हिन्दू देवमण्डल में सूर्य का अत्यन्त महत्त्वपूर्ण स्थान था। सूर्य को वैदिककाल से ही देवता के रूप में प्रतिष्ठा प्राप्त है। सूर्य की कल्पना जगत के प्रकाश के स्वामी के रूप में की गयी है। संभवतः सूर्य प्रकृति की उन शक्तियों में था, जिसे सर्वप्रथम देवत्व प्रदान किया गया। सूर्यदेव को हिन्दू धर्म के पंचदेवों में से प्रमुख देवता माना जाता है। सूर्यदेव की उपासना करने से ज्ञान, सुख, स्वास्थ्य, पद, सफलता, प्रसिद्धि आदि प्राप्त होता है। भारत में सूर्य पूजा सदियों से प्रचलित रही है। विद्वानों के अनुसार आज जिस देवत्रयी में ब्रह्मा, विष्णु और महेश को सम्मिलित किया जाता है, वस्तुतः किसी समय सूर्य, विष्णु और महेश को सम्मिलित किया जाता था। राजपूताना म्यूजियम अजमेर में दसवीं, ग्यारहवीं व बारहवीं सदी की सूर्य प्रतिमाएं है। भरतपुर संग्रहालय में दसवीं-ग्यारहवीं सदी की दो सूर्य प्रतिमाएँ विद्यमान है। चौहान राजा उदयसिंहदेव के भीनमाल अभिलेख वि.सं. 1306 (1249 ई.) का आरम्भ ‘‘नमः सूर्याय’’ से हुआ है। इसी अभिलेख में जगत स्वामी (सूर्य) के मन्दिर में माथुर (कायस्थ) ठाकुर उदयसिंह के दो पुत्रों द्वारा चालीस द्रम्म दान स्वरूप दिये जाने का उल्लेख हुआ है। श्री श्रीमाल पुराण नामक ग्रन्थ में भी भीनमाल में सूर्याेपासना की पुष्टि होती है। पोकरण स्थित बालकनाथ मन्दिर के कीर्तिस्तम्भ अभिलेख का प्रारम्भ ‘‘नमः सूर्याय’’ से हुआ है। इसी मन्दिर के एक भाग पर स्थानक सूर्य प्रतिमा उत्कीर्ण है। इसकी मूर्ति में भगवान अंशुमाली के हाथों में कमल तथा घुटनों तक वनमाला लटक रही है। मारवाड़ में ओसियाँ, मण्डोर, पोकरण, किराडू (किरातकूप), बीथू, पाली आदि स्थानों पर सूर्य की प्राचीन प्रतिमाएँ मिली है।
सूर्य की उपासना के सम्बन्ध में यह माना गया है कि शाकल द्वीपी ब्राह्मणों के भारत आगमन से सूर्य की उपासना में तेजी होने लगी। इस मध्यकालीन युग से प्राप्त अभिलेखों, सूर्य मन्दिरों एवं सूर्य प्रतिमाओं से पता चलता है कि यहाँ सूर्य पूजा व्यापक रूप से प्रचलित थी। छठीं शताब्दी से यहाँ सूर्य पूजा काफी प्रसिद्ध रही है। इसमें सिरोही जिला अतिमहत्वपूर्ण है, इतिहासकार डाॅ. ओझा का कहना है कि 600-1400 ई. तक सिरोही राज्य में कोई ऐसा गाँव नहीं था, जहाँ खण्डित सूर्य मन्दिर की प्रतिमा न हो। राजस्थान में सिरोही जिले का वसंतगढ़ सूर्य मंदिर अब खण्डहर रूप में ही बचा है जबकि भीनमाल में स्थित जगत स्वामी सूर्य मंदिर पूर्णतः नष्ट हो चुका है, किंतु राज्य में आज भी बहुत से प्राचीन सूर्य मंदिर रणकपुर (उदयपुर), झालरापाटन, ओसियाँ, बामणेरा, मन्देसर और टूस (उदयपुर), देवका (बाड़मेर), गलता (जयपुर) आदि स्थानों में स्थित हैं।
सूर्य की उपासना के सम्बन्ध में यह माना गया है कि शाकल द्वीपी ब्राह्मणों के भारत आगमन से सूर्य की उपासना में तेजी होने लगी। इस मध्यकालीन युग से प्राप्त अभिलेखों, सूर्य मन्दिरों एवं सूर्य प्रतिमाओं से पता चलता है कि यहाँ सूर्य पूजा व्यापक रूप से प्रचलित थी। छठीं शताब्दी से यहाँ सूर्य पूजा काफी प्रसिद्ध रही है। इसमें सिरोही जिला अतिमहत्वपूर्ण है, इतिहासकार डाॅ. ओझा का कहना है कि 600-1400 ई. तक सिरोही राज्य में कोई ऐसा गाँव नहीं था, जहाँ खण्डित सूर्य मन्दिर की प्रतिमा न हो। राजस्थान में सिरोही जिले का वसंतगढ़ सूर्य मंदिर अब खण्डहर रूप में ही बचा है जबकि भीनमाल में स्थित जगत स्वामी सूर्य मंदिर पूर्णतः नष्ट हो चुका है, किंतु राज्य में आज भी बहुत से प्राचीन सूर्य मंदिर रणकपुर (उदयपुर), झालरापाटन, ओसियाँ, बामणेरा, मन्देसर और टूस (उदयपुर), देवका (बाड़मेर), गलता (जयपुर) आदि स्थानों में स्थित हैं।
१- सूर्य नारायण मंदिर रणकपुर (Surya Narayan Temple, Ranakpur) -
राजस्थान के उदयपुर से करीब 98 किलोमीटर दूर रणकपुर नामक स्थान में अवस्थित सूर्य मंदिर एक प्रसिद्ध सूर्य मंदिर है, जिसे सूर्य नारायण मंदिर के नाम से जाना जाता है। यह सूर्य मंदिर, नागर शैली में सफेद संगमरमर से बना है। सुंदर सूर्य नारायण मंदिर भगवान सूर्य को समर्पित मंदिर है, जो अपने अद्वितीय और अद्भुत वास्तुशिल्प डिजाइन के लिए जाना जाता है। यह सूर्य मंदिर कई भक्तों और पर्यटकों को आकर्षित करता है। दीवारों पर की गयी नक्काशियाँ भगवान् सूर्य से सम्बन्धित विभिन्न दृश्यों को दर्शाती हैं। इन दृश्यों में से एक में, भगवान् सूर्य अपने सात घोड़ों से जुटे हुए रथ में सवार हैं जो कि एक मनमोहक दृश्य है।
रणकपुर के सूर्य मन्दिर के ब्राह्म खण्ड बड़ी मूर्तियाँ में ऊपर का भाग ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव का है और नीचे का भाग सूर्य का जिसके पैरों में दीर्घाकार पादत्राण है।
भारतीय वास्तुकला का अनुपम उदाहरण इस मंदिर के लिए ऐसा कहा जाता है कि इसका निर्माण 15वीं सदी में किया गया था। इस सूर्य मंदिर में, भगवान सूर्य की रथ पर सवार मूर्ति है। मंदिर की दीवारों पर योद्धाओं, घोड़ों और देवताओं की प्रतिमाओं की अद्भुत नक्काशी हुई है, जो उस युग के लोगों की कलात्मक उत्कृष्टता का प्रतिनिधित्व करती है। इसके गर्भगृह से पहले एक अष्टकोणीय मंडप है। अष्टकोणीय मंडप में छह बरामदे हैं।
रणकपुर के सूर्य मन्दिर के ब्राह्म खण्ड बड़ी मूर्तियाँ में ऊपर का भाग ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव का है और नीचे का भाग सूर्य का जिसके पैरों में दीर्घाकार पादत्राण है।
भारतीय वास्तुकला का अनुपम उदाहरण इस मंदिर के लिए ऐसा कहा जाता है कि इसका निर्माण 15वीं सदी में किया गया था। इस सूर्य मंदिर में, भगवान सूर्य की रथ पर सवार मूर्ति है। मंदिर की दीवारों पर योद्धाओं, घोड़ों और देवताओं की प्रतिमाओं की अद्भुत नक्काशी हुई है, जो उस युग के लोगों की कलात्मक उत्कृष्टता का प्रतिनिधित्व करती है। इसके गर्भगृह से पहले एक अष्टकोणीय मंडप है। अष्टकोणीय मंडप में छह बरामदे हैं।
२- सूर्य मंदिर, झालरापाटन (Surya Temple Jhalarapatan) -
सात सहेलियों का मंदिर किस जिले में स्थित है?
राजस्थान में झालावाड़ जिले के झालरापाटन शहर का सूर्य मंदिर यहाँ के प्रमुख पर्यटन स्थलों में से एक है। मंदिर के गर्भगृह में भगवान विष्णु की प्रतिमा विराजमान है। इसे पद्मनाभ मंदिर, बड़ा मंदिर, सात सहेलियों का मंदिर आदि अनेक नामों से भी जाना जाता है। यह मूर्ति सफेद पत्थर में निर्मित है। अद्भुत बात यह है कि जब सूर्य की पहली किरणें मूर्ति के पैर को छूती हैं और सूर्यदेव की इस मूर्ति को भगवान सूर्य की सर्वश्रेष्ठ मूर्ति के रूप में मान्यता दी गई है। यह मंदिर अपनी प्राचीनता और स्थापत्य वैभव के कारण प्रसिद्ध है। शिल्प सौन्दर्य की दृष्टि से मंदिर की बाह्य एवं आंतरिक मूर्तिशिल्प वास्तुकला की चरम उत्कर्ष को प्रदर्शित करता है।
राजस्थान का कोणार्क किसे कहा जाता है ?
इस मंदिर की वास्तुकला कोणार्क सूर्य मंदिर और खजुराहो के मंदिर से मिलती जुलती है। मंदिर का निर्माण सूर्य के सात घोड़े वाले रथ की तरह है। इसी तरह इस मंदिर की आधारशिला ऐसी लगती है, जैसे वहाँ सात घोड़े विद्यमान हों। मंदिर में प्रवेश करने के लिए, तीन तरफ से तोरण द्वार बनाया गया है। बीच में एक मंडप है जो विशाल स्तंभों पर टिका है। स्तंभों पर अद्भुत कला उत्कीर्ण की गयी है। मंदिर के गर्भ गृह के बाहर मंदिर के तीन ओर उकेरी गई मूर्ति मंदिर और वास्तुकला की एक अनूठी मिसाल है। मंदिर का शीर्ष भूतल से लगभग 97 फीट ऊँचा है।सबसे अद्भुत बात यह है कि मंदिर के चारों तरफ विराजित साधु की मूर्ति, इन मूर्तियों की व्यवस्था इतनी सुंदर है कि यह मूर्ति बिल्कुल सजीव है, ऐसा लगता है कि जैसे साधु वास्तव में घूम रहा है। प्रतिमाओं की केश सज्जा, जटा, पगड़ी और मुखड़ा या अन्य व्यक्ति भी बिल्कुल सजीव लगते हैं। शरीर सौष्ठव इतना नपा-तुला है, और भावमयी भंगिमा भी इतनी जीवंत है कि आपको लगता है कि ये सारी चीजें रात में जीवंत हो जाएंगी।
मंदिर का ऊर्ध्वमुखी कलात्मक अष्टदल कमल अत्यन्त सुन्दर एवं मनमोहक है। शिखरों के कलश अत्यन्त आकर्षक है। गुम्बदों की आकृति को देखकर मुग़लकालीन स्थापत्य एवं वास्तुकला का स्मरण हो जाता है। झालरापाटन के इस मंदिर का निर्माण सूर्य मंदिर में प्राप्त शिलालेख के अनुसार संवत 872 (9 वीं सदी) में गुर्जर प्रतिहार वंश के नागभट्ट द्वितीय द्वारा कराया गया था।
राजस्थान के किस सूर्य मंदिर को कनिंघम ने दूसरा खजुराहो कहा है ?
मंदिर के पीछे की मूर्तियां शिल्पकला का सबसे अच्छा उदाहरण हैं। इतिहासकार कनिंघम ने इस मंदिर को दूसरा खजुराहो कहा है। कर्नल जेम्सटॉड ने इसे चतुर्भुज मंदिर (चारभुजा मंदिर) का नाम दिया था।
इस मंदिर का जीर्णोद्धार शक संवत 1871 में अर्थात विक्रम संवत 1736 मिति जेठ सुदी 11 को झाला जालिम सिंह दीवान द्वारा कोटा महाराव उम्मेद सिंह-I और राजकुमार किशोर सिंह के काल में कराया था। इस मंदिर के ऊपर में स्वर्ण कलश रखा गया था।
इस मंदिर का जीर्णोद्धार शक संवत 1871 में अर्थात विक्रम संवत 1736 मिति जेठ सुदी 11 को झाला जालिम सिंह दीवान द्वारा कोटा महाराव उम्मेद सिंह-I और राजकुमार किशोर सिंह के काल में कराया था। इस मंदिर के ऊपर में स्वर्ण कलश रखा गया था।
३-देवका (बाड़मेर) सूर्य मन्दिर (Sun Temple Devka Barmer )-
राजस्थान के सीमावर्ती बाड़मेर जिले के बाड़मेर-जैसलमेर मार्ग पर देवका गांव में 12 वीं शताब्दी का जीर्ण-शीर्ण ऐतिहासिक सूर्य मंदिर एवं अन्य प्राचीन मंदिरों का समूह स्थित है। बाड़मेर से करीब 72 मील दूर देवका के इस प्राचीन सूर्यमंदिर का राजस्थान के पुरातत्व में महत्वपूर्ण स्थान है। देवका के मंदिर समूह में सूर्य मंदिर के अतिरिक्त शिव, कुबेर और विष्णु के मंदिर भी विद्यमान हैं। सूर्य पूजा के प्राचीन महत्व को दर्शाने वाले यहाँ के पूर्वाभिमुख शिखरवाले सूर्य मंदिर के अंदर गर्भगृह बना है तथा आगे सभामंडप बना हुआ है। सभामंडप के उत्तर और दक्षिण में अत्यंत सुंदर गोख व मकर तोरण निर्मित हैं।
सभामंडप के एक स्तम्भ पर संवत 1631 फाल्गुन सुदी 7 और बाईं ओर संवत 1674 के लेख उकेरे गए हैं। मंदिर के मूल गंभारे पर द्वारपालिका, सूर्य स्थानक पत्रलता, सूर्य तथा द्वारपाल की मूर्तियाँ उकेरी हुई हैं। इन आकृतियों के कारण इस सूर्य मंदिर को सिद्ध माना जाता है। इस सूर्य मंदिर के शिखर पर छोटे-छोटे छिद्र हैं और इसे छोटी-छोटी पट्टिकाओं को जोड़ कर बनाया गया है। शिखर के ऊपर गोलाकार पत्थर स्थित है, जिस पर रेखाएं अंकित हैं। इसके पीछे ताक में पश्चिमाभिमुख परशुराम, उत्तर में कुबेर तथा दक्षिण में ब्रह्माजी की प्रतिमाएं पूजित हैं। इन मूर्तियों के पास कुछ और प्रतिमाएं भी हैं, जो क्षतिग्रस्त होने के कारण पहचानी नहीं जा सकती हैं।
मंदिर के चारों कोनों पर चार छोटी देवकुलिकाएं अंकित होने का आभास होता है। मंदिर के उत्तरी और दक्षिणी हिस्से में दो देवलियां विद्यमान हैं। उत्तराभिमुख देवली कुबेर की है, जिसके बाह्य भाग पर पूर्व में शिव-पार्वती, पश्चिम में ब्रह्मा और दक्षिणी भाग में कुबेर सपत्नीक विराजमान हैं। आगे के भाग में मूल देवली के प्रवेश द्वार पर कुबेर की लघु आकृतियां उकेरी हुई हैं।
मंदिर के चारों कोनों पर चार छोटी देवकुलिकाएं अंकित होने का आभास होता है। मंदिर के उत्तरी और दक्षिणी हिस्से में दो देवलियां विद्यमान हैं। उत्तराभिमुख देवली कुबेर की है, जिसके बाह्य भाग पर पूर्व में शिव-पार्वती, पश्चिम में ब्रह्मा और दक्षिणी भाग में कुबेर सपत्नीक विराजमान हैं। आगे के भाग में मूल देवली के प्रवेश द्वार पर कुबेर की लघु आकृतियां उकेरी हुई हैं।
इसके सामने स्थित शिव देवली के बाहरी भाग पर पूर्व में गणेश और दक्षिण में सूर्य की मूर्तियां अलंकृत प्रतीत होती हैं। इस मंदिर के पार्श्व भाग की पट्टी पर नवगृह और मध्यम में शिव की मूर्तियां दृश्य हैं। इस देवली की जीर्ण-शीर्ण सीढ़ियोँ से नीचे उतरने पर उत्तर की तरफ एक गोवर्धन स्तम्भ है, जहाँ पर उमा, महेश, सूर्य, गणेश और गोवर्धन पर्वत धारण किए हुए भगवान कृष्ण की प्रतिमाएं हैं। सूर्य मंदिर के सामने इस परिसर मेँ यहाँ एक विष्णु मंदिर भी है। इस विष्णु मंदिर की प्रवेश द्वार पट्टिका पर ब्रह्मा, सूर्य, नवग्रहों, राहु-केतु तथा विष्णु की मूर्तियां अलंकृत हैं। इस मंदिर के परिक्रमा स्थल पर भी प्रतिमाएं उत्कीर्ण हैं, परंतु जीर्ण-शीर्ण होने के कारण इनकी आकृतियां स्पष्ट पहचानी नहीं जा सकती हैं। इन मंदिरों के समीप ही देवका गांव है जिसके तालाब के किनारे स्मारको पर प्राचीन शिलालेख अंकित है, जो पुरातत्ववेत्ताओं के लिए शोध का विषय है। कहा जाता है कि सूर्य मंदिर के चारों कोनों पर चार अप्रधान मंदिर पालीवालों ने बनवाए थे। इस मंदिर के परिसर में दो और मंदिर हैं, जिनमें एकल पत्थर पर बनी गणेशजी की मूर्तियां बहुत सुंदर लगती हैं।
माघ माह में शुक्ल सप्तमी को यहां सूर्य सप्तमी का पर्व मनाया जाता है। भगवान सूर्य के इस चिह्न का पंचामृत से अभिषेक किया जाता है। उसके बाद प्रात:काल एक शोभा यात्रा यहां से रवाना होती है।
वर्तमान में देवालय के गर्भगृह में कालिका माता की प्रतिमा प्रतिष्ठित है, किंतु मंदिर के जंघा भाग तक के स्थापत्य और मूर्तियों को देखने से स्पष्ट होता है कि मूलतः यह सूर्य मंदिर था। रत्नचंद्र अग्रवाल इसे आठवीं शताब्दी ईस्वी का मानते हैं, जबकि पं गौरीशंकर हीराचंद ओझा ने इसे दसवीं शताब्दी ईस्वी में निर्मित होना माना है। माना जाता है कि आठवीं सदी ईस्वी में बापा रावल ने चित्तौड़ दुर्ग पर अपना अधिकार स्थापित किया तथा अपने कुलदेवता सूर्य की पूजा के लिये इस सूर्य मंदिर का निर्माण करवाया। इस दृष्टि से यह मंदिर इस दुर्ग परिसर की सबसे पुरानी रचना सिद्ध होता है।
मंदिर में स्थापित सब मूर्तियां एवं मूर्तिपट्ट जिस क्रम एवं प्रक्रिया में हैं, वे इस मंदिर के सूर्य मंदिर के रूप में निर्माण की कहानी कहते हैं। इस मंदिर में भगवान सूर्य की श्वेत प्रतिमा स्थापित है। सूर्य की प्रतिमा के हाथ में चक्र अनिवार्यतः उकेरा जाता है। यहाँ भी प्रतिमा के हाथ में चक्र उत्कीर्ण है, जो पद्म के समान आभासित होता है। वर्तमान में इसी प्रतिमा को काली की प्रतिमा कहा जाता है, लेकिन यह सही नहीं है। काली माँ की मूर्ति सफेद पत्थर की होती है, न कि काले पत्थर की। इसके अलावा एक बात और यह है कि काली की प्रतिमा में चक्र का अंकन नहीं होता है। सफेद पत्थर की प्रतिमा के पास काले पत्थर की काली की एक प्रतिमा भी स्थापित है, जो कि शास्त्र सम्मत नहीं है, क्योंकि किसी भी मंदिर में प्रधान देवता के एक ही स्वरूप की दो प्रतिमाएं स्थापित नहीं होती हैं।
मंदिर की जगती दुर्ग के धरातल से ऊपर उठी हुई है। मंदिर का प्रवेश द्वार पूर्वाभिमुख है तथा द्वार की तरफ जगती तक चढ़ने के लिये सात-सात सीढि़यों के खण्ड में विभाजित प्रवेश पथ है। मंदिर के गर्भगृह के भीतर अन्तर-प्रदक्षिणा पथ एवं बाह्य-प्रदक्षिणा पथ बना है।
मंदिर के गर्भगृह के प्रवेश द्वार के बाहर ऊपर की तरफ सात अश्वों के रथ पर आरूढ़ सूर्य की प्रतिमा बनी है तथा उसके बांई तरफ लक्ष्मी के साथ गरुड़ पर विराजित विष्णु और दाहिनी तरफ नन्दी पर बैठे शिव-पार्वती की प्रतिमाओं का अंकन है। गर्भगृह के उत्तर-दक्षिण में बनी ताकों में सप्ताश्व रथ पर आरूढ़ सूर्य की प्रतिमाएं अंकित हैं। गर्भगृह के बाहर जो प्रतिमाएं अंकित हैं वे है-
मंदिर के बाहरी भाग की ताकों में शिव-पार्वती, वराह, समुद्र मंथन आदि से सम्बन्धित मूर्तियां लगी हुई हैं। मंदिर का सभामण्डप पारम्परिक वृहद् स्तम्भों पर खड़ा है, जिन पर घट, पल्लव पत्र, लता, मकर, कीर्ति मुख, कीचक अभिप्राय आदि का अलंकरण किया गया है।
इस प्रकार अपनी वास्तु स्थिति एवं मंदिर के गर्भगृह के द्वार, ताकों एवं सभा मण्डप इत्यादि भागों पर किया गया प्रतिमा अंकन एवं अलंकरण इस मंदिर को दक्षिणी राजस्थान के इतिहास के समस्त युगों की अति विशिष्ट स्थापत्य रचना होना सिद्ध करता है।
मेवाड़ क्षेत्र में 7वीं-8वीं शताब्दी से लेकर 11वीं सदी तक विभिन्न स्थानों पर सूर्य मंदिरों का निर्माण हुआ। चित्तौड्गढ़ का वर्तमान कालिका माता मंदिर मूलत: सूर्य मंदिर है। उदयपुर के महाराणा प्रताप हवाई अड्डे के पास मंदेसर गांव में भी एक सूर्य मंदिर है। इतिहासवेत्ता डॉ. श्रीकृष्ण 'जुगनू' के अनुसार स्थापत्य रचना के आधार पर मंदेसर का सूर्य मंदिर 10वीं सदी का माना गया है, किंतु यह 9वीं सदी में निर्मित हुआ होना चाहिए क्योंकि इसमें दिक्पाल दो भुजाओं वाले हैं और उनका विधान प्राचीन शिल्प की परंपरा को लेकर हुआ है। उनके आभरण-अलंकरण भी उसी काल के दिखाई देते हैं। सुरसुंदरियों आदि की मूर्तियां निश्चित ताल-मान के आधार पर ही बनी है। वर्तमान में इस मंदिर में ग्रामीणों ने बंसी वाले श्याम की प्रतिमा विराजित कर रखी है क्योंकि इसकी मूल प्रतिमा तो सालों पहले ही नदारद हो गई थी।
पूर्वमुखी यह मंदिर प्रवेश मंडप, सभा मंडप और गर्भगृह - इन तीन स्तरों पर नागर शैली में निर्मित है। मूलशिखर अब नहीं रहा किंतु, मंडप से लेकर गर्भगृह की बाहरी भित्तियों पर मूर्तियां खंडित ही सही, मगर मौजूद है। इनमें सूर्य के स्थानक और सप्त अश्वों पर आरूढ़ रूप की मूर्तियां अपने सुंदर सौष्ठव-सुघड़ता और भव्य भास्कर्य के लिए पहचानी जाती हैं। दिक्पालों एवं उनके आजू-बाजू सुर-सुंदरियों का तक्षण किया गया। दिशानुसार दिक्पालों के दोनों भुजाओं में आयुध बनाए थे तथा नीचे तालानुसार उनके वाहन को भी उकेरा गया है।
सुर-सुंदरियां गतिमयता के साथ प्रदर्शित की गई हैं। यहां मूर्तियों का केश विन्यास व आभूषण सज्जा अत्यंत रोचक है। इनमें पद, कटि, अंगुलियों, कलाइयों, भुजाओं, ग्रीवा, कर्ण, नासिका से लेकर सिर तक आभूषणों को धारण करवाया गया है। कहीं अलस-कन्या सी अंग रचना तो कहीं त्रिभंगी रूप में स्थानक रूप, सभी अनुपम है। उनके इर्द-गिर्द सिंह-शार्दूलों को उकेर कर कायिक वेग को साकार करने का जो प्रयास बहुत ही राेमांचकारी लगता है। मंदिर के पीछे प्रधान ताक में सूर्य की अरुण सारथी सहित सप्ताश्व रथ पर सवार प्रतिमा है, जबकि उत्तर-दक्षिणी ताकों में स्थानक सूर्य की प्रतिमाएं हैं। इन पर आकाशीय देवताओं, नक्षत्रों का मानवीकरण करते हुए प्रतिमाओं का अंकन किया गया है।
इतिहासवेत्ता डॉ. श्रीकृष्ण 'जुगनू' के अनुसार यह सूर्य मंदिर सालों पहले सूर्य आदि ग्रहों व नक्षत्रों के आधार पर आने वाले समय के सुकाल-अकाल होने की उद्घोषणा का केंद्र रहा है। यह मान्यता मेवाड़ के लगभग सभी सूर्य मंदिरों के साथ जुड़ी है, मगर अब ऐसी उद्घोषणाएं लोकदेवताओं के देवरों में होने लगी है। वर्तमान में यह मंदिर राजस्थान पुरातत्व विभाग के अधिकार में है।
राजस्थान के अन्य मंदिरों की तुलना में इस मंदिर के गर्भगृह के बाह्य ताखों की सभी मूर्तियाँ आकार में बड़ी है। इसके अंतराल की बाह्य भित्ति पर भी सूर्य की एक विचित्र प्रतिमा है, जिसे दो स्त्री मूर्तियों के साथ उत्कीर्ण किया गया है। इन स्त्रियों का अंकन सूर्यदेव की पत्नी के रूप में कम तथा अप्सरा मूर्तियों की मुद्रा में अधिक प्रतीत होता है।
४ -प्राचीन सूर्य मंदिर गलता, जयपुर (Sun Temple Galta, Jaipur)-
राजस्थान की राजधानी जयपुर में गलता की पहाड़ी पर स्थित प्राचीन सूर्य मंदिर की स्थापना जयपुर के संस्थापक सवाई जयसिंह ने की थी। जयपुर की स्थापना के समय पूर्व दिशा की ओर से बनाए गए गेट का नाम भगवान सूर्य के नाम 'सूरजपोल' पर रखा गया था। पहाड़ी पर स्थित यह मंदिर दक्षिण मुखी है। इस मंदिर में भगवान सूर्य की प्रतिमा नहीं है। इसकी जगह एक बड़ा से चित्र स्थापित है। वर्तमान में इसी की पूजा होती है। दरअसल यहां पहले आठ इंच की अष्टधातु निर्मित भगवान सूर्य देव की आकर्षक प्रतिमा स्थापित थी। वर्ष 1979 में अज्ञात लोग पुजारी की हत्या कर इस दुर्लभ मूर्ति को यहां से चुराकर ले गए।माघ माह में शुक्ल सप्तमी को यहां सूर्य सप्तमी का पर्व मनाया जाता है। भगवान सूर्य के इस चिह्न का पंचामृत से अभिषेक किया जाता है। उसके बाद प्रात:काल एक शोभा यात्रा यहां से रवाना होती है।
५ - वस्तुतः सूर्य मंदिर है चित्तौड़ का कालिका मंदिर-
चित्तौड़गढ़ दुर्ग में स्थित कालिका मंदिर वस्तुतः आठवीं शताब्दी ईस्वी का सूर्य मंदिर है, जिसे अब कालिका माता मंदिर कहते हैं। मंदिर की जगती दुर्ग के धरातल से ऊपर उठी हुई है। इस ऊँची जगती पर बना हुआ यह मंदिर, चित्तौड़गढ़ दुर्ग के दक्षिणी भाग में जयमल और पत्ता की हवेलियों के दक्षिण में स्थित है।वर्तमान में देवालय के गर्भगृह में कालिका माता की प्रतिमा प्रतिष्ठित है, किंतु मंदिर के जंघा भाग तक के स्थापत्य और मूर्तियों को देखने से स्पष्ट होता है कि मूलतः यह सूर्य मंदिर था। रत्नचंद्र अग्रवाल इसे आठवीं शताब्दी ईस्वी का मानते हैं, जबकि पं गौरीशंकर हीराचंद ओझा ने इसे दसवीं शताब्दी ईस्वी में निर्मित होना माना है। माना जाता है कि आठवीं सदी ईस्वी में बापा रावल ने चित्तौड़ दुर्ग पर अपना अधिकार स्थापित किया तथा अपने कुलदेवता सूर्य की पूजा के लिये इस सूर्य मंदिर का निर्माण करवाया। इस दृष्टि से यह मंदिर इस दुर्ग परिसर की सबसे पुरानी रचना सिद्ध होता है।
मंदिर में स्थापित सब मूर्तियां एवं मूर्तिपट्ट जिस क्रम एवं प्रक्रिया में हैं, वे इस मंदिर के सूर्य मंदिर के रूप में निर्माण की कहानी कहते हैं। इस मंदिर में भगवान सूर्य की श्वेत प्रतिमा स्थापित है। सूर्य की प्रतिमा के हाथ में चक्र अनिवार्यतः उकेरा जाता है। यहाँ भी प्रतिमा के हाथ में चक्र उत्कीर्ण है, जो पद्म के समान आभासित होता है। वर्तमान में इसी प्रतिमा को काली की प्रतिमा कहा जाता है, लेकिन यह सही नहीं है। काली माँ की मूर्ति सफेद पत्थर की होती है, न कि काले पत्थर की। इसके अलावा एक बात और यह है कि काली की प्रतिमा में चक्र का अंकन नहीं होता है। सफेद पत्थर की प्रतिमा के पास काले पत्थर की काली की एक प्रतिमा भी स्थापित है, जो कि शास्त्र सम्मत नहीं है, क्योंकि किसी भी मंदिर में प्रधान देवता के एक ही स्वरूप की दो प्रतिमाएं स्थापित नहीं होती हैं।
मंदिर की जगती दुर्ग के धरातल से ऊपर उठी हुई है। मंदिर का प्रवेश द्वार पूर्वाभिमुख है तथा द्वार की तरफ जगती तक चढ़ने के लिये सात-सात सीढि़यों के खण्ड में विभाजित प्रवेश पथ है। मंदिर के गर्भगृह के भीतर अन्तर-प्रदक्षिणा पथ एवं बाह्य-प्रदक्षिणा पथ बना है।
मंदिर के गर्भगृह के प्रवेश द्वार के बाहर ऊपर की तरफ सात अश्वों के रथ पर आरूढ़ सूर्य की प्रतिमा बनी है तथा उसके बांई तरफ लक्ष्मी के साथ गरुड़ पर विराजित विष्णु और दाहिनी तरफ नन्दी पर बैठे शिव-पार्वती की प्रतिमाओं का अंकन है। गर्भगृह के उत्तर-दक्षिण में बनी ताकों में सप्ताश्व रथ पर आरूढ़ सूर्य की प्रतिमाएं अंकित हैं। गर्भगृह के बाहर जो प्रतिमाएं अंकित हैं वे है-
- एक हाथ में खड्ग तथा दूसरा हाथ अभय मुद्रा में अंकित अश्विनी कुमार
- गजारूढ़, वज्र एवं कमल धारी इन्द्र
- चतुर्बाहु अग्नि
- कमलधारी आसनस्थ सूर्य तथा
- खट्वांग धारण किए यम
- अपने वाहन मकर पर आरूढ़ वरुण
- अपने वाहन मृग के साथ वायु
- अपने वाहन अश्व के साथ चन्द्रम
- उत्तरी-पूर्वी दिशा के अधिपति देव ईशान
मंदिर के बाहरी भाग की ताकों में शिव-पार्वती, वराह, समुद्र मंथन आदि से सम्बन्धित मूर्तियां लगी हुई हैं। मंदिर का सभामण्डप पारम्परिक वृहद् स्तम्भों पर खड़ा है, जिन पर घट, पल्लव पत्र, लता, मकर, कीर्ति मुख, कीचक अभिप्राय आदि का अलंकरण किया गया है।
इस प्रकार अपनी वास्तु स्थिति एवं मंदिर के गर्भगृह के द्वार, ताकों एवं सभा मण्डप इत्यादि भागों पर किया गया प्रतिमा अंकन एवं अलंकरण इस मंदिर को दक्षिणी राजस्थान के इतिहास के समस्त युगों की अति विशिष्ट स्थापत्य रचना होना सिद्ध करता है।
६ - सूर्य मंदिर मंदेसर, उदयपुर (Sun temple, Mandesar, Udaipur)-
मेवाड़ क्षेत्र में 7वीं-8वीं शताब्दी से लेकर 11वीं सदी तक विभिन्न स्थानों पर सूर्य मंदिरों का निर्माण हुआ। चित्तौड्गढ़ का वर्तमान कालिका माता मंदिर मूलत: सूर्य मंदिर है। उदयपुर के महाराणा प्रताप हवाई अड्डे के पास मंदेसर गांव में भी एक सूर्य मंदिर है। इतिहासवेत्ता डॉ. श्रीकृष्ण 'जुगनू' के अनुसार स्थापत्य रचना के आधार पर मंदेसर का सूर्य मंदिर 10वीं सदी का माना गया है, किंतु यह 9वीं सदी में निर्मित हुआ होना चाहिए क्योंकि इसमें दिक्पाल दो भुजाओं वाले हैं और उनका विधान प्राचीन शिल्प की परंपरा को लेकर हुआ है। उनके आभरण-अलंकरण भी उसी काल के दिखाई देते हैं। सुरसुंदरियों आदि की मूर्तियां निश्चित ताल-मान के आधार पर ही बनी है। वर्तमान में इस मंदिर में ग्रामीणों ने बंसी वाले श्याम की प्रतिमा विराजित कर रखी है क्योंकि इसकी मूल प्रतिमा तो सालों पहले ही नदारद हो गई थी।
पूर्वमुखी यह मंदिर प्रवेश मंडप, सभा मंडप और गर्भगृह - इन तीन स्तरों पर नागर शैली में निर्मित है। मूलशिखर अब नहीं रहा किंतु, मंडप से लेकर गर्भगृह की बाहरी भित्तियों पर मूर्तियां खंडित ही सही, मगर मौजूद है। इनमें सूर्य के स्थानक और सप्त अश्वों पर आरूढ़ रूप की मूर्तियां अपने सुंदर सौष्ठव-सुघड़ता और भव्य भास्कर्य के लिए पहचानी जाती हैं। दिक्पालों एवं उनके आजू-बाजू सुर-सुंदरियों का तक्षण किया गया। दिशानुसार दिक्पालों के दोनों भुजाओं में आयुध बनाए थे तथा नीचे तालानुसार उनके वाहन को भी उकेरा गया है।
सुर-सुंदरियां गतिमयता के साथ प्रदर्शित की गई हैं। यहां मूर्तियों का केश विन्यास व आभूषण सज्जा अत्यंत रोचक है। इनमें पद, कटि, अंगुलियों, कलाइयों, भुजाओं, ग्रीवा, कर्ण, नासिका से लेकर सिर तक आभूषणों को धारण करवाया गया है। कहीं अलस-कन्या सी अंग रचना तो कहीं त्रिभंगी रूप में स्थानक रूप, सभी अनुपम है। उनके इर्द-गिर्द सिंह-शार्दूलों को उकेर कर कायिक वेग को साकार करने का जो प्रयास बहुत ही राेमांचकारी लगता है। मंदिर के पीछे प्रधान ताक में सूर्य की अरुण सारथी सहित सप्ताश्व रथ पर सवार प्रतिमा है, जबकि उत्तर-दक्षिणी ताकों में स्थानक सूर्य की प्रतिमाएं हैं। इन पर आकाशीय देवताओं, नक्षत्रों का मानवीकरण करते हुए प्रतिमाओं का अंकन किया गया है।
इतिहासवेत्ता डॉ. श्रीकृष्ण 'जुगनू' के अनुसार यह सूर्य मंदिर सालों पहले सूर्य आदि ग्रहों व नक्षत्रों के आधार पर आने वाले समय के सुकाल-अकाल होने की उद्घोषणा का केंद्र रहा है। यह मान्यता मेवाड़ के लगभग सभी सूर्य मंदिरों के साथ जुड़ी है, मगर अब ऐसी उद्घोषणाएं लोकदेवताओं के देवरों में होने लगी है। वर्तमान में यह मंदिर राजस्थान पुरातत्व विभाग के अधिकार में है।
७ - सूर्य मंदिर टूस, उदयपुर (Sun Temple Toos, Udaipur)-
टूस उदयपुर के समीप बेड़च नदी के तट पर स्थित है। मध्य दसवीं शताब्दी का सूर्य भगवान का यह मंदिर चित्तौड़गढ़ जाने वाली सड़क पर उदयपुर के पूर्व में लगभग 20 मील (32 किमी) दूर 'टूस' गाँव में स्थित है। महा-गुर्जर शैली में निर्मित इस मंदिर की मूल अधिरचना खो गई है। टूस का सूर्य मंदिर सौर- संप्रदाय की एकांतिक पूजा के लिए बना प्रतीत होता है, क्योंकि पूरे मंदिर में किसी अन्य देव की प्रतिमा उत्कीर्ण नहीं है। इस मंदिर के शिखर तथा मंडप चूने के पलस्तर से दुबारा निर्मित हुए हैं तथा इसका शिखर सपाट है। इसके गर्भगृह के सामने संकरा गलियारा मार्ग तथा पूर्व, दक्षिण और उत्तर में तीन प्रवेश द्वार युक्त एक सभामंडप है। दीवार के आलों में बैठे हुए सूर्य की प्रतिमा है, जबकि गर्भगृह के सामने मार्ग की बाह्य दीवारों पर सूर्य की खड़ी हुई मूर्तियों का अंकन है। सभामण्डल अष्टकोणीय ग़ुम्बदाकार छत से ढकी हुयी है, जिसमें कोष्टक बने है। इन कोष्टकों में हाथी के सिर पर आरुढ़ अप्सराएँ तथा मातृका मूर्तियाँ अंकित की गई है।राजस्थान के अन्य मंदिरों की तुलना में इस मंदिर के गर्भगृह के बाह्य ताखों की सभी मूर्तियाँ आकार में बड़ी है। इसके अंतराल की बाह्य भित्ति पर भी सूर्य की एक विचित्र प्रतिमा है, जिसे दो स्त्री मूर्तियों के साथ उत्कीर्ण किया गया है। इन स्त्रियों का अंकन सूर्यदेव की पत्नी के रूप में कम तथा अप्सरा मूर्तियों की मुद्रा में अधिक प्रतीत होता है।
८ - लोहार्गल सूर्य मंदिर (Sun Temple, Lohargal ) -
यह मंदिर राजस्थान के झुंझुनू जिले में स्थित है। यहाँ मंदिर के सामने एक प्राचीनतम पवित्र सूर्य कुण्ड बना हुआ है। मान्यता है कि यहाँ स्नान के बाद ही पांडवों को महाभारत युद्ध में हुई स्वजन हत्या के पाप से मुक्ति मिली थी तथा यहाँ के सूर्यकुंड में ही उनके हथियार गले थे। लोहार्गल का अर्थ है वह स्थान जहाँ लोहा गल जाए। पुराणों में भी इस स्थान का वर्णन है। झुन्झुनू जिले में अरावली पर्वत की शाखाएँ उदयपुरवाटी तहसील से प्रवेश कर खेतड़ी व सिंघाना तक निकलती हैं, जिसकी सबसे ऊँची पर्वत चोटी (1050 मीटर) लोहार्गल में ही है।
यहां प्राचीन काल से निर्मित सूर्य मंदिर लोगों के आकर्षण का केंद्र बना हुआ है। इसके पीछे भी एक अनोखी कथा प्रचलित है। प्राचीन काल में काशी में सूर्यभान नामक राजा हुए थे, जिन्हें वृद्धावस्था में अपंग लड़की के रूप में एक संतान हुई। राजा ने भूत-भविष्य के ज्ञाताओं को बुलाकर उसके पिछले जन्म के बारे में पूछा। तब विद्वानों ने बताया कि पूर्व के जन्म में वह लड़की मर्कटी अर्थात बंदरिया थी, जो शिकारी के हाथों मारी गई थी। शिकारी उस मृत बंदरिया को एक बरगद के पेड़ पर लटका कर चला गया, क्योंकि बंदरिया का मांस अभक्ष्य होता है। हवा और धूप के कारण वह सूख कर लोहार्गल धाम के जलकुंड में गिर गई किंतु उसका एक हाथ पेड़ पर रह गया। बाकी शरीर पवित्र जल में गिरने से वह कन्या के रूप में आपके यहाँ उत्पन्न हुई है। विद्वानों ने राजा से कहा, आप वहां पर जाकर उस हाथ को भी पवित्र जल में डाल दें तो इस बच्ची का अंपगत्व समाप्त हो जाएगा।
राजा तुरंत लोहार्गल आए तथा उस बरगद की शाखा से बंदरिया के हाथ को जलकुंड में डाल दिया। जिससे उनकी पुत्री का हाथ स्वतः ही ठीक हो गया। राजा इस चमत्कार से अति प्रसन्न हुए। विद्वानों ने राजा को बताया कि यह क्षेत्र भगवान सूर्यदेव का स्थान है। उनकी सलाह पर ही राजा ने हजारों वर्ष पूर्व यहां पर सूर्य मंदिर व सूर्यकुंड का निर्माण करवा कर इस तीर्थ को भव्य रूप दिया।
एक यह भी मान्यता है, भगवान विष्णु के चमत्कार से प्राचीन काल में पहाड़ों से एक जल धारा निकली थी जिसका पानी अनवरत बह कर सूर्यकुंड में जाता रहता है।
इस प्राचीन, धार्मिक, ऐतिहासिक स्थल के प्रति लोगों में अटूट आस्था है। भक्तों का यहाँ वर्ष भर आना-जाना लगा रहता है। यहाँ समय समय पर विभिन्न धार्मिक अवसरों जैसे ग्रहण, सोमवती अमावस्या आदि पर मेला लगता है किंतु प्रतिवर्ष कृष्ण जन्माष्टमी से अमावस्या तक के विशाल मेले का विशेष महत्व है जो पर्यटकों के लिए विशेष आकर्षण का केन्द्र रहता है। इस अमावस्या को मेले के कारण जिला कलेक्टर की ओर से जिले में अवकाश भी घोषित किया जाता है। श्रावण मास में भक्तजन यहाँ के सूर्यकुंड से जल से भर कर कांवड़ उठाते हैं। यहां प्रति वर्ष माघ मास की सप्तमी को सूर्यसप्तमी महोत्सव मनाया जाता है, जिसमें सूर्य नारायण की शोभायात्रा के अलावा सत्संग प्रवचन के साथ विशाल भंडारे का आयोजन किया जाता है। यहाँ चौबीस कोस की परिक्रमा भी की जाती है। परिक्रमा के बाद नर-नारी कुण्ड में स्नान कर पुण्य लाभ प्राप्त करते हैं।
पांडवों की प्रायश्चित स्थली की कहानी -
वैष्णव मंदिरों की तरह इस मंदिर में भी अब कोई देव प्रतिमा नहीं है। सिरदल की प्रमुख मूर्ति लक्ष्मीनारायण की है, जिसके दोनों ओर गणेश, ब्रह्मा तथा कुबेर एवं शिव की मूर्तियाँ उत्कीर्ण हैं। गर्भगृह के बाह्य तीनों दिशाओं की तीन प्रमुख ताकों में महिषासुर मर्दिनी, सूर्य एवं गणेश की प्रतिमाएँ उत्कीर्ण हैं। पृष्ठभाग की प्रमुख ताख में अंकित सूर्य प्रतिमा के अतिरिक्त अन्य सभी मूर्तियाँ वैष्णव या शैव संप्रदाय से संबद्ध हैं।
लोहार्गल सूर्यकुंड व सूर्य मंदिर की कहानी-
यहां प्राचीन काल से निर्मित सूर्य मंदिर लोगों के आकर्षण का केंद्र बना हुआ है। इसके पीछे भी एक अनोखी कथा प्रचलित है। प्राचीन काल में काशी में सूर्यभान नामक राजा हुए थे, जिन्हें वृद्धावस्था में अपंग लड़की के रूप में एक संतान हुई। राजा ने भूत-भविष्य के ज्ञाताओं को बुलाकर उसके पिछले जन्म के बारे में पूछा। तब विद्वानों ने बताया कि पूर्व के जन्म में वह लड़की मर्कटी अर्थात बंदरिया थी, जो शिकारी के हाथों मारी गई थी। शिकारी उस मृत बंदरिया को एक बरगद के पेड़ पर लटका कर चला गया, क्योंकि बंदरिया का मांस अभक्ष्य होता है। हवा और धूप के कारण वह सूख कर लोहार्गल धाम के जलकुंड में गिर गई किंतु उसका एक हाथ पेड़ पर रह गया। बाकी शरीर पवित्र जल में गिरने से वह कन्या के रूप में आपके यहाँ उत्पन्न हुई है। विद्वानों ने राजा से कहा, आप वहां पर जाकर उस हाथ को भी पवित्र जल में डाल दें तो इस बच्ची का अंपगत्व समाप्त हो जाएगा।
राजा तुरंत लोहार्गल आए तथा उस बरगद की शाखा से बंदरिया के हाथ को जलकुंड में डाल दिया। जिससे उनकी पुत्री का हाथ स्वतः ही ठीक हो गया। राजा इस चमत्कार से अति प्रसन्न हुए। विद्वानों ने राजा को बताया कि यह क्षेत्र भगवान सूर्यदेव का स्थान है। उनकी सलाह पर ही राजा ने हजारों वर्ष पूर्व यहां पर सूर्य मंदिर व सूर्यकुंड का निर्माण करवा कर इस तीर्थ को भव्य रूप दिया।
एक यह भी मान्यता है, भगवान विष्णु के चमत्कार से प्राचीन काल में पहाड़ों से एक जल धारा निकली थी जिसका पानी अनवरत बह कर सूर्यकुंड में जाता रहता है।
इस प्राचीन, धार्मिक, ऐतिहासिक स्थल के प्रति लोगों में अटूट आस्था है। भक्तों का यहाँ वर्ष भर आना-जाना लगा रहता है। यहाँ समय समय पर विभिन्न धार्मिक अवसरों जैसे ग्रहण, सोमवती अमावस्या आदि पर मेला लगता है किंतु प्रतिवर्ष कृष्ण जन्माष्टमी से अमावस्या तक के विशाल मेले का विशेष महत्व है जो पर्यटकों के लिए विशेष आकर्षण का केन्द्र रहता है। इस अमावस्या को मेले के कारण जिला कलेक्टर की ओर से जिले में अवकाश भी घोषित किया जाता है। श्रावण मास में भक्तजन यहाँ के सूर्यकुंड से जल से भर कर कांवड़ उठाते हैं। यहां प्रति वर्ष माघ मास की सप्तमी को सूर्यसप्तमी महोत्सव मनाया जाता है, जिसमें सूर्य नारायण की शोभायात्रा के अलावा सत्संग प्रवचन के साथ विशाल भंडारे का आयोजन किया जाता है। यहाँ चौबीस कोस की परिक्रमा भी की जाती है। परिक्रमा के बाद नर-नारी कुण्ड में स्नान कर पुण्य लाभ प्राप्त करते हैं।
पांडवों की प्रायश्चित स्थली की कहानी -
महाभारत युद्ध समाप्ति के पश्चात पाण्डव जब आपने भाई बंधुओं और अन्य स्वजनों की हत्या करने के पाप से अत्यंत दुःखी थे, तब भगवान श्रीकृष्ण की सलाह पर वे पाप मुक्ति के लिए विभिन्न तीर्थ स्थलों के दर्शन करने के लिए गए। श्रीकृष्ण ने उन्हें बताया था कि जिस तीर्थ में तुम्हारे हथियार पानी में गल जाए, वहीं तुम्हारा पाप मुक्ति का मनोरथ पूर्ण होगा। घूमते-घूमते पाण्डव लोहार्गल आ पहुँचे तथा जैसे ही उन्होंने यहाँ के सूर्यकुण्ड में स्नान किया, उनके सारे हथियार गल गये। उन्होंने इस स्थान की महिमा को समझ इसे तीर्थ राज की उपाधि से विभूषित किया।
९- ओसियां का सूर्य मंदिर (Sun temple, Osian)-
ओसियां में वैष्णव मंदिरों से कुछ ही दूरी पर सूर्य मंदिर बना है, जिसमें गर्भगृह, अंतराल, खुला प्रदक्षिणा पथ, सभामंडप तथा द्वारमंडप है। उपलब्ध साक्ष्य बताते हैं कि यह भी संभवतः पंचायतन प्रकार का ही मंदिर रहा होगा। यहाँ सूर्य के पुत्र रेवन्त और शनि की मूर्तियाँ भी प्राप्त हुई है। ओसियाँ के सुप्रसिद्ध मन्दिर की ताक में रेवन्त अश्वारूढ़ दिखाए गए हैं। उनके साथ एक श्वान है तथा पीछे अनुचर है। ओसियाँ से प्राप्त सूर्य प्रतिमाओं की वेशभूषा पर कुषाण कालीन कला का प्रभाव परिलक्षित होता है। यहाँ की एक सूर्य प्रतिमा में देवता को कुषाण वेशभूषा और घुटने तक जूते पहने हुए प्रदर्शित किया गया है।वैष्णव मंदिरों की तरह इस मंदिर में भी अब कोई देव प्रतिमा नहीं है। सिरदल की प्रमुख मूर्ति लक्ष्मीनारायण की है, जिसके दोनों ओर गणेश, ब्रह्मा तथा कुबेर एवं शिव की मूर्तियाँ उत्कीर्ण हैं। गर्भगृह के बाह्य तीनों दिशाओं की तीन प्रमुख ताकों में महिषासुर मर्दिनी, सूर्य एवं गणेश की प्रतिमाएँ उत्कीर्ण हैं। पृष्ठभाग की प्रमुख ताख में अंकित सूर्य प्रतिमा के अतिरिक्त अन्य सभी मूर्तियाँ वैष्णव या शैव संप्रदाय से संबद्ध हैं।
Jakas
ReplyDeleteThanks ji..
Deleteजोहार
ReplyDeleteThanks
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