Skip to main content

Maharana Kumbha and his political achievements - महाराणा कुम्भा एवं उनकी राजनीतिक उपलब्धियाँ -

महाराणा कुम्भा एवं उनकी राजनीतिक उपलब्धियाँ -


महाराणा कुम्भा राजपूताने का ऐसा प्रतापी शासक हुआ है, जिसके युद्ध कौशल, विद्वता, कला एवं साहित्य प्रियता की गाथा मेवाड़ के चप्पे-चप्पे से उद्घोषित होती है। महाराणा कुम्भा का जन्म 1403 ई. में हुआ था। कुम्भा चित्तौड़ के महाराणा मोकल के पुत्र थे। उसकी माता परमारवंशीय राजकुमारी सौभाग्य देवी थी। अपने पिता चित्तौड़ के महाराणा मोकल की हत्या के बाद कुम्भा 1433 ई. में मेवाड़ के राजसिंहासन पर आसीन हुआ, तब उसकी उम्र अत्यंत कम थी। कई समस्याएं सिर उठाए उसके सामने खड़ी थी। मेवाड़ में विभिन्न प्रतिकूल परिस्थितियाँ थी, जिनका प्रभाव कुम्भा की विदेश नीति पर पड़ना स्वाभाविक था। ऐसे समय में उसे प्रतिदिन युद्ध की प्रतिध्वनि गूँजती दिखाई दे रही थी। उसके पिता के हत्यारे चाचा, मेरा (महाराणा खेता की उपपत्नी का पुत्र) व उनका समर्थक महपा पंवार स्वतंत्र थे और विद्रोह का झंडा खड़ा कर चुनौती दे रहे थे। मेवाड़ दरबार भी सिसोदिया व राठौड़ दो गुटों में बंटा हुआ था। कुम्भा के छोटे भाई खेमा की भी महत्वाकांक्षा मेवाड़ राज्य प्राप्त करने की थी और इसकी पूर्ति के लिए वह मांडू (मालवा) पहुँच कर वहाँ के सुल्तान की सहायता प्राप्त करने के प्रयास में लगा हुआ था। उधर दिल्ली सल्तनत भी फिरोज तुगलक के बाद कमजोर हो गई थी और 1398 ई. में तैमूर आक्रमण से दिल्ली की केन्द्रीय शक्ति पूर्ण रूप से छिन्न-भिन्न हो गई थी। दिल्ली के तख़्त पर कमजोर सैय्यद आसीन थे, जिससे विरोधी सक्रिय हो गए थे। फलत: दूरवर्ती प्रदेश जिनमें जौनपुर, मालवा, गुजरात, ग्वालियर व नागौर आदि स्वतंत्र होकर, शक्ति एवं साम्राज्य प्रसार में जुट गए थे। इस प्रकार के वातावरण को अनुकूल बनाने के लिए कुम्भा ने अपना ध्यान सर्वप्रथम आतंरिक समस्याओं के समाधान की ओर केन्द्रित किया। उसने अपने पिता के हत्यारे को सजा देना जरूरी था, जिसमें उसे मारवाड़ के राव रणमल राठौड़ की तरफ से पूर्ण मदद मिली। परिणामस्वरुप चाचा व मेरा की मृत्यु हो गई। चाचा के लड़के एक्का तथा महपा पँवार को मेवाड़ छोड़कर मालवा के सुल्तान के यहाँ शरण लेनी पड़ी। इस प्रकार कुम्भा ने अपने प्रतिद्वंदियों से मुक्त होकर सीमाओं की सुरक्षा की ओर ध्यान केन्द्रित किया। वह महाराणा मोकल की मृत्यु का लाभ उठा कर मेवाड़ से अलग हुए क्षेत्र को पुनः अपने अधीन करना चाहता था। अत: इसके लिए उसने विभिन्न दिशाओं में विजय-अभियान शुरू किया।

बूँदी विजय अभियान -



उस समय राव बैरीसाल अथवा भाण बूँदी का शासक था। कुम्भा बूँदी के हाड़ा शासकों का मेवाड़ से तनावपूर्ण संबंध हो गया था। राव बैरीसाल ने मेवाड़ के माँडलगढ़ दुर्ग सहित ऊपरमाल के क्षेत्र पर अधिकार कर लिया था। अत: कुम्भा ने 1436 ई. में इन स्थानों को पुनः प्राप्त करने के लिए बूँदी के राव बैरीसाल के विरुद्ध सैनिक अभियान प्रारंभ किया। जहाजपुर के समीप दोनों ही सेनाओं में गंभीर युद्ध हुआ, जिसमें बूँदी की हार हुई। बूँदी ने मेवाड़ की अधीनता स्वीकार कर ली। मांडलगढ़, बिजौलिया, जहाजपुर एवं पूर्वी-पठारी क्षेत्र मेवाड़-राज्य में मिला लिए।

गागरोन विजय अभियान -



इसी समय कुम्भा ने मेवाड़ के दक्षिण पूर्वी भाग में स्थिति गागरोन-दुर्ग पर आक्रमण कर उसे अपने अधिकार में कर लिया।

सिरोही विजय अभियान -



सिरोही के शासक शेषमल ने कुम्भा के पिता मोकल की मृत्यु के पश्चात् उत्पन्न अव्यवस्थाओं का लाभ उठाते हुए मेवाड़ राज्य की सीमा के अनेक गाँवों पर अधिकार कर लिया था। तब कुम्भा ने डोडिया नरसिंह के सेनापतित्व के रूप में वहाँ सेना भेजी। नरसिंह ने अचानक आक्रमण कर (1437 ई.) आबू तथा सिरोही राज्य के कई हिस्सों को जीत लिया। शेषमल ने आबू को पुनः जीतने के प्रयास में गुजरात के सुल्तान से भी सहायता ली किन्तु असफलता ही हाथ लगी। कुम्भा की आबू विजय का बड़ा महत्व है। गोडवाड़ पहले से ही मेवाड़ के अधीन था, अतः इसकी रक्षा के लिए बसंतगढ़ और आबू को मेवाड़ में मिलाना जरूरी था।

मारवाड़ से संबंध-





जैसा कि पहले बताया जा चुका है कि कुम्भा की बाल्यावस्था को देखकर मंडोर (मारवाड़) के रणमल मेवाड़ चला आया था। कुम्भा के प्रतिद्वंदियों को समाप्त करने में उसका विशेष योगदान रहा। इसीलिए उसका मेवाड़ में प्रभाव दिन-प्रतिदिन बढ़ता जा रहा था। डे का मानना है कि मेवाड़ की परिस्थितियों का लाभ उठा उसने अपने आपको यहाँ पर प्रतिष्ठित करना चाहा। इसके लिए उसने अपनी बहन और कुम्भा की दादी मां हंसा बाई के प्रभाव का पूरा-पूरा लाभ उठाने का प्रयास किया। उसने विभिन्न महत्वपूर्ण पदों पर मारवाड़ के राठौड़ों को नियुक्त कर दिया, जिससे मेवाड़ के सामंत उसके विरोधी हो गए। ओझा के अनुसार चूंडावत राघव देव को उसने जिस अमानवीय ढंग से वध करवा दिया जिससे महाराणा कुम्भा के मन में उसके प्रति संदेह उत्पन्न हो गया तथा महाराणा उसके प्रभाव से मुक्त होना चाहते थे किन्तु अपने पिता का मामा होने के कारण उसे कुछ कहने की स्थिति में नहीं थे। फिर भी कुम्भा ने अपने ढंग से रणमल के प्रभाव को कम करने के लिए मेवाड़ से गए हुए सामंतों को पुनः मेवाड़ में आश्रय देना शुरू किया। महपा पंवार और चाचा के पुत्र एक्का के अपराधों को भी क्षमा कर अपने यहाँ शरण दे दी। राघवदेव का बडा भाई चूण्डा, जो मालवा में था, वह भी पुनः मेवाड़ लौट आया। रणमल ने खूब प्रयास किए कि चूण्डा को मेवाड़ में प्रवेश नहीं मिले, परन्तु उसे सफलता नहीं मिली। कुम्भा ने धीरे-धीरे रणमल के विरुद्ध ऐसा व्यूह तैयार किया कि उसकी हत्या तक कर दी गई । रणमल की हत्या के समाचार फैलते ही उसका पुत्र जोधा अन्य राठौड़ो के साथ मारवाड़ की तरफ भागा। तब चूण्डा ने भागते हुए राठौड़ो पर आक्रमण किया। मारवाड़ की ख्यात के अनुसार जोधा के साथ 700 सवार थे और मारवाड़ पहुँचने तक केवल सात ही शेष रहे। मेवाड़ की सेना ने आगे बढ़कर मंडोर पर अधिकार कर लिया, किन्तु महाराणा की दादी हंसाबाई के बीच-बचाव करने के कारण जोधा इसको पुनः लेने में सफल हुआ।

वागड़ पर विजय-


कुम्भा ने डूंगरपुर पर भी आक्रमण किया और बिना कठिनाई के सफलता मिली। इस तरह उसने वागड़-प्रदेश को जीतकर जावर मेवाड़ राज्य में मिला लिया गया।

मेरों का दमन -

मेरों के विद्रोह को दबाने में भी वह सफल रहा। बदनोर के आस-पास ही मेरों की बड़ी बस्ती थी। ये लोग सदैव विद्रोह करते रहते थे। कुम्भा ने इनके विद्रोह का दमन कर विद्रोही नेताओं को कड़ा दंड दिया।

पूर्वी राजस्थान का संघर्ष -



यह भाग मुसलमानों की शक्ति का केंद्र बनता जा रहा था। बयाना व मेवात में इनका राज्य बहुत पहले से ही हो चुका था। रणथंभौर की पराजय के बाद चौहानों के हाथ से भी यह क्षेत्र जाता रहा। इस क्षेत्र को प्राप्त करने के लिए कछावा और मुस्लिम शासकों के अतिरिक्त मेवाड़ और मालवा के शासक भी प्रयत्नशील थे। फरिश्ता के अनुसार कुम्भा ने इस क्षेत्र पर आक्रमण करके रणथम्भौर पर अधिकार कर लिया था। साथ ही चाटसू आदि के भाग के भी उसने जीत लिया था।

कुम्भा की अन्य विजयें-



कुम्भलगढ़-प्रशस्ति के अनुसार कुम्भा ने कुछ नगरों को जीता था, जिनकी भौगौलिक स्थिति और नाम ज्ञात नहीं हो सके हैं। इसका कारण स्थानीय नामों को संस्कृत में रूपांतरित करके इस प्रशस्ति में अंकित किया है, जैसे - नारदीय नगर, वायसपुर आदि। इस भांति कुम्भा ने अपनी विजयों से मेवाड़ के लिए एक वैज्ञानिक सीमा निर्धारित की, जो मेवाड़ के प्रभुत्व को बढ़ाने में सहायक रही।

मालवा-गुजरात से संबंध-



कुम्भा की प्रसारवादी नीति के कारण मालवा-गुजरात से संघर्ष अवश्यंभावी थे। गुजरात और मालवा के स्वतंत्र अस्तित्व के बाद से ही तीन राज्यों- मेवाड़,मालवा व गुजरात के बीच संघर्ष बराबर चल रहा था। मालवा के लिए एक शक्तिशाली मेवाड़ सबसे बडा खतरा था।

  • मेवाड़-मालवा संघर्ष का मूल कारण दिल्ली सल्तनत की कमजोरी थी फलतः प्रांतीय शक्तियों को अपनी-अपनी स्वतंत्र सत्ता का विकास करने की चिंता थी।
  • दूसरा कारण मालवा के उत्तराधिकारी संघर्ष में कुम्भा का सक्रिय भाग लेना था। 1435 ई. में मालवा के सुल्तान हुशंगशाह की मृत्यु के बाद उसका पुत्र मुहम्मद शाह सुल्तान बना जिसे उसके वजीर महमूद शाह ने पदच्युत कर 1436 में सिंहासन हड़प लिया। हुशंगशाह के दूसरे पुत्र उमराव खां ने कुम्भा से सहायता मांगी और उसने उसे पर्याप्त सैनिक सहायता दी। इस बीच महमूद शाह ने अचानक आक्रमण करके उमराव खां को मरवा डाला किन्तु किन्तु कुम्भा ने मालवा के उत्तराधिकारी संघर्ष में सक्रिय भाग लेकर महमूद को अपना शत्रु बना डाला था।
  • तीसरा कारण मेवाड़ के विद्रोही सामंतों को मालवा में शरण देना था। महाराणा मोकल के हत्यारे महपा पंवार, विद्रोही सामंत चूंडा, कुम्भा के भाई खेमकरण आदि को मालवा में शरण दी गई। ये सामंत मेवाड़ के विरुद्ध योजना बनाने में वहां के सुल्तान को प्रोत्साहित करते रहते थे। कुम्भा ने मालवा से इन विद्रोहियों को लौटाने की माँग की किन्तु सुल्तान ने उसकी मांग को अस्वीकार कर दिया था। इसलिए दोनों राज्य के बीच संबंध तनावपूर्ण हो गए किन्तु दोनों राज्य के बीच संघर्षों का मुख्य कारण दोनों ही राज्यों की विस्तारवादी नीति थी।

मेवाड़-मालवा प्रथम संघर्ष - सारंगपुर का युद्ध (1437 ई.) -


विद्रोही महपा जिसको मालवा के सुल्तान ने शरण दे रखी थी, कुम्भा ने उसे लौटाने की माँग की, किन्तु सुल्तान ने मना कर दिया। तब 1437 ई. में कुम्भा ने एक विशाल सेना के साथ मालवा पर आक्रमण कर दिया। वह मंदसौर, जावरा आदि स्थानों को जीतता हुआ सारंगपुर पहुँचा जहाँ युद्ध में सुल्तान महमूद खलजी की हार हुई। कुम्भा ने महमूद खलजी को बंदी बनाया और उदारता का परिचय देते हुए उसे मुक्त भी कर दिया। निःसंदेह महाराणा की यह नीति उदारता स्वाभिमान व दूरदर्शिता का परिचायक है।

महाराणा कुम्भा सारंगपुर से गागरौन मंदसौर आदि स्थानों पर अधिकार करता हुआ मेवाड़ लौट आया। इस युद्ध से मेवाड़ की गिनती एक शक्तिशाली राज्य के रूप में की जाने लगी परंतु महमूद खलजी उसका स्थायी रूप से शत्रु हो गया और दोनों राज्यों के बीच में एक संघर्ष की परंपरा चली। हरबिलास शारदा का तो यह मानना है कि सारंगपुर में हुए अपमान का बदला लेने के लिए उसने मेवाड़ पर पांच बार आक्रमण किए।

1. कुम्भलगढ़ एवं चितौड़ पर आक्रमण -



महमूद का इस श्रृंखला में प्रथम आक्रमण 1442-43 ई. में हुआ है । वास्तव में सुल्तान ने यह समय काफी उपयुक्त चुना क्योंकि इस समय महाराणा बूँदी की ओर व्यस्त था। कुम्भा का विद्रोही भाई खेमकरण मालवा के सुल्तान की शरण में पहले ही जा चुका था, जिससे सुल्तान को पर्याप्त सहायता मिली। तभी गुजरात के शासक अहमदशाह की भी मृत्यु हो गई थी। उसका उत्तराधिकारी महमूदशाह काफी निर्बल था। अतएव गुजरात की ओर से मालवा को आक्रमण का डर नहीं रहा। महमूद खलजी ने सारंगपुर की हार का बदला लेने के लिए सबसे पहले 1442 ई. में कुम्भलगढ़ पर आक्रमण किया।

मेवाड़ के सेनापति दीपसिंह को मार कर बाणमाता के मंदिर को नष्ट-भ्रष्ट किया। इतने पर भी जब यह दुर्ग जीता नहीं जा सका तो शत्रु सेना ने चित्तौड़ को जीतना चाहा। इस बात को सुनकर महाराणा बूँदी से चित्तौड़ वापस लौट आए जिससे महमूद की चित्तौड़-विजय की यह योजना सफल नहीं हो सकी और महाराणा ने उसे पराजित कर मांडू भगा दिया।

2 . गागरौन-विजय (1443-44 ई.) -



मालवा के सुल्तान ने कुम्भा की शक्ति को तोड़ना कठिन समझ कर मेवाड़ पर आक्रमण करने के बजाय सीमावर्ती दुर्गों पर अधिकार करने की चेष्टा की। अत: उसने नवम्बर 1443 ई. में गागरौन पर आक्रमण किया। गागरौन उस समय खींची चौहानों के अधिकार में था। मालवा और हाडौती के बीच होने से मेवाड़ और मालवा के लिए इस दुर्ग का बड़ा महत्त्व  था। अतएव खलजी ने आगे बढ़ते हुए 1444 ई. में इस दुर्ग को घेर लिया और सात दिन के संघर्ष के बाद सेनापति दाहिर की मृत्यु हो जाने से राजपूतों का मनोबल गिर गया और गागरौन पर खलजी का अधिकार हो गया। डॉ यू.एन.डे का मानना है कि इसका मालवा के हाथ में चला जाना मेवाड़ की सुरक्षा को खतरा था।


3 . मांडलगढ़ पर आक्रमण -




1444 ई. में महमूद खलजी ने गागरौन पर अधिकार कर लिया । गागरौन की सफलता ने उसको माँडलगढ पर आक्रमण करने के लिए प्रोत्साहित किया। कुम्भा ने इसकी रक्षा का पूर्ण प्रबंध कर रखा था और तीन दिन के कड़े संघर्ष के बाद खलजी को करारी हार का सामना करना पड़ा।

4 . माँडलगढ़ का दूसरा घेरा -



11 अक्टूबर 1446 ई. को महमूद खलजी माँडलगढ़ अभियान के लिए रवाना हुआ । किन्तु इस बार भी उसे कोई सफलता नहीं मिली और अगले 7-6 वर्षों तक वह मेवाड़ पर आक्रमण करने का साहस नहीं कर सका।

5 . अजमेर-माँडलगढ अभियान -



पहले की हार का बदला लेने के लिए अगले ही वर्ष 1455 ई. में सुल्तान ने कुम्भा के विरुद्ध अभियान प्रारंभ किया। मंदसौर पहुँचने पर उसने अपने पुत्र गयासुद्दीन को रणथंभौर की ओर भेजा और स्वयं सुल्तान ने जाइन का दुर्ग जीत लिया। इस विजय के बाद सुल्तान अजमेर की ओर रवाना हुआ। अजमेर तब कुम्भा के पास में था और उसके प्रतिनिधि के रूप में राजा गजधरसिंह वहाँ की प्रशासनिक व्यवस्था को देख रहा था। सुल्तान को इस बार भी पराजित होकर मांडू लौटना पड़ा था। 1457 ई. में वह माँडलगढ लेने के लिए फिर इधर आया। अक्टूबर 1457 ई. में उसका माँडलगढ़ पर अधिकार हो गया। कारण कि तब कुम्भा गुजरात से युद्ध करने में व्यस्त था किन्तु शीघ्र ही उसने माँडलगढ को पुनः हस्तगत कर लिया।

6. कुम्भलगढ़ आक्रमण (1459 ई) -



मालवा के सुल्तान ने 1459 ई. में कुम्भलगढ़ पर फिर आक्रमण किया। इस युद्ध में महमूद को गुजरात के सुल्तान ने भी सहायता दी थी, किन्तु सफलता नहीं मिली।

7.  जावर आक्रमण -



1467 ई. में एक बार और मालवा का सुल्तान जावर तक पहुँचा परन्तु इस बार भी कुम्भा ने उसको यहाँ से जाने के लिए बाध्य कर दिया। वास्तव में 1459 ई. के पश्चात् ही सुल्तान का मेवाड़ में दबाव कम हो गया था इसलिए 1467 ई. में वह जावर तक पहुँचा तब उसको आसानी से खदेड़ दिया गया ।

मेवाड़-गुजरात संघर्ष - (1455 ई. से 1460 ई)



कुम्भा का गुजरात से भी संघर्ष होता है और नागौर प्रश्न ने दोनों को आमने-सामने ला खड़ा कर दिया । नागौर के तत्कालीन शासक फिरोज खां की मृत्यु होने पर और उसके छोटे पुत्र मुजाहिद खां द्वारा नागौर पर अधिकार करने हेतु बड़े लड़के शम्सखां ने नागौर प्राप्त करने में कुम्भा की सहायता माँगी। कुम्भा को इससे अच्छा अवसर क्या मिलता। वह एक बड़ी सेना लेकर नागौर पहुँचा। मुजाहिद को वहाँ से हटा कर महाराणा ने शम्सखां को गद्दी पर बिठाया परंतु गद्दी पर बैठते ही शम्सखां अपने सारे वायदे भूल गया और उसने संधि की शर्तों का उल्लंघन करना शुरू कर दिया। स्थिति की गंभीरता को समझ कर कुम्भा ने शम्सखां को नागौर से निकाल कर उसे अपने अधिकार में कर लिया। शम्सखां भाग कर गुजरात पहुँचा और अपनी लडकी की शादी सुल्तान से कर, गुजरात से सैनिक सहायता प्राप्त कर महाराणा की सेना के साथ युद्ध करने को बढ़ा, परंतु विजय का सेहरा मेवाड़ के सिर बंधा। मेवाड़-गुजरात संघर्ष का यह तत्कालीन कारण था। 1455 से 1460 ई. के बीच मेवाड़-गुजरात संघर्ष के दौरान निम्नांकित युद्ध हुए -

1. नागौर युद्ध (1456 ई) -



नागौर के पहले युद्ध में शम्सखां की सहायता के लिए भेजे गए गुजरात के सेनापति रायरामचंद्र व मलिक गिदई महाराणा कुम्भा से हार गए थे। अतएव इस हार का बदला लेने तथा शम्सखां को नागौर की गद्दी पर बिठाने के लिए 1456 ई. में गुजरात का सुल्तान कुतुबुद्दीन सेना के साथ मेवाड़ पर बढ़ आया। तब सिरोही को जीतकर कुम्भलगढ़ का घेरा डाल दिया किन्तु इसमें उसे असफल होकर लौटना पड़ा। नागौर के प्रथम युद्ध में राणा की जीत हुई और उसने नागौर के किले को नष्ट कर दिया।

2. सुल्तान कुतुबुद्दीन का आक्रमण -



सिरोही के देवड़ा राजा ने सुल्तान कुतुबुद्दीन से प्रार्थना की कि वह आबू जीतकर सिरोही उसे दे दे। सुल्तान ने इसे स्वीकार कर लिया। आबू को कुम्भा ने देवड़ा से जीता था। सुल्तान ने अपने सेनापति इमादुलमुल्क को आबू पर आक्रमण करने भेजा किन्तु उसकी पराजय हुई। इसके बाद सुल्तान ने कुम्भलगढ़ पर चढ़ाई कर तीन दिन तक युद्ध किया। बेले ने इस युद्ध में कुम्भा की पराजय बताई है किन्तु गौ. ही. ओझा, हरबिलास शारदा ने इस कथन को असत्य बताते हुए इस युद्ध में कुम्भा की जीत ही मानी है। उनका मानना है कि यदि सुल्तान जीत कर लौटता तो पुनः मालवा के साथ मिलकर मेवाड़ पर आक्रमण नहीं करता। सुल्तान का दूसरा प्रयास भी असफल रहा।

3. मालवा-गुजरात का संयुक्त अभियान (1457) -


गुजरात एवं मालवा के सुल्तानों ने चांपानेर नामक स्थान पर समझौता किया। इतिहास में यह चांपानेर की संधि के नाम से जाना जाता है, इसके अनुसार दोनों की सम्मिलित सेनाएँ मेवाड़ पर आक्रमण करेगी तथा विजय के बाद मेवाड़ का दक्षिण भाग गुजरात में तथा शेष भाग मालवा में मिला लिया जाएगा। कुतुबुद्दीन आबू को विजय करता हुआ आगे बढ़ा और मालवा का सुल्तान दूसरी ओर से बढ़ा। कुम्भा ने दोनों की संयुक्त सेना का साहस के साथ सामना किया और कीर्ति-स्तम्भ-प्रशस्ति 'रसिक प्रिया’ के अनुसार इस मुकाबले में कुम्भा विजयी रहा।

4. नागौर-विजय (1458) -



कुम्भा ने 1458 ई. में नागौर पर आक्रमण किया जिसका कारण श्यामलदास के अनुसार

  1. नागौर के हाकिम शम्सखां और मुसलमानों द्वारा बहुत गो-वध करना।
  2. मालवा के सुल्तान के मेवाड़ आक्रमण के समय शम्सखां ने उसकी महाराणा के विरुद्ध सहायता की थी।
  3. शम्सखां ने किले की मरम्मत शुरू कर दी थी। अत: महाराणा ने नागौर पर आक्रमण कर उसे जीत लिया।

5. कुम्भलगढ़-अभियान (1458 ई) -



कुतुबुद्दीन का 1458 ई में कुम्भलगढ़ पर अंतिम आक्रमण हुआ जिसमें उसे कुम्भा से पराजित होकर लौटना पड़ा। तभी 25 मई व 458 ई. को उसका देहांत हो गया।

6. महमूद बेगड़ा का आक्रमण (1459 ई) -



कुतुबुद्दीन के बाद महमूद बेगड़ा गुजरात का सुल्तान बना। उसने 1459 ई. में जूनागढ़ पर आक्रमण किया। वहाँ का शासक कुम्भा का दामाद था। अत: महाराणा उसकी सहायतार्थ जूनागढ़ गया और सुल्तान को पराजित कर भगा दिया।

इस प्रकार से कुम्भा ने अपनी सैन्य शक्ति, दूरदर्शिता एवं युद्ध कौशल द्वारा न केवल संपूर्ण राजपूताने पर अपना अधिकार स्थापित नहीं किया अपितु मेवाड़ की राज्य सीमा का विस्तार कर अपनी कीर्ति में चार चाँद लगाए, जिसकी गवाही आज भी चित्तौड़ की धरती पर खड़ा कीर्ति-स्तम्भ देता है, जिसके उन्नत शिखरों से कुम्भा के महान व्यक्तित्व की रश्मियाँ अनवरत प्रस्फुटित हो रही है। कुम्भा ने अपने कुशल नेतृत्व, रणचातुर्य एवं कूटनीति से मेवाड़ में आंतरिक शांति व समृद्धि की स्थापना ही की, साथ ही मेवाड़ की बाह्य शत्रुओं से रक्षा भी की। उसने अपनी युद्ध-नीति, कूटनीति एवं दूरदर्शिता से मेवाड को महाराज्य बना दिया था। एक महान शासक के रूप में कुम्भा के व्यक्तित्व की सबसे बड़ी विशेषता उसकी विजय-नीति तथा कूटनीति है। उसने अपने काल में कई दुर्गों का निर्माण करवा कर मेवाड़ को वैज्ञानिक एवं सुरक्षित सीमायें प्रदान कर आंतरिक सुरक्षा, शांति एवं समृद्धि की स्थापना की। इसी कारण दिल्ली एवं गुजरात के सुल्तानों ने उसे 'हिन्दू सुरत्राण' जैसे विरुद से विभूषित किया।  इसके साथ ही उसने मेवाड़ में कई मंदिरों तथा स्थापत्य की दृष्टि से महत्वपूर्ण इमारतों का निर्माण कराया और साहित्य, संगीत तथा कला के क्षेत्र में भी विशिष्ट आयाम स्थापित किए, जिनका वर्णन आगे की पोस्ट में किया जायेगा। जी.शारदा ने तो उसे राणा प्रताप तथा राणा सांगा से भी अधिक प्रतिभावान माना है और लिखा है कि महाराणा कुम्भा ने मेवाड़ के गौरवशाली भविष्य का मार्ग प्रशस्त किया।
कुम्भा के व्यक्तित्व की सबसे बड़ी बात विजय नीति तथा कूटनीति है। धार्मिक क्षेत्र में भी वह समय से आगे था।

कुंभा का देहांत-

ऐसे वीर, प्रतापी, विद्वान महाराणा का अंत बहुत दु:खद हुआ। उसके पुत्र ऊदा (उदयसिंह) ने 1468 ई. में उसकी हत्या कर दी और स्वयं मेवाड़ के सिंहासन पर आसीन हो गया। जी.एन. शर्मा के अनुसार "कुम्भा की मृत्यु केवल उसकी जीवन लीला की समाप्ति नहीं थी, वरन यह सम्पूर्ण कला, साहित्य, शौर्य आदि की परंपरा में गतिरोध था। कुम्भा के अंत से इस प्रकार की सर्वतोन्मुखी उन्नति की इतिश्री दिखाई देती है जिसका पुनः आभास महाराणा राजसिंह के काल में फिर से होता है।" कुम्भा की सबसे बड़ी विशेषता उसकी विजय की वैज्ञानिक नीति तथा कूटनीति है। कर्नल टॉड ने लिखा है कि "कुम्भा ने अपने राज्य को सुदृढ़ किलों द्वारा संपन्न बनाते हुए ख्याति अर्जित कर अपने नाम को चिर स्थायी कर दिया।" कुम्भलगढ़ प्रशस्ति में एक ओर उसे धर्म और पवित्रता का अवतार कहा है , वहीँ दूसरी ओर कवियों ने उसे प्रजापालक और महान दानी भी कहा है।शारदा ने उसे 'महान शासक, महान सेनापति, महान निर्माता और महान विद्वान' कहा है। प्रजाहित को ध्यान रखने के कारण प्रजा उसमें अत्यधिक विश्वास और श्रद्धा रखती थी। उसके व्यक्तित्व में एक युद्ध विजयी तथा प्रजा की रक्षा करने वाला वीर शासक होने के साथ साथ विद्यानुरागी, विद्वानों का सम्मानकर्ता, साहित्य प्रेमी, संगीताचार्य, वास्तुकला का पुरोधा, नाट्यकला में कुशल, कवियों का शिरोमणि अनेक ग्रंथों का रचयिता, वेद, स्मृति, दर्शन, उपनिषद, व्याकरण आदि का विद्वान, संस्कृत आदि भाषाओँ का ज्ञाता, प्रजापालक, दानवीर, जैसे कई गुण सर्वतोन्मुखी गुण विद्यमान थे जो राणा सांगा में नहीं थे। वास्तव में उसने अपनी युद्ध-नीति, कूटनीति, कला-साहित्यप्रियता एवं दूरदर्शिता से मेवाड़ को महाराज्य बना दिया था।

कुम्भा के बाद मेवाड़-

पिता कुम्भा की उसके पुत्र ऊदा द्वारा हत्या से मेवाड़ के उत्कर्ष को गहन आघात लगा और अगले 5 वर्षों तक मेवाड़ की स्थिति दयनीय रही। तब मेवाड़ में अपने पिता के हत्यारे ऊदा को शासक के रूप में स्वीकार करने को कोई तैयार नहीं था। मेवाड़ में ऊदा एवं उसके भाईयों के मध्य रक्तरंजित उत्तराधिकार संघर्ष प्रारंभ हुआ, जिसमें अंतत: उसका भाई रायमल राजगद्दी प्राप्त करने में सफल हुआ। इस बीच ऊदा मालवा के सुल्तान के पास सहायतार्थ पहुंचा। मालवा के सुल्तान गयासशाह ने मेवाड़ में अशांति करते हुए कई इलाके हथिया लिए किन्तु रायमल की सूझबूझ से उसके चितौड़ और मांडलगढ़ के आक्रमणों में सुल्तान की हार हुई। इस प्रकार रायमल ने मेवाड़ की स्थिति को सुदृढ़ करना आरम्भ किया तथा मेवाड़ और सुदृढ़ करने के लिए जोधपुर के राठौड़ों व हाड़ाओं से मित्रता की, किन्तु इस बीच उसके पुत्रों में संघर्ष हो जाने और दो पुत्रों की मृत्यु होने तथा सांगा के मेवाड़ छोड़ कर चले जाने से उसका जीवन दुःखमय हो गया। परंतु उसकी मृत्यु के पूर्व सांगा पुनः मेवाड़ आ गया। अंतत: रायमल ने अपने पुत्र सांगा (संग्राम सिंह) को अपना उत्तराधिकारी घोषित किया, जो उसकी (रायमल की) मृत्यु के बाद 1508 ई. में मेवाड़ के सिंहासन पर प्रतिष्ठित हुआ। सांगा के मेवाड़ की सत्ता सँभालते ही मेवाड़ का उत्कर्षकाल पुनः प्रारंभ हो गया।

Please also see this article- 1. महाराणा कुंभा - 'दुर्ग बत्‍तीसी' के संयोजनकार - डॉ. श्रीकृष्‍ण 'जुगनू' 

2- कुंभा की सांस्कृतिक उपलब्धियाँ  

Comments

Post a Comment

Your comments are precious. Please give your suggestion for betterment of this blog. Thank you so much for visiting here and express feelings
आपकी टिप्पणियाँ बहुमूल्य हैं, कृपया अपने सुझाव अवश्य दें.. यहां पधारने तथा भाव प्रकट करने का बहुत बहुत आभार

Popular posts from this blog

Baba Mohan Ram Mandir and Kali Kholi Dham Holi Mela

Baba Mohan Ram Mandir, Bhiwadi - बाबा मोहनराम मंदिर, भिवाड़ी साढ़े तीन सौ साल से आस्था का केंद्र हैं बाबा मोहनराम बाबा मोहनराम की तपोभूमि जिला अलवर में भिवाड़ी से 2 किलोमीटर दूर मिलकपुर गुर्जर गांव में है। बाबा मोहनराम का मंदिर गांव मिलकपुर के ''काली खोली''  में स्थित है। काली खोली वह जगह है जहां बाबा मोहन राम रहते हैं। मंदिर साल भर के दौरान, यात्रा के दौरान खुला रहता है। य ह पहाड़ी के शीर्ष पर स्थित है और 4-5 किमी की दूरी से देखा जा सकता है। खोली में बाबा मोहन राम के दर्शन के लिए आने वाली यात्रियों को आशीर्वाद देने के लिए हमेशा “अखण्ड ज्योति” जलती रहती है । मुख्य मेला साल में दो बार होली और रक्षाबंधन की दूज को भरता है। धूलंड़ी दोज के दिन लाखों की संख्या में श्रद्धालु बाबा मोहन राम जी की ज्योत के दर्शन करने पहुंचते हैं। मेले में कई लोग मिलकपुर मंदिर से दंडौती लगाते हुए काली खोल मंदिर जाते हैं। श्रद्धालु मंदिर परिसर में स्थित एक पेड़ पर कलावा बांधकर मनौती मांगते हैं। इसके अलावा हर माह की दूज पर भी यह मेला भरता है, जिसमें बाबा की ज्योत के दर्शन करन...

राजस्थान का प्रसिद्ध हुरडा सम्मेलन - 17 जुलाई 1734

हुरडा सम्मेलन कब आयोजित हुआ था- मराठा शक्ति पर अंकुश लगाने तथा राजपूताना पर मराठों के संभावित आक्रमण को रोकने के लिए जयपुर के सवाई जयसिंह के प्रयासों से 17 जुलाई 1734 ई. को हुरडा (भीलवाडा) नामक स्थान पर राजपूताना के शासकों का एक सम्मेलन आयोजित किया गया, जिसे इतिहास में हुरडा सम्मेलन के नाम  जाता है।   हुरडा सम्मेलन जयपुर के सवाई जयसिंह , बीकानेर के जोरावर सिंह , कोटा के दुर्जनसाल , जोधपुर के अभयसिंह , नागौर के बख्तसिंह, बूंदी के दलेलसिंह , करौली के गोपालदास , किशनगढ के राजसिंह के अलावा के अतिरिक्त मध्य भारत के राज्यों रतलाम, शिवपुरी, इडर, गौड़ एवं अन्य राजपूत राजाओं ने भाग लिया था।   हुरडा सम्मेलन की अध्यक्षता किसने की थी- हुरडा सम्मेलन की अध्यक्षता मेवाड महाराणा जगतसिंह द्वितीय ने की।     हुरडा सम्मेलन में एक प्रतिज्ञापत्र (अहदनामा) तैयार किया गया, जिसके अनुसार सभी शासक एकता बनाये रखेंगे। एक का अपमान सभी का अपमान समझा जायेगा , कोई राज्य, दूसरे राज्य के विद्रोही को अपने राज्य में शरण नही देगा ।   वर्षा ऋत...

Civilization of Kalibanga- कालीबंगा की सभ्यता-
History of Rajasthan

कालीबंगा टीला कालीबंगा राजस्थान के हनुमानगढ़ ज़िले में घग्घर नदी ( प्राचीन सरस्वती नदी ) के बाएं शुष्क तट पर स्थित है। कालीबंगा की सभ्यता विश्व की प्राचीनतम सभ्यताओं में से एक है। इस सभ्यता का काल 3000 ई . पू . माना जाता है , किन्तु कालांतर में प्राकृतिक विषमताओं एवं विक्षोभों के कारण ये सभ्यता नष्ट हो गई । 1953 ई . में कालीबंगा की खोज का पुरातत्वविद् श्री ए . घोष ( अमलानंद घोष ) को जाता है । इस स्थान का उत्खनन कार्य सन् 19 61 से 1969 के मध्य ' श्री बी . बी . लाल ' , ' श्री बी . के . थापर ' , ' श्री डी . खरे ', के . एम . श्रीवास्तव एवं ' श्री एस . पी . श्रीवास्तव ' के निर्देशन में सम्पादित हुआ था । कालीबंगा की खुदाई में प्राक् हड़प्पा एवं हड़प्पाकालीन संस्कृति के अवशेष प्राप्त हुए हैं। इस उत्खनन से कालीबंगा ' आमरी , हड़प्पा व कोट दिजी ' ( सभी पाकिस्तान में ) के पश्चात हड़प्पा काल की सभ्यता का चतुर्थ स्थल बन गया। 1983 में काली...