं में चारण काव्य-परम्पराओं की स्पष्ट छाप अंकित है। वे चारणों की मिश्रण शाखा से संबद्ध कवि थे। राजस्थान में अत्यंत लोकप्रिय, मान्य एवं यशस्वी कृति 'वंशभास्कर' उनकी कीर्ति का आधार ग्रन्थ था। कुछ इतिहासकार इसे ऐतिहासिक दृष्टि से पृथ्वीराज रासो से भी अधिक महत्त्वपूर्ण मानते हैं। सहित्यिक दृष्टि से इस ग्रन्थ की गणना 19 वीं सदी के महाभारत के रूप की जाती है। अधूरा होते हुए भी यह अत्यंत विस्तृत ग्रन्थ लगभग तीन हजार पृष्ठों का है। संभवतया इससे बड़ा ग्रन्थ हिंदी में दूसरा कोई नहीं है। इस कृति में मुख्यत: बूँदी राज्य का इतिहास वर्णित है, किंतु प्रसंगानुसार अन्य राजस्थानी रियासतों के राजाओं, वीरों तथा प्रमुख ऐतिहासिक घटनाओं का भी वर्णन इसमें किया गया है। इस पिंगल काव्य रचना में बूँदी राज्य के विस्तृत इतिहास के साथ-साथ उत्तरी भारत का इतिहास तथा राजस्थान में मराठा विरोधी भावना को भी पोषित एवं संवर्धित किया गया है। युद्ध-वर्णन की जैसी सजीवता इस ग्रंथ में है, वैसी अन्यत्र दुर्लभ है। राजस्थानी साहित्य के अत्यंत चर्चित इस ग्रंथ की टीका कृष्णसिंह बारहठ ने की है। सूर्यमल्ल मिश्रण का वीर सतसई ग्रन्थ को भी राजस्थान में स्वाधीनता के लिए वीरता की उद्घोषणा करने वाला अपूर्व ग्रन्थ माना जाता है। अपने इस ग्रन्थ के पहले ही दोहे में वे ‘समे पल्टी सीस‘ का घोष करते हुए अंग्रेजी दासता के विरूद्ध विद्रोह के लिए उन्मुख होते हुए प्रतीत होते हैं। यह सम्पूर्ण कृति वीरता का पोषण करने तथा मातृभूमि की रक्षा के लिए मरने मिटने की प्रेरणा का संचार करती है। मिश्रण की 'वीरसतसई' भी राजपूती शौर्य के चित्रण तथा काव्य-शास्त्र की दृष्टि से उत्कृष्ट रचना है।
सूर्यमल्ल मिश्रण के मुख्य ग्रन्थ-
1. वंशभास्कर
2. वीर सतसई
3. धातु रूपावली
4. बलवद विलास (बलवंत विलास)
5. रामरंजाट
6. छन्दोभमूल (छंद-मयूख)
7. रातिरासो
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Deleteमहान कवि को कोटिशः नमन ..
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