नाथद्वारा की गोपाष्टमी -
कार्तिक शुक्ल अष्टमी को गोपाष्टमी में पूरे देश भर में मनाया जाता है। पुष्टिमार्ग में गौ सेवा का विशेष महत्त्व है। यह ऐसा संप्रदाय है, जिसमें गौपालन, गौ-क्रीड़न, गौ-संवर्धन आदि कार्य अतिविशिष्ट तरीके से किये जाते हैं। इसमें गौ-सेवा प्रभु की सेवा की भांति की जाती है। इसलिए महाप्रभु वल्लभाचार्य जी द्वारा प्रवर्तित पुष्टिमार्गीय संप्रदाय की प्रथम पीठ नाथद्वारा में भी यह गोपाष्टमी उत्सव अति विशिष्ठ तरीके से धूमधाम से मनाया जाता है। श्रीनाथजी के दर्शनों में आज भक्तजन गोपाल प्रभु के ''प्रथम गौचारण'' के मनमोहक स्वरूप को ह्रदय में आत्मसात करते हुए गोपाष्टमी के दर्शन का आनंद लेते हैं।
गोपाष्टमी की कथा
एक पौराणिक कथा अनुसार एकबार बालक श्रीकृष्ण ने माता यशोदा से गायों की सेवा करनी की इच्छा व्यक्त की थी और कहा था कि माँ मुझे गाय चराने अनुमति देवें। उनके कहने पर शांडिल्य ऋषि द्वारा कार्तिक शुक्ल अष्टमी का अच्छा मुहूर्त देखकर उन्हें भी गाय चराने ले जाने की अनुमति प्रदान की गई। गोपाष्टमी के शुभ दिन को बालक कृष्ण ने गायों की पूजा उपरांत गऊ माताओं की प्रदक्षिणा करते हुए साष्टांग प्रणाम कियाऔर फिर गौचारण किया था।
इसी उपलक्ष्य में गोपाष्टमी के अवसर पर भक्तों द्वारा गऊशालाओं व गाय पालकों के यहां जाकर गायों की पूजा अर्चना की जाती है। इसके लिए दीपक, गुड़, केला, लडडू, फूल माला, गंगाजल इत्यादि वस्तुओं से गौ पूजा की जाती है। महिलाएं गऊओं के पूजन से पूर्व श्री कृष्ण की पूजा करती है और फिर गऊओं को तिलक लगाकर पूजा करती हैं तथा आरती उतारती है। गायों को हरा चारा, गुड़ इत्यादि अरोगाया जाता है तथा उनसे सुख-समृद्धि की कामना की जाती है। कार्तिक माह की शुक्लपक्ष की अष्टमी तिथि के गोपाष्टमी पर्व पर शास्त्रों के अनुसार गायों की विशेष पूजा करने के विधानानुसार प्रात:काल गायों को स्नान कराकर उन्हें सुसज्जित करके गन्ध पुष्पादि से उनका पूजन करना चाहिए। इसके पश्चात यदि संभव हो तो गायों के साथ कुछ दूर तक चलना चाहिए। कहते हैं ऐसा करने से प्रगति का मार्ग प्रशस्त होता हैं। गायों को विशिष्ठ भोजन कराना चाहिए तथा उनकी चरण धूलि ''गोरोचन'' को मस्तक पर लगाना चाहिए। कहा जाता है कि ऐसा करने से सौभाग्य की वृध्दि होती है।
इसी उपलक्ष्य में गोपाष्टमी के अवसर पर भक्तों द्वारा गऊशालाओं व गाय पालकों के यहां जाकर गायों की पूजा अर्चना की जाती है। इसके लिए दीपक, गुड़, केला, लडडू, फूल माला, गंगाजल इत्यादि वस्तुओं से गौ पूजा की जाती है। महिलाएं गऊओं के पूजन से पूर्व श्री कृष्ण की पूजा करती है और फिर गऊओं को तिलक लगाकर पूजा करती हैं तथा आरती उतारती है। गायों को हरा चारा, गुड़ इत्यादि अरोगाया जाता है तथा उनसे सुख-समृद्धि की कामना की जाती है। कार्तिक माह की शुक्लपक्ष की अष्टमी तिथि के गोपाष्टमी पर्व पर शास्त्रों के अनुसार गायों की विशेष पूजा करने के विधानानुसार प्रात:काल गायों को स्नान कराकर उन्हें सुसज्जित करके गन्ध पुष्पादि से उनका पूजन करना चाहिए। इसके पश्चात यदि संभव हो तो गायों के साथ कुछ दूर तक चलना चाहिए। कहते हैं ऐसा करने से प्रगति का मार्ग प्रशस्त होता हैं। गायों को विशिष्ठ भोजन कराना चाहिए तथा उनकी चरण धूलि ''गोरोचन'' को मस्तक पर लगाना चाहिए। कहा जाता है कि ऐसा करने से सौभाग्य की वृध्दि होती है।
नाथूवास स्थित गौशाला में होता है विशेष पर्व -
गोपाष्टमी के दिन ही बालक नन्दकुमार श्रीकृष्ण पहली बार गौ-चारण हेतु वन में पधारे थे। आज से ही प्रभु श्रीकृष्ण को गोप या ग्वाल का दर्ज़ा मिला था। इस भाव से आज का उत्सव 'गोपाष्टमी' कहलाता है। व्रज में प्रभु श्रीकृष्ण की समस्त बाल लीलाएँ गौ-चारण करते हुए ही हुई थी, तभी तो प्रभु को गोपाल कृष्ण कहा जाता है। प्रभु गायों के बिना एक क्षण भी नहीं रहते थे। पुष्टिमार्गीय संप्रदाय के प्रणेता श्री महाप्रभुजी वल्लभाचार्य भी गौ-सेवा के प्रति पूर्णतः समर्पित थे। श्रीजी ने जब गाय मांगी तब आपश्री अपने आभूषण बेच कर प्रभु के लिए गाय लाए थे। आज भी श्रीनाथजी की नाथूवास स्थित गौशाला में लगभग 3000 से अधिक गौधन का लालन-पालन होता है।
गोपाष्टमी के दिन नाथूवास की गौशाला तथा मंदिर में विविध कार्यक्रम होते हैं। गौशाला के हेड-ग्वाल के सान्निध्य में गौशाला परिसर को रंगाई-पुताई कर रंग बिरंगी सजावट की जाती है। चित्रकारों द्वारा गौशाला में नयनाभिराम चितराम उकेरे जाते हैं। गोपाष्टमी के दिन गौशाला के सेवक ग्वाल बाल गायों की अष्टांग योग से सेवा करते हैं। आज वैष्णव विशेष रूप से गौशाला जाकर गायों को चारा, घास, लड्डू आदि खिलाते हैं। गोपाष्टमी पर श्रीनाथजी प्रभु की गौशाला में कई लोग पाड़ों-बिजारों को देखने पहुंचते हैं। ग्वाल-बाल पाड़ों, बिजारों को सिंदूर लगाकर, तेल की मालिश कर रजत, स्वर्ण रंग का लेप करते हैं। गायों को मयूरपंखी टिपारे का साज धराते हैं। ग्वाल बाल हीड़ का गान करते हैं। एक-दूजे की पीठ पर मेहंदी से थापे लगाते हैं। गायों को दलिया खिलाने के बाद गौ क्रीड़ा कराई जाती है।
आज के दिन उत्थापन उपरांत नाथूवास स्थित गौशाला में पाडों (भैंसों) एवं सांड की भिड़ंत कराई जाती है, जिसमें हजारों की संख्या में नगरवासी एवं आगंतुक वैष्णव गौशाला में एकत्र हो कर पाडों की लड़ाई का आनंद उठाते हैं। पाडों की लड़ाई के लिए ग्वाल-बाल कई माह पूर्व से इन्हें अच्छी खुराक खिला कर तैयार करते हैं।
गोपाष्टमी का श्रीनाथजी का सेवाक्रम –
गोपाष्टमी का पर्व होने के कारण श्रीनाथ जी मंदिर के सभी मुख्य द्वारों की देहरी को हल्दी से लीपा जाता हैं एवं आशापाल की सूत की डोरी की वंदनमाल बाँधी जाती हैं। आज सभी समय यमुनाजी के जल की झारीजी भरी जाती है। मंगला दर्शन पश्चात् प्रभु को चन्दन, आंवला एवं फुलेल से अभ्यंग (स्नान) कराया जाता है।आज के दिन श्याम आधारवस्त्र की पिछवाई में खण्डों में कशीदे की श्वेत गायों की झांकी होती है। गादी, तकिया के ऊपर लाल एवं चरणचौकी के ऊपर हरी बिछावट की जाती है। गौचारण के भाव से आज श्रीनाथ जी को मुकुट-काछनी का श्रृंगार धराया जाता है। प्रभु को मुख्य रूप से तीन लीलाओं शरद-रास, दान और गौ-चारण में मुकुट का श्रृंगार होता है। निकुँज लीला में भी मुकुट धराया जाता है। अधिक गर्मी एवं अधिक सर्दी के दिनों में मुकुट नहीं धराया जाता है। इस कारण देव-प्रबोधिनी एकादशी से फाल्गुन कृष्ण सप्तमी (श्रीजी का पाटोत्सव) तक एवं अक्षय तृतीया से रथयात्रा तक मुकुट नहीं धराया जाता। जब भी मुकुट धराया जाता है, तब वस्त्र में काछनी होती है। काछनी के घेर में भक्तों को एकत्र करने का भाव है। जब मुकुट धराया जाता है, तब ठाड़े वस्त्र सदैव सफ़ेद होते हैं। ये श्वेत वस्त्र चांदनी छटा के भाव से धराये जाते हैं। जिस दिन मुकुट धराया जाए, उस दिन विशेष रूप से भोग-आरती में प्रभु को सूखे मेवे के टुकड़ों से मिश्रित मिश्री की कणी अरोगायी जाती है।
इस ऋतु में मुकुट-काछनी का श्रृंगार अंतिम बार गोपाष्टमी को धराया जाता है। शीतकाल में मान आदि की लीलाएँ होती है परन्तु रासलीला नहीं होती, अतः मुकुट नहीं धराया जाता। आज से तीन दिन तक आठों समय में गौ-चारण लीला के कीर्तन गाए जाते हैं। वस्त्र में काछनी लाल व हरी छापा की धराई जाती है।
गोपाष्टमी के कारण आज श्रीजी को ग्वालभोग में मनोर (जलेबी-इलायची) के लड्डू, केसर युक्त बासुंदी की हांडी तथा राजभोग में अनसखड़ी में दाख (किशमिश) का रायता भोग लगाया जाता है। सखड़ी में केशरयुक्त पेठा, मीठी सेव व दहीभात व संजाब (गेहूं के रवा) की खीर अरोगायी जाती है।
आज गोपाष्टमी से फाल्गुन शुक्ल पूर्णिमा (होलिका दहन) तक संध्या-आरती में प्रतिदिन श्रीजी को शाकघर में विशेष रूप से सिद्ध गन्ने के रस की एक डबरिया (छोटा बर्तन) अरोगायी जाती है। इस अवधि में कुछ बड़े उत्सवों पर इस रस में कस्तूरी भी मिश्रित होती है।
आज संध्या-आरती दर्शन में छोटा वैत्र श्रीहस्त में धराया जाता है। दशहरे के दिन से प्रभु के सम्मुख काष्ट (लकड़ी) की गौमाता आती है, जो आज संध्या-आरती दर्शन उपरांत विदा होती है। प्रातः धराये मुकुट, टोपी और दोनों काछनी संध्या-आरती दर्शन उपरांत नहीं होते हैं और शयन दर्शन में मेघश्याम चाकदार वागा धराये जाते हैं। श्रीमस्तक पर लाल कुल्हे व तनी धराये जाते हैं। आभरण छेड़ान के (छोटे) धराये जाते हैं।
श्रीजी के आज धराये जाने वाले वस्त्र –
श्रीनाथजी को आज गोपाष्टमी को लाल रंग का रेशमी सूथन, मेघश्याम दरियाई वस्त्र की चोली एवं हरे छापा की बड़ी काछनी व लाल छापा की छोटी काछनी और रास-पटका (पीताम्बर) लाल दरियाई वस्त्र का धारण कराया जाता है। ठाड़े वस्त्र श्वेत जामदानी (चिकने लट्ठा) के होते हैं।श्रीजी का गोपाष्टमी का श्रृंगार -
आज वनमाला (चरणारविन्द तक) का भारी श्रृंगार धारण कराया जाता है। हीरे की प्रधानता सहित पन्ना, माणक एवं जड़ाव सोने के सर्व आभरण होते हैं। श्रीकंठ में हीरा, पन्ना, माणक के माला, दुलड़ा, हार आदि एवं कली कस्तूरी की माला आदि सब धराए जाते हैं। श्रीमस्तक पर हीरे की टोपी पर सोने का जड़ाव का मुकुट एवं बायीं ओर शीशफूल धराये जाते हैं। श्रीमस्तक पर लाल कूल्हे व तनी, श्रीकर्ण में हीरे के मयूराकृति कुंडल धारण कराए जाते हैं। आज चोटी नहीं धरायी जाती है। पीले एवं लाल विविध पुष्पों की थागवाली दो सुन्दर मालाजी धारण करायी जाती है। श्रीहस्त में कमलछड़ी, हीरा के वेणुजी व दो वेत्रजी धराये जाते हैं। पट काशी का व गोटी सोना की कूदते हुए बाघ बकरी की होती है। श्रृंगार दर्शनों में आरसी चार झाड़ की एवं राजभोग दर्शनों में सोना की डांडी की सम्मुख कराई जाती हैं।राजभोग दर्शन कीर्तन – (राग : सारंग)
गोपाल माई कानन चले सवारे l
छीके कांध बाँध दधि ओदन गोधन के रखवारे ll 1 ll
प्रातसमय गोरंभन सुन के गोपन पूरे श्रृंग l
बजावत पत्र कमलदल लोचन मानो उड़ चले भृंग ll 2 ll
करतल वेणु लकुटिया लीने मोरपंख शिर सोहे l
नटवर भेष बन्यो नंदनंदन देखत सुरनर मोहे ll 3 ll
खगमृग तरुपंछी सचुपायो गोपवधू विलखानी l
विछुरत कृष्ण प्रेम की वेदन कछु ‘परमानंद’ जानी ll 4 ll
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