Skip to main content

Bairath Ancient Civilization of Rajasthan राजस्थान की बैराठ प्राचीन सभ्यता-





राजस्थान की बैराठ प्राचीन सभ्यता-



राजस्थान राज्य के उत्तर-पूर्व में जयपुर जिले का ‘विराटनगर’ या ‘बैराठ’ क़स्बा एक तहसील मुख्यालय है। यह क्षेत्र पुरातत्व एवं इतिहास की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण क्षेत्र  है। प्राचीनकाल में 'मत्स्य जनपद’, मत्स्य देश एवं मत्स्य क्षेत्र के रूप में उल्लेखित किया जाने वाला यह क्षेत्र वैदिक युग से वर्तमान काल तक निरंतर अपना विशिष्ट महत्त्व प्रदर्शित करता रहा है। यह क्षेत्र पर्याप्त वन सम्पदा वाला पर्वतीय प्रदेश है। ऊँचे-ऊँचे पर्वत के निकट छोटे-छोटे ग्रेनाइट चट्टानों की पहाडियाँ भी है, इनमें नैसर्गिक रूप से निर्मित सुरक्षित आश्रय स्थल भी हैं। इस प्रकार से प्राचीन काल में मानव के लिए यहाँ अनुकूल पर्यावरणीय परिस्थितियाँ दिखाई देती है।

पाषाण युग :  


पर्वतों की कंदराओं, गुफाओं एवं वन्य प्राणियों वाला यह क्षेत्र प्रागैतिहासिक काल से मानव के आकर्षण का केंद्र रहा है। इस क्षेत्र में मानव की उपस्थिति के प्रमाण पाषाण युग से ही प्राप्त होने लगते हैं। प्रागैतिहासिक काल में मानव ने आसानी से उपलब्ध पाषाण, लकडी एवं हड्डी का किसी न किसी प्रकार से उपयोग किया है। लकड़ी एवं हड्डी दीर्घकालीन परिस्थितियों में नष्ट हो गयी, लेकिन पाषाण, जिसको उसने उपयोगी बनाने के लिए थोड़ा बहुत गढ़ा है, तराशा है, उपलब्ध होते हैं। इसीलिए इस युग के मानव को पाषाण युगीन मानव कहा जाता है। इस क्षेत्र में ढिगारिया एवं भानगढ़ से ‘पेबुल टूल’ प्राप्त हुए हैं। जिन्हें पूर्वपाषाण युगीन उपकरण (Palaeolithic tools) कहा जाता है। पूर्वपाषाण युगीन मानव पूर्णत: प्रकृति जीवी था । प्राकृतिक रूप से उपलब्ध फल-फूल, कंद-मूल, आखेट में मारे गए वन्य पशुओं से अपनी भूख मिटाता था। पाषाण युग की द्वितीय अवस्था 'मध्य पाषाण युग' के उपकरण बैराठ के उत्तर एवं दक्षिण दोनों भागों से प्राप्त हुए हैं। इस काल में पर्यावरण में भारी परिवर्तन हुए, जिसके कारण वन्य पशु अनुकूल स्थल की ओर गमन कर गए। बड़े जानवरों के शिकार पर आश्रित रहने वाला मानव अब छोटे छोटे जानवरों का आखेट करने लगा। इसी कारण से उसे अब अपेक्षाकृत छोटे औजार बनाने पड़े जिन्हें लघुपाषाण उपकरण कहा जाता है। इस काल में मानव पानी की झीलों के किनारे टीलों पर अस्थाई रूप से झोंपड़ियाँ बना कर रहने लगा था। धीरे-धीरे उसने हाथ से मृद्पात्र का निर्माण करना सीखा। ये कम 'पके' तथा रेत से निर्मित, बेड़ोल एवं भोंडे तथा मोटे हैं।

इस काल में मानव के मन में सौन्दर्य भावना का उदय दिखाई देता है। लघुपाषाण उपकरणों पर कलात्मक रेखांकन इसका उदाहरण है। उसे शैलाश्रयों की सपाट भित्ति अब एक विस्तृत केनवास के रूप में उपलब्ध हुई । मृदभांड के साथ पात्र की सतह भी उसकी कलात्मक प्रवृत्तियों का आधार बनी। इसलिए लघुपाषाण युगीन मानव ने सर्वप्रथम अपने आश्रय स्थलों (शैलाश्रय) की छत एवं दीवारों पर लाल रंग से विभिन्न प्रकार के चित्रों का निर्माण किया है। विराट नगर की पहाड़ियों- गणेश डूँगरी, बीजक डूँगरी तथा भीम डूँगरी के शैलाश्रयों में चित्रांकन उपलब्ध होता है। यह चित्रांकन लघुपाषण युग से प्रारंभ होकर दीर्घकाल तक किया जाता रहा है। ये शैलचित्र तत्कालीन मानव द्वारा निर्मित उसके जीवन के विविध पक्षों की स्पष्ट जानकारी के प्रमाणिक स्रोत हैं।

ताम्र युग :-

मध्य पाषाण युग के पश्चात् धातु युग का प्रादुर्भाव हुआ और धातुओं में सर्वप्रथम ताम्र धातु का प्रयोग प्रारंभ हुआ। 

ताम्र पाषाण की अपेक्षा अधिक सुदृढ, सुडौल, सुन्दर एवं उपयोगी सिद्ध हुआ। इसे इच्छानुसार आकृति प्रदान की जा सकती थी। अब उसे स्थायी औजार उपलब्ध हुए। 

धातु ज्ञान ने तत्कालीन मानव जीवन में क्रांतिकारी परिवर्तन ला दिया। इस काल में वह मृदभांड का निर्माण भी चाक पर करने लगा था। ये पात्र 'आकर कलर पात्र' परम्परा के नाम से जाने जाते हैं। हाथ लगाने से झरने लगते है तथा हाथों पर सिन्दूर या गैरु का रंग लगने लगता है। 

इन मृदभांडों पर उकेरण विधि द्वारा अलंकरण किया जाता था। जोधपुरा (जयपुर) एवं गणेश्वर (सीकर) के उत्खनन से ऐसे साक्ष्य उपलब्ध हुए हैं। ये लोग ताम्र धातु को खनिज से निकालना तथा उससे उपकरण का निर्माण करना जानते थे। इससे उनके तत्कालीन समाज में प्रतिष्ठा स्थापित हुई। सीमित तौर पर हुए उत्खनन से उनके सामाजिक जीवन पर कोई विशेष प्रकाश नहीं पडता। विद्वानों का अनुमान है कि इनके द्वारा प्राप्त किया गया ताम्र तथा निर्मित किए गए उपकरण तत्कालीन केन्द्रों को भी भेजे जाते थे। आर. सी. अग्रवाल के मतानुसार ये लोग अपने ताम्र उपकरणों को तत्कालीन सैन्धव केन्द्रों को भी निर्यात करते थे।

इनके जीवन में आखेट का महत्त्व था। उत्खनन में अनेक अस्थियों के टुकड़े मिलना इसका प्रमाण है। मछली पकड़ने के कॉटे भी प्राप्त हुए है। अन्य ताम्र उपकरणों में कुल्हाड़ियाँ, चाकू, भाले, बाणाग्र, छेनियाँ.चूड़ियाँ, छल्ले, पिने, आदि प्राप्त हुई है। इस क्षेत्र की ताम्रयुगीन संस्कृति दक्षिण-पूर्व राजस्थान की ताम्र संस्कृति (आहड संस्कृति) से पूर्णतः मित्र है तथा किंचित पूर्वकालीन थी।

लौह युग :

इस क्षेत्र में पेंटेड ग्रे पात्र परंपरा (सलेटी रंग के चित्रित पात्र) के अवशेष भी प्राप्त हुए है। गंगाघाटी में यह संस्कृति 1100 ई. पू. में विद्यमान थी तथा पांचवी सदी ई. पू. तक प्रचलित रही। ये पात्र सलेटी रंग के है। इन पर काले एवं गहरे भूरे रंग से किया गया चित्रांकन प्राप्त हुआ है। ये पात्र पतले एवं हलके है। इनका यह महत्त्व रंग अपचयन विधि से पकाने के कारण हुआ लगता है। चित्रांकन के प्रारूपों में अधिकांशत: ज्यामितिक आकृतियों जैसे आडी तिरछी रेखाएँ, बिंदु, अर्धवृत्त, वृत्तों की श्रृंखला,  स्वस्तिक आदि का अंकन प्राप्त हुआ है। पात्र प्रकारों में मुख्यत: कटोरे एवं तश्तरियां प्रमुख है।

ये लोग निवास हेतु बाँस एवं सरकन्डो से आवास का ढाँचा तैयार करके उस पर मिट्टी का प्लास्टर करते थे। कहीं-कहीं पर कच्ची ईंटों के आवासों के प्रमाण भी मिले हैं। इनका जीवन ग्रामीण संस्कृति का दिखाई देता है। मुख्य व्यवसाय कृषि एवं पशुपालन था । खाद्यान्न में गेहूँ एवं चावल का उत्पादन किया जाता था। पशुओं में गाय, भैंस, बैल एवं सुअर तथा अश्व पालते थे। उत्खनन में भेड़-बकरी की हड्डियां भी मिली है। इन्हें भी दूध, माँस एवं चमडे के लिए पाला जाता था।

इस संस्कृति के लोग लौह धातु से परिचित थे। अन्तारंजी खेड़ा (उत्तर प्रदेश) के उत्खनन में इस संस्कृति के मृद्पात्रों के साथ लोहे के अवशेष प्राप्त हुए हैं। ये लोग लोहे से चाकू, तीर, कील, हँसिया, कुदाल, कुल्हाडी, चिमटा, कील आदि उपकरणों का निर्माण करते थे। पेंटेड ग्रे पात्र संस्कृति (PWG) के पश्चात् बैराठ क्षेत्र में उत्तरी-काली चमकीले मृद्पात्र संस्कृति (Northern Black Polished Ware, NBP) के पुरावशेष प्राप्त होते हैं। इस संस्कृति के ये अवशेष मृद्पात्र सामान्यत: उत्तरी भारत में मिले है और इन पर काले रंग की चमकीली सतह है, इसीलिए इसका यह अवशेष प्रकार का नामकरण किया गया है।


इन मृद्पात्र को भली प्रकार तैयार की गई मिट्टी से घूमते हुए चाक पर तैयार किया जाता था। सूखने पर आग में तपाया जाता था। गिरने पर धात्विक खनक सुनाई देती है। ये मृद्पात्र पतले एवं हल्के होते है। पात्र में प्रमुखत: किनारों की थालियाँ, कटोरे, ढक्कन तथा छोटे कलश हैं। इस संस्कृति का कालक्रम पाँचवी सदी ई. पू. से द्वितीय सदी ई. पू. माना जाता है। इस काल में लोहे का व्यापक रूप से उपयोग होने लगा था, जिससे उत्पादन में भारी वृद्धि हुई। संभवतः इसी कारण से उत्तरी भारत में द्वितीय नागरक क्रान्ति का सूत्रपात हुआ। अतिरिक्त उत्पादन में भारी वृद्धि नागरक क्रांति का प्रमुख कारण है। नागरक समाज का आर्थिक जीवन जटिल होने लगा, परिणामस्वरूप वस्तु-विनिमय से परेशानी होने लगी। इन्हीं आवश्यकताओं, आर्थिक जटिलताओं ने सिक्कों के प्रचलन का मार्ग प्रशस्त किया। ताम्र एवं रजत निर्मित आहत सिक्के (Punch Marked Coins) हमारे देश के प्राचीनतम सिक्के है। लेख रहित ताम्बे के सिक्के भी इनके समान प्राचीन माने गए है। सिक्कों के प्रचालन से व्यापार एवं वाणिज्य के विकास में भारी प्रगति हुई।



मौर्य साम्राज्यकालीन बैराठ:


मौर्य काल में ‘बैराठ’ का विशेष महत्त्व था। यहाँ मौर्य सम्राट अशोक के काल में प्रस्तर खंड पर दो शिलालेख उत्कीर्ण कराये गए थे। प्रथम जो बीजक की पहाडी पर स्थित था, को 1837 ई. में कैप्टन बर्ट ने खोजा तथा सुरक्षा की दृष्टि से इसे 1840 ई. में कलकत्ता संग्रहालय में ले जाया गया। द्वितीय-भीम डूंगरी के पूर्वी भाग की तलहटी में एक शिलाखंड पर अंकित है। 1871-72 ई. में कालाईल ने इस क्षेत्र का गहन सर्वेक्षण किया तथा 1936 ई. में बीजक की पहाड़ी पर दयाराम साहनी ने पुरातात्विक उत्खनन किया। उत्खनन में मौर्य साम्राज्यकालीन अशोक स्तम्भ, बौद्ध मंदिर एवं बौद्ध विहार के ध्वंसावशेष प्राप्त हुए। 1962 ई. में एन.आर. बनर्जी ने पुनः उत्खनन किया। 1990 ई. में गणेश डूंगरी, बीजक डूँगरी एवं भीम डूँगरी के शैलाश्रय में अनेक चित्रित शैलाश्रय खोजे गए। इस प्रकार बैराठ क्षेत्र पुरासंपदा से संपन्न होने के कारण पुरातत्ववेत्ताओं एवं इतिहासकारों के लिए आकर्षण का केंद्र रहा है। बैराठ में किए गए पुरातत्व उत्खननों से यह प्रमाणित होता है कि यह बौद्ध धर्मानुयायियों के लिए एक महत्त्वपूर्ण केंद्र के रूप में प्रतिष्ठित था तथा मौर्य सम्राट अशोक का इस क्षेत्र से विशेष लगाव था। परवर्ती काल में इसका धंवस किया गया, क्योंकि स्तम्भ, छत्र, स्तूप आदि के हजारों टूटे हुए टुकडे प्राप्त हुए हैं। दयाराम साहनी के मतानुसार यह विनाशलीला हूण शासक मिहिरकुल द्वारा की गई। हूण शासक मिहिरकुल ने छठी सदी ई. के प्रारंभिक काल में पश्चिमोत्तर भारतीय क्षेत्र में 15 वर्षों तक शासन किया था। चीनी यात्री व्हेनसांग अपने विवरण में लिखता है कि मिहिरकुल ने पश्चिमोत्तर भारत में 1600 स्तूप और बौद्ध विहारों को ध्वस्त किया तथा 9 कोटि बौद्ध उपासकों का वध किया। संभवतः इस विनाशकाल में ही बौद्ध धर्मानुयायियों ने कूट लिपि (गुप्त लिपि) का इन पहाड़ियों के शैलाश्रयों में प्रयोग किया है। गुप्तकालीन ब्राह्मी लिपि को अत्यधिक अलंकृत करके लिखा जाना ही कूट लिपि (गुप्त लिपि) शंख लिपि है। इसका लाल रंग से 200 से अधिक शिलाखंडों की विभिन्न सतहों पर अंकन प्राप्त हुआ है।

Comments

Post a Comment

Your comments are precious. Please give your suggestion for betterment of this blog. Thank you so much for visiting here and express feelings
आपकी टिप्पणियाँ बहुमूल्य हैं, कृपया अपने सुझाव अवश्य दें.. यहां पधारने तथा भाव प्रकट करने का बहुत बहुत आभार

Popular posts from this blog

राजस्थान का प्रसिद्ध हुरडा सम्मेलन - 17 जुलाई 1734

हुरडा सम्मेलन कब आयोजित हुआ था- मराठा शक्ति पर अंकुश लगाने तथा राजपूताना पर मराठों के संभावित आक्रमण को रोकने के लिए जयपुर के सवाई जयसिंह के प्रयासों से 17 जुलाई 1734 ई. को हुरडा (भीलवाडा) नामक स्थान पर राजपूताना के शासकों का एक सम्मेलन आयोजित किया गया, जिसे इतिहास में हुरडा सम्मेलन के नाम  जाता है।   हुरडा सम्मेलन जयपुर के सवाई जयसिंह , बीकानेर के जोरावर सिंह , कोटा के दुर्जनसाल , जोधपुर के अभयसिंह , नागौर के बख्तसिंह, बूंदी के दलेलसिंह , करौली के गोपालदास , किशनगढ के राजसिंह के अलावा के अतिरिक्त मध्य भारत के राज्यों रतलाम, शिवपुरी, इडर, गौड़ एवं अन्य राजपूत राजाओं ने भाग लिया था।   हुरडा सम्मेलन की अध्यक्षता किसने की थी- हुरडा सम्मेलन की अध्यक्षता मेवाड महाराणा जगतसिंह द्वितीय ने की।     हुरडा सम्मेलन में एक प्रतिज्ञापत्र (अहदनामा) तैयार किया गया, जिसके अनुसार सभी शासक एकता बनाये रखेंगे। एक का अपमान सभी का अपमान समझा जायेगा , कोई राज्य, दूसरे राज्य के विद्रोही को अपने राज्य में शरण नही देगा ।   वर्षा ऋतु के बाद मराठों के विरूद्ध क

Baba Mohan Ram Mandir and Kali Kholi Dham Holi Mela

Baba Mohan Ram Mandir, Bhiwadi - बाबा मोहनराम मंदिर, भिवाड़ी साढ़े तीन सौ साल से आस्था का केंद्र हैं बाबा मोहनराम बाबा मोहनराम की तपोभूमि जिला अलवर में भिवाड़ी से 2 किलोमीटर दूर मिलकपुर गुर्जर गांव में है। बाबा मोहनराम का मंदिर गांव मिलकपुर के ''काली खोली''  में स्थित है। काली खोली वह जगह है जहां बाबा मोहन राम रहते हैं। मंदिर साल भर के दौरान, यात्रा के दौरान खुला रहता है। य ह पहाड़ी के शीर्ष पर स्थित है और 4-5 किमी की दूरी से देखा जा सकता है। खोली में बाबा मोहन राम के दर्शन के लिए आने वाली यात्रियों को आशीर्वाद देने के लिए हमेशा “अखण्ड ज्योति” जलती रहती है । मुख्य मेला साल में दो बार होली और रक्षाबंधन की दूज को भरता है। धूलंड़ी दोज के दिन लाखों की संख्या में श्रद्धालु बाबा मोहन राम जी की ज्योत के दर्शन करने पहुंचते हैं। मेले में कई लोग मिलकपुर मंदिर से दंडौती लगाते हुए काली खोल मंदिर जाते हैं। श्रद्धालु मंदिर परिसर में स्थित एक पेड़ पर कलावा बांधकर मनौती मांगते हैं। इसके अलावा हर माह की दूज पर भी यह मेला भरता है, जिसमें बाबा की ज्योत के दर्शन करन

Civilization of Kalibanga- कालीबंगा की सभ्यता-
History of Rajasthan

कालीबंगा टीला कालीबंगा राजस्थान के हनुमानगढ़ ज़िले में घग्घर नदी ( प्राचीन सरस्वती नदी ) के बाएं शुष्क तट पर स्थित है। कालीबंगा की सभ्यता विश्व की प्राचीनतम सभ्यताओं में से एक है। इस सभ्यता का काल 3000 ई . पू . माना जाता है , किन्तु कालांतर में प्राकृतिक विषमताओं एवं विक्षोभों के कारण ये सभ्यता नष्ट हो गई । 1953 ई . में कालीबंगा की खोज का पुरातत्वविद् श्री ए . घोष ( अमलानंद घोष ) को जाता है । इस स्थान का उत्खनन कार्य सन् 19 61 से 1969 के मध्य ' श्री बी . बी . लाल ' , ' श्री बी . के . थापर ' , ' श्री डी . खरे ', के . एम . श्रीवास्तव एवं ' श्री एस . पी . श्रीवास्तव ' के निर्देशन में सम्पादित हुआ था । कालीबंगा की खुदाई में प्राक् हड़प्पा एवं हड़प्पाकालीन संस्कृति के अवशेष प्राप्त हुए हैं। इस उत्खनन से कालीबंगा ' आमरी , हड़प्पा व कोट दिजी ' ( सभी पाकिस्तान में ) के पश्चात हड़प्पा काल की सभ्यता का चतुर्थ स्थल बन गया। 1983 में काली