प्राचीन काल में दो प्रकार के राज्य कहे गए हैं। एक राजाधीन और दूसरा गणाधीन। राजाधीन को एकाधीन भी कहते थे। जहाँ गण या अनेक व्यक्तियों का शासन होता था, वे ही गणाधीन राज्य कहलाते थे। इस विशेष अर्थ में पाणिनि की व्याख्या स्पष्ट और सुनिश्चित है। उन्होंने 'गण' को 'संघ' का पर्याय कहा है (संघोद्धौ गणप्रशंसयो:, अष्टाध्यायी 3,3,86)। प्राचीन संस्कृत साहित्य से ज्ञात होता है कि पाणिनि व बुद्ध-काल पूर्व, अनेक गणराज्य थे। तिरहुत से लेकर कपिलवस्तु तक गणराज्यों का एक छोटा सा गुच्छा गंगा से तराई तक फैला हुआ था। बुद्ध, शाक्यगण में उत्पन्न हुए थे। लिच्छवियों का गणराज्य इनमें सबसे शक्तिशाली था, उसकी राजधानी वैशाली थी। गणसंघ (संस्कृत: गणसङ्घ, समूह की सभा) या गणराज्य (समानता की सरकार), प्राचीन भारत के वे अनेक गणतांत्रिक अथवा अल्पतंत्रिक जनपद या राज्य थे जिनका बोध अनेक प्राचीन साहित्यों में पाया जाता है। कई बौद्ध, हिन्दू और अन्य संस्कृत साहित्यों में इनका उल्लेख है।
ये गणसंघ साधारणतः बड़े राजतंत्रों के सीमांतों पर अवस्थित हुआ करते थे। सामान्यतः इन का राजनैतिक संरचना किसी विशेष कुल या गोत्र की अल्पतंत्र (उदाहरण: शाक्य गणराज्य) या अनेक गोत्रों के महासंघ के रूप की हुआ करती थी (उदाहरण: वज्जि या वृजि - यह आठ गणतांत्रिक कुलों का संघ था)।
गण के निर्माण की इकाई 'कुल' थी। प्रत्येक कुल का एक-एक व्यक्ति गणसभा का सदस्य होता था। उसे 'कुलवृद्ध' या पाणिनि के अनुसार 'गोत्र' कहते थे। उसी की संज्ञा वंश्य भी थी। प्राय: ये राजन्य या क्षत्रिय जाति के ही व्यक्ति होते थे। ऐसे कुलों की संख्या प्रत्येक गण में परंपरा से नियत थी, जैसे लिच्छवी-गण के संगठन में 7707 कुटुंब या कुल सम्मिलित थे। उनके प्रत्येक कुलवृद्ध की संघीय उपाधि 'राजा' होती थी। सभापर्व में गणाधीन और राजाधीन शासन का विवेचन करते हुए स्पष्ट कहा है कि साम्राज्य शासन में सत्ता एक व्यक्ति के हाथ में रहती है। (साम्राज्यशब्दों हि कृत्स्नभाक्) किंतु गण शासन में प्रत्येक परिवार में एक-एक राजा होता है। (गृहे गृहेहि राजान: स्वस्य स्वस्य प्रियंकरा:, सभापर्व, 14,2)। दल का नेता परमवग्र्य कहा जाता था।
गणसभा में गण के समस्त प्रतिनिधियों को सम्मिलित होने का अधिकार था किंतु सदस्यों की संख्या कई सहस्र तक होती थी, अतएव विशेष अवसरों को छोड़कर प्राय: उपस्थिति परिमित ही रहती थी। शासन के लिये अंतरंग अधिकारी नियुक्त किए जाते थे। किंतु नियम निर्माण का पूरा दायित्व गणसभा पर ही था। गणसभा में नियमानुसार प्रस्ताव (ज्ञप्ति) रखा जाता था। उसकी तीन वाचना होती थी और शलाकाओं द्वारा मतदान किया जाता था। इस सभा में राजनीतिक प्रश्नों के अतिरिक्त और भी अनेक प्रकार के सामाजिक, व्यावहारिक और धार्मिक प्रश्न भी विचारार्थ आते रहते थे। उस समय की राज्य सभाओं की प्राय: ऐसे ही लचीली पद्धति थी।
आर्जुंनायन गण जाति-
आर्जुंनायन भी एक प्राचीन गण जाति थी। उनका पाणिनि के अष्टाध्यायी, पतंजलि के महाभाष्य तथा महाभारत में उल्लेख मिलता है। गण पाठ में उनका उल्लेख राजन्य के साथ किया गया है। ऐसा माना जाता है कि आर्जुंनायन एक नवीन समुदाय था और उसके स्थापना शुंगो के बाद हुई थी। शकों और कुषाणों पराजित करने में उन्होंने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी थी। समुद्रगुप्त के प्रयाग-प्रशस्ति में उनका उल्लेख गुज साम्राज्य के सीमान्त क्षेत्र के निवासियों के सन्दर्भ में आता है। इस प्रकार यौधेय 380 ई. तक वर्तमान थे । उन्होंने 100 ई.पू. के आसपास अल्प मात्रा में सिक्के चलाए थे। अंतत: वे राजपूताना में निवास करने लगे थे । इनका निवास स्थान आगरा और मथुरा के पश्चिमी भाग में भरतपुर और अलवर क्षेत्र में था। वे स्वयं को पांडव राजकुमार अर्जुन का वंशज मानते थे। पाणिनि के अष्टाध्यायी में आर्जुनको का उल्लेख मिलता है जो वासुदेव के उपासक थे अत: उन्हें वासुदेवक कहा जाता था। डी.सी. शुक्ल के अनुसार आर्जुंनायन तथा प्रयाग-प्रशस्ति के आर्जुन संभवत: प्राचीन आर्जुनको की शाखा थी। बुद्धप्रकाश का मत है कि आर्जुंनायन सीथियन जाति से संबंधित थे। दशरथ शर्मा के अनुसार उन्होंने शकों तथा कुषाणों के विरुद्ध मालवों से मिलकर संघर्ष किया था। इनके मुद्राएँ धातु निर्मित है। उन पर आर्जुनायना जय अंकित है जिसका तात्पर्य है आर्जुंनायनो की जय हो। ये मुद्राएँ उत्तर क्षत्रपों, यौधेयो, औदश्वरों तथा राजन्यों के सिक्के जैसे है तथा उन पर ब्राह्मी लिपि का प्रयोग किया गया है। आर्जुंनायनो की मुद्राओं पर एक खड़ी हुई आकृति तथा कूबडबवाला वृषभ, हाथी तथा ऊँट का अंकन प्रमुख रूप से है। मेक्रिन्डल का मत है कि यूनानी लेखकों ने जिस अगलसी या अगलसोई जाति का उल्लेख किया है वे अर्जुनायन ही थे।
राजन्य –
राजन्य एक प्राचीन जनपद था। उनका उल्लेख पाणिनि के अष्टाध्यायी, पंतजलि के महाभाष्य और महाभारत में प्राप्त होता है । पाणिनि के अनुसार अंधकवृष्णियों के दो राज्य थे। काशिका के अनुसार राजन्य ऐसे परिवारों के नेता थे जो शासन करने हेतु चिह्नित किए गए थे। हम जानते है कि अंधकवृष्णि एक संघ था तथा इस संघ में कार्यपालिका की शक्ति दो राजन्यों में निहित थी। इनका विधिवत चुनाव होता था। इन संघों में गण व राजन्य दोनों के नाम से सिक्के ढाले जाते थे। उनके कुछ सिक्कों पर केवल राजन्य नाम ही मिलता है। स्मिथ ने इनके सिक्कों के व्याख्या करते हुए उन्हें क्षत्रिय देश के सिक्के माना था जबकि काशीप्रसाद जायसवाल का मत था कि राजन्य एक स्वतंत्र राजनीतिक इकाई थे। उनकी मुद्राएँ 200 से 100 ई.पू. के मध्य जारी के गई थी। स्मिथ ने राजन्यों का क्षेत्र मथुरा, भरतपुर तथा पूर्व राजपूताना स्वीकार किया था। काशीप्रसाद जायसवाल को उनके सिक्के होशियारपुर जिले के मनसवाल से प्राप्त हुए थे । इसलिए उन्होंने होशियारपुर उनका मूल निवास स्थान माना है। राजन्यों के मुद्राओं तथा मथुरा के उत्तरी शकों के मुद्राओं में काफी समानता है। उन पर ब्राह्मी तथा खरोष्ठी में लेख उत्कीर्ण है। सिक्कों पर एक मानव आकृति अंकित है, जो शायद कोई देवता है, जिसका दायाँ हाथ ऊपर उठा हुआ है। इन पर खरोष्ठी में ‘राजन जनपदस’ उत्कीर्ण है। उनके इस प्रकार के सिक्कों पर कूबडवाला बैल अंकित है एवं उन पर ब्राह्मी लेख उत्कीर्ण है। इसके अलावा उनके मुद्राओं पर वृक्ष एवं चीते का अंकन भी मिलता है। डी.सी शुक्ल का मत है कि राजन्य शुंगकाल में उत्तरी और उत्तरी पश्चिमी राजस्थान आए थे।
आभीर –
शुंग कुषाण काल में जिन गणों का उत्कर्ष हुआ, उनमें आभीर गण भी प्रसिद्ध है। आभीरों के उत्पत्ति के संबंध में विवाद है। कुछ विद्वान उन्हें विदेशी उत्पत्ति का मानते है। वे पाँचवी शती ई.पू. के आसपास पंजाब से निर्वासित हो गए थे तथा वहाँ से पश्चिमी, मध्य तथा दक्षिणी भारत चले गए। बुद्धप्रकाश के अनुसार आभीरों का संबंध पश्चिमी एशिया के अपिरू नामक स्थान से था। महाभारत में भी आभीरों का उल्लेख मिलता है। इस विवरण में कहा गया है कि आभीरों के अपवित्र स्पर्श से सरस्वती नदी विनशन नामक स्थान पर लुप्त हो गई थी । इसका अर्थ यह लिया जाता है कि कुरुक्षेत्र के आसपास कुरुओं के शक्ति क्षीण हो गई थी। महाभारत के अनुसार आभीरों ने अर्जुन को जब वह महाभारत के युद्ध के पश्चात् द्वारिका लौट रहा था, पराजित किया था। पुराणों में आभीरों को चतुर, म्लेच्छ तथा दस्यु की तरह बताया गया है। परवर्ती काल में आभीर दक्षिणी पश्चिमी राजस्थान में अवस्थित हो गए इसकी सूचना यूनानी लेखकों से भी प्राप्त होती है।
टॉलेमी ने आभीरों का वर्णन अबीरिया नाम से किया है, जिन्हें सामान्य भाषा में अहीर कहा जाता है। अभिलेखीय प्रमाणों के अनुसार वे पश्चिमी भारत में शासन करते थे, इन्होने प्रतिहारों पर आक्रमण किया था। आभीरों का मंडोर के कक्कुक से 861 ई. में युद्ध हुआ था। कक्कुक ने उन्हें पराजित किया था। आभीरों पर विजय के उपलक्ष्य में घंटियाला में स्तंभ स्थापित किया गया था । मार्कन्डेय पुराण में आभीरों को दक्षिण भारत का निवासी कहा गया है। हेमचन्द्र रायचौधरी के अनुसार वे उत्तरी महाराष्ट्र में शासक थे।
शूद्रगण -
यहाँ शूद्र अथवा शूद्रयाण का तात्पर्य वर्ण व्यवस्था के चतुर्थ वर्ण से भिन्न है। सिकंदर ने जब भारत पर आक्रमण किया तब यह उत्तरी पश्चिमी भारत की प्रमुख जनजाति थी। यूनानी लेखकों ने इसका विवरण सोग्दी, सोद्र, सोग्द्री, सोगदोई नाम से किया है। इसको मस्सनोई से भी संबंधित किया जाता है। संस्कृत-साहित्य में उनका नाम आभीरों के विवरण के साथ आया है। महाभारत के अनुसार शूद्रों और आभीरों के क्षेत्र में सरस्वती विलुप्त हो गई थी। पुराणों में शूद्रों को उदिच्च्य निवासी कहा गया है। संभवत: उनका प्रारंभिक मूल निवास उत्तरी-पश्चिमी भारत में था। वायुपुराण, कूर्म पुराण तथा ब्रह्माण्ड पुराण से भी यही सूचना मिलती है। अर्थवेद में एक शूद्र स्त्री का मूजवंत तथा बाद्दीलक के साथ वर्णन मिलता है। सभी विवरणो में शूद्रों का संबंध उत्तरी-पश्चिमी भारत से बतलाया गया है। यूनानी लेखक डायोडोरस के अनुसार सिकंदर ने साद्रई गण में अलेक्जेंड्रिया नामक नगर को स्थापित किया था एवं उस नगर में 10,000 व्यक्तियों को बसाया गया था। संभवत: किसी समय इस गण के निवासी राजस्थान में पलायन करके आए होंगे।
राजस्थान में प्राचीन शाल जाति का भी विभिन्न स्थानों पर शासन था। महाभारत में शाल्वपुत्र के चर्चा मिलती है। आधुनिक अलवर उसी का बिगड़ा हुआ स्वरूप है । शाल्व जाति मत्स्य के उत्तर में बीकानेर में निवास करती थी। इसी प्रकार उत्तमभद्र जिन्होंने शक सेनापति उषवदात्त से संघर्ष किया था, इसी परिवार का अंग था, जिनका निवास स्थल बीकानेर राज्य के पूर्वी भाग में स्थित भादरा को माना जाता है। इनके पश्चिम में सार्वसेनी या शाल्वसेनी रहते थे। काशिका में उन्हें शुष्क क्षेत्र का निवासी कहा गया है। डॉ. दशरथ शर्मा के अनुसार अरावली के उत्तर पश्चिम में भूलिंग जाति के लोग रहते थे, वे भी संभवत: शाल्व की ही शाखा थे। शाल्व का अपने समय में राजस्थान के बडे भू-भाग पर प्रभाव था।
उदिहिक जनपद
यह जनपद राजन्य जनपद से अधिक दूर नहीं था । वराहमिहिर ने उन्हें मध्यदेश निवासी माना है। अलबरूनी ने उन्हें भरतपुर के निकट बजाना का मूल निवासी कह कर पुकारा है। कुछ मुद्राएँ जिन पर उदिहिक तथा सूर्यमित्रस नाम उत्कीर्ण है, प्राप्त हुई है। संभवत: उदिहिक जनपद के मुद्राएँ प्रथम शती ई.पू. के मध्य में कभी जारी की गई थी। अत: स्पष्ट है कि उदिहिक जनपद शुंगकाल में अवतीर्ण हुआ था ।शाल्व जनपद
राजस्थान में प्राचीन शाल जाति का भी विभिन्न स्थानों पर शासन था। महाभारत में शाल्वपुत्र के चर्चा मिलती है। आधुनिक अलवर उसी का बिगड़ा हुआ स्वरूप है । शाल्व जाति मत्स्य के उत्तर में बीकानेर में निवास करती थी। इसी प्रकार उत्तमभद्र जिन्होंने शक सेनापति उषवदात्त से संघर्ष किया था, इसी परिवार का अंग था, जिनका निवास स्थल बीकानेर राज्य के पूर्वी भाग में स्थित भादरा को माना जाता है। इनके पश्चिम में सार्वसेनी या शाल्वसेनी रहते थे। काशिका में उन्हें शुष्क क्षेत्र का निवासी कहा गया है। डॉ. दशरथ शर्मा के अनुसार अरावली के उत्तर पश्चिम में भूलिंग जाति के लोग रहते थे, वे भी संभवत: शाल्व की ही शाखा थे। शाल्व का अपने समय में राजस्थान के बडे भू-भाग पर प्रभाव था।
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