संगीत मनुष्य के जीवन का अभिन्न अंग हो गया है। मनुष्य, प्रकृति, पशु-पक्षी सभी मिलकर एकतान संगीत की सृष्टि करते हैं। ऐसा मालूम होता है कि समस्त ब्रह्माण्ड ही एक सुन्दर संगीत की रचना कर रहा है। वैसे तो जो भी ऐसा गाया या बजाया जाए जो कर्णप्रिय हो संगीत ही होगा किन्तु कुछ निश्चित नियमों में बँधे हुए संगीत को शास्त्रीय संगीत कहा जाता है। शास्त्रीय संगीत, लोक संगीत अथवा सरल संगीत आदि जो कुछ आज हमें सुनने को मिल रहा है उसका प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप में परम्परागत शास्त्रों के विचारों के साथ-साथ 15वीं, 16वीं, 17वीं शताब्दी के मध्यकालीन भक्ति संगीत से अवश्य प्रभावित है।
अष्टछाप कवि |
मध्यकालीन संगीत में अष्टछाप या हवेली संगीत की स्थापना, पुष्टिमार्ग के प्रवर्तक आचार्य श्री वल्लभाचार्य के पुत्र आचार्य गोस्वामी श्री विट्ठलनाथजी ने श्रीनाथ जी की सेवा करने एवं पुष्टिमार्ग के प्रचार-प्रसार करने के लिए की थी। 'अष्टछाप' कृष्ण काव्य धारा के आठ कवियों के समूह को कहते हैं, जिनका मूल सम्बन्ध आचार्य वल्लभ द्वारा प्रतिपादित पुष्टिमार्गीय सम्प्रदाय से है। जिन आठ कवियों को अष्टछाप कहा जाता है, वे हैं -
1. कुम्भनदास, 2. सूरदास, 3. परमानन्ददास, 4. कृष्णदास,
5. गोविन्दस्वामी, 6. नन्ददास, 7. छीतस्वामी और 8. चतुर्भुजदास।
इनमें उपर्युक्त चार कवि संगीतज्ञ वल्लभाचार्य जी तथा शेष चार गोस्वामी विट्ठलनाथ जी के शिष्य माने गये हैं। उपर्युक्त सभी अष्टछाप कवियों को विट्ठलनाथ जी ने श्रीनाथ मंदिर की अष्टयाम सेवा के लिये नियुक्त किया था।श्रीनाथजी के प्रति पूर्ण रूप से समर्पित ये सभी भक्त आशुकवि होने के साथ-साथ संगीत के मर्मज्ञ भी थे।
द्वारिकेश जी रचित श्री गोवर्धननाथ जी की प्राकट्यवार्ता में उल्लेखित छप्पय में अष्टछाप के संदर्भ में व्याख्या मिलती है-‘सूरदास सो तो कृष्ण तोक परमानन्द जानो।
कृष्णदास सो ऋषभ, छीत स्वामी सुबल बखानो।
अर्जुन कुंभनदास चतुर्भुजदास विशाला।
विष्णुदास सो भोजस्वामी गोविन्द श्री माला।
अष्टछाप आठो सखा श्री द्वारकेश परमान।
जिनके कृत गुणगान करि निज जन होत सुजान।’
वल्लभाचार्य ने शंकर के अद्वैतवाद एवं मायावाद का खण्डन करते हुए भगवान कृष्ण के सगुण रूप की स्थापना की और उनकी भावनापूर्ण भक्ति के लिए भगवान श्रीनाथ जी का मन्दिर बनवाकर पुष्टिमार्गीय भक्ति को स्थापित किया। वस्तुतः विट्ठलनाथ जी ने ही भगवान श्रीनाथजी की अष्टयाम सेवा एवं ‘अष्ट श्रृंगार’ की परम्परा शुरु की थीा। इस अष्टयाम सेवा को आठ भागों में विभक्त किया जाता है -
(1) मंगला (2) शृंगार (3) ग्वाल (4) राजभोग
(5) उत्थापन (6) भोग (7) सन्ध्या आरती और (8) शयन।
अष्टयाम सेवा प्रभु श्रीनाथजी की नित्य की जाने वाली सेवा है। अष्टछाप के इन आठों कवि संगीतज्ञों का कार्य उन अष्टयाम के आठों समयों में उपस्थित रहकर कृष्ण भक्ति के गीत प्रस्तुत करना था। अष्टछाप के संगीतज्ञ कवियों ने ‘अष्ट श्रृंगार’ अथवा ‘अष्टयाम सेवा’ के माध्यम से विभिन्न पदों की रचना की, जो अनेक रागों और तालों में गाए जाते हैं। अष्टयाम सेवा भगवान श्रीनाथ जी की सेवा का एक दैनिक क्रम है जो प्रातःकाल से ही प्रारंभ होकर संध्या तक चलता है। श्रीनाथजी के मंदिर में विभिन्न अवसरों, त्यौहारों एवं तिथियों पर प्रभु श्रीनाथजी की विशेष सेवा एवं श्रृंगार से युक्त विभिन्न उत्सवों का आयोजन किया जाता है। वर्ष भर में विशेष दिवसों पर इन उत्सवों का आयोजन होता है, इसीलिए इन्हें वर्षोत्सव सेवा कहते हैं। इसमें षट्-ऋतुओं के उत्सव, अवतारों की जयन्तियाँ, अलग-अलग त्यौहार, तिथियाँ तथा पुष्टिमार्ग के आचार्यों एवं उनके वंशजों के जन्मोत्सव सम्मिलित होते हैं। पुष्टिमार्गीय पूजा पद्धति में इस वर्षोत्सव सेवा को विशेष महत्त्व दिया जाता है। वर्षोत्सव सेवा के अन्तर्गत दैनिक सेवा (नित्य सेवा) के अतिरिक्त विशेष रूप से श्रृंगार, राग तथा भोगों की व्यवस्था होती है।
पुष्टिमार्ग में प्रभु श्रीनाथजी की सेवा श्रृंगार, भोग और राग के माध्यम से की जाती है। पुष्टिप्रभु संगीत की स्वर लहरियों में जागते हैं। उन्ही स्वर लहरियों के साथ श्रृंगार धारण करते हैं और भोग आरोगते हैं। वे संगीत के स्वरों में ही गायों को टेरते और व्रजांगनाओं को आमंत्रित करते हैं तथा रात्रि में मधुर संगीत का आनन्द लेते ही शयन करते हैं। पुष्टिमार्ग में ऋतुओं में क्रम से वस्त्रों एवं अलंकारों का चयन किया जाता है तथा भोग में किस दिन किस झाँकी में कौन सा भोग कितनी मात्रा में होना चाहिए, इसका भी एक निश्चित विधान है। इसी प्रकार पुष्टिमार्गीय मंदिरों में ऋतु एवं काल के अनुरूप राग-रागिनियों का निर्धारण किया जाता है तथा तदनुरूप
भगवद्भक्तिपूर्ण पदों का गायन (कीर्तन) किया जाता है। इस कीर्तन में परम्परागत वाद्य यंत्रों के द्वारा संगत होती है।
कीर्तनिया या कीर्तनकार-
पुष्टिमार्ग ने संगीत के
क्षेत्र में सैकडो संगीतकार प्रदान किए है। श्रीनाथजी हवेली में की जाने वाली गायन-क्रिया को कीर्तन कहा जाता है और कीर्तनकार गायक को कीर्तनिया कहा जाता है। इस प्रकार पुष्टिमार्गीय पूजा परंपरा में कीर्तन का विशेष महत्त्व है। यदि परम्परा में कीर्तनियाँ न हो तो सेवा पूरी नहीं समझी जाती है। पुष्टिमार्ग में अष्टछाप के पदों से युक्त कीर्तन अन्य मदिरों में होने वाले मंत्रोच्चारण के समान महत्व रखते हैं। अन्य सम्प्रदायों के मन्दिरों में सेवा अथवा पूजा का क्रम मन्त्रोच्चारण से पूर्ण होता है, लेकिन पुष्टिमार्ग में मन्त्रोच्चारण के स्थान पर कीर्तन ही किया जाता है। इस कीर्तन में कीर्तनिये अष्टछाप कवियों द्वारा रचित पद गाते हैं। अष्टछाप संगीत की गायन की विधि शुद्ध शास्त्रीयता पर आधारित होती है। इसमें रागों की सुनियोजित योजना होती है। इसमें नित्य-सेवा क्रम से कीर्तन की अपनी अलग प्रणालिकाएं हैं। जैसे- नित्य क्रम में राग भैरव, देवगंधार आदि से प्रारम्भ करके बिलावल, टोड़ी व आसावरी आदि (सर्दियों में) रागों से गुजरते हुए संध्या को पूर्वी व कल्याणादि तक पहुँचते हैं तथा उसके पश्चात् अन्य रागों के व्यवहार के साथ-साथ अन्त में शयन कराने के लिए आवश्यक रूप से बिहाग राग का प्रयोग होता है।
वर्तमान शास्त्रीय संगीत में तीन ताल का प्रयोग सर्वाधिक होता है। उसी प्रकार ब्रज अथवा मथुरा के अष्टछाप संगीत में धमार ताल का सर्वाधिक प्रयुक्त होता है, जबकि नाथद्वारा में आडाचारताल का प्रयोग अधिक होता है। वहाँ पर थोड़ा द्रुत लय में इस ताल का प्रयोग होता है। गायन की ध्रुपद धमार शैली और रास-नृत्य शैली ने अष्टछाप संगीत को अमरता प्रदान किया।
चतुर्भुजदास कृत ‘षट् ऋतु वार्ता’ में 36 वाद्यों का उल्लेख मिलता है, जिनका पुष्टिमार्गीय अथवा अष्टछाप के मन्दिरों में प्रयोग होता था। उनमें से तानपूरा (तंबूरा), वीणा, पिनाक, मृदंग अथवा पखावज, सारंगी, रबाब, जंत्र, बाँसुरी, मुरज, दुंदुभि, भेरि, शहनाई, ढोल, खंजरी, झाँझ, मंजीरा, महुवरि, तुरही, शृंगी, शंख, मुख्य वाद्य यन्त्र हैं।
अष्टछाप संगीत को क्यों कहते हैं हवेली संगीत-
मथुरा, नाथद्वारा, मथुरा के निकट स्थित गोवर्धन पर्वत, कांकरोली (द्वारकाधीश जी), कामा, कोटा आदि पुष्टिमार्गीय भक्ति साधना के प्रमुख स्थल हैं। मुगल बादशाह औरंगजेब की धार्मिक कट्टरता की मानसिकता के कारण संवत् 1720 वि0 में श्रीनाथजी के स्वरूप को राजस्थान के नाथद्वारा में ले जाया गया था। मन्दिरों और मूर्तियों को बचाने के लिए मूर्तियों को मन्दिरों से हटाकर हवेलियों में सुरक्षित रखा गया तथा वहाँ पर उसी विधान से श्रीनाथजी की सेवा की जाने लगी। कालान्तर में इन हवेलियों में विग्रह स्थापना और अष्टयाम सेवा के होने के कारण अष्टछाप संगीत को हवेली संगीत भी कहा जाने लगा। अष्टछाप कवि संगीतज्ञों ने भगवान कृष्ण के लोकरंजक स्वरूप व माधुर्य से पूर्ण लीलाओं का चित्रण किया है। वात्सल्य और श्रृंगार का ऐसा अद्भुत वर्णन किसी और साहित्य में नहीं प्राप्त होता है। प्रेम की स्वाभाविकता और प्रेम की विशदता के दर्शन इस भक्ति काव्य में प्राप्त होते हैं। इनमें की गई कृष्ण-लीलाओं का वर्णन भक्तों को रस व आनन्द प्रदान करता है। मध्यकाल के जब महिलाओं का घर से निकलना अवरुद्ध था, तब इन कृष्ण भक्त अष्टछाप कवि संगीतज्ञों ने अपने काव्य व संगीत के माध्यम से नारी मुक्ति की प्रस्तावना लिख दी थी। कृष्ण काव्य धारा के इन कवि-संगीतज्ञों ने गोपियों के माध्यम से नारियों को प्रतीकात्मक अर्थ में मुक्ति प्रदान की थी।
अष्टछाप काव्य गहन अनुभूतियों का काव्य है। इन कवियों की रचनाएँ प्रायः मुक्तक में हैं। हवेली संगीत की ब्रज-मधुरता विलक्षण है। ब्रज भाषा में रचित इन रचनाओं में अत्यंत माधुर्यपूर्ण संगीतमय काव्य है। इसी का परिणाम है कि बाद में आने वाले रीतिकाल में ब्रजभाषा एकमात्र काव्य भाषा बन गई थी। दोहा, कवित्त, सवैया आदि के प्रयोग द्वारा इन भक्त कवियों ने लयात्मकता और संगीतात्मकता के प्रति गहरा जुड़ाव बनाए रखा। इसी कारण इन कवि संगीतज्ञों ने प्रायः सभी पद किसी न किसी राग को आधार बनाकर रचे हैं। उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा आदि अलंकारों तथा बिम्बों और प्रतीकों के माध्यम से अष्टछाप कवि संगीतज्ञों ने काव्य और संगीत को गहनता प्रदान की है।
जय श्री कृष्ण।।
ReplyDeleteजय श्री कृष्ण
DeleteVery informative blog....
ReplyDeleteधन्यवाद दिव्यप्रभा पालीवाल.
Deleteजय श्री कृष्णा वाह अतिसुंदर आलेख । और शेयर करते रहें
ReplyDeleteधन्यवाद योगेश जी. जय श्रीकृष्ण...
DeleteNice post bro For more Marwadi status click here
ReplyDeleteTHANK YOU SO MUCH...
DeleteI wish for the great of success in all of our destiny endeavors
ReplyDeleteआपका आभार ।।
Deleteजयश्रीकृष्ण बधाई excellent
ReplyDeleteआपका बहुत बहुत आभार धन्यवाद ।।
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