प्रारम्भिक वैदिक समाज Vedic Period - Early Vedic Society
प्रारम्भिक वैदिक समाज कबीलाई समाज था तथा वह जातीय एवं पारिवारिक संबंधों पर आधारित था।
प्रारम्भिक वैदिक समाज जाति के आधार पर विभाजित नहीं था एवं विभिन्न व्यावसायिक समूह अर्थात् मुखिया, पुरोहित, कारीगर आदि एक ही जन समुदाय के हिस्से थे।
प्रारम्भिक वैदिक समाज में कबीले के लिए ‘जन’’ शब्द का इस्तेमाल किया जाता था और ऋग्वेद में विभिन्न जन का उल्लेख है।
विभिन्न कबीलों में पारस्परिक संघर्ष सामान्य थे, जैसे ऋग्वेद में ‘‘दशराज युद्ध’’ का वर्णन हुआ है और इसी युद्ध के वर्णन से हमें कुछ कबीलों के नाम प्राप्त होते हैं जैसे भरत, पुरु, यदु, द्रहयु, अनू और तुरवासू।
प्रारम्भिक वैदिक समाज में कबीलों के युद्ध जैसे कि पहले भी कहा गया है पशुओं के अपरहय एवं पशुओं की चोरी को लेकर होते रहते थे।
‘‘राजा’’ या ‘‘गोपति’’-
कबीले का मुखिया ‘‘राजा’’ या ‘‘गोपति’’ होता था। वह युद्ध में नेता तथा कबीले का रक्षक था। ‘‘राजा’’ या ‘‘गोपति’’ का पद अन्य व्यावसायिक समूहों की भांति ही पैतृक नहीं था बल्कि उसका जन के सदस्यों में से चुनाव होता था।
‘राजन्य’- योद्धा को ‘राजन्य’ कहा जाता था।
विश- कबीलाई इकाई को ‘‘विश‘‘ कहा जाता है। विश एक गाँव या ग्राम में बसते थे।
कुल - कुल या परिवार समाज की प्राथमिक इकाई था।
कुलप - परिवार का सबसे बड़ा पुरुष परिवार का मुखिया ‘‘कुलप’’ कहलाता था। कुलप परिवार की रक्षा करता था।
पितृसत्तात्मक समाज- प्रारम्भिक वैदिक समाज पितृसत्तात्मक था।
प्रारम्भिक वैदिक समाज में लोगों की सामान्य इच्छा पुत्र की प्राप्ति थी। पुरुष को महत्त्व दिया जाता था और श्लोकों से पता लगता है कि उन श्लोकों का प्रार्थना में लगातार प्रयोग पुत्र प्राप्ति के लिए किया जाता था।
महिलाओं की स्थिति- यद्यपि पूरा समाज पितृसत्तात्मक था, फिर भी समाज में महिलाओं का भी काफ़ी महत्त्व था। वे शिक्षित थीं और वे सभाओं में भी भाग लेती थीं। कुछ ऐसी महिलाओं के भी दृष्टांत मिले हैं जिन्होंने श्लोकों का संकलन किया। उनको अपना जीवनसाथी चुनने का अधिकार था एवं वे देर से विवाह कर सकती थी। इन सबके बावजूद महिलाओं के पिताओं, भ्राताओं तथा पतियों पर सदैव निर्भर रहना पड़ता था।
शिक्षा का मौखिक रूप से आदान-प्रदान किया जाता था, परंतु शिक्षा की परम्परा इस काल में अधिक लोकप्रिय नहीं थी।
दास या दस्यु- ऋग्वेद के रचनाकारों में स्वयं को अन्य मानव समुदायों, जिन्हें उन्होंने दास और दस्यू कहा, से पृथक् रखा।
दास शब्द को ऋग्वेद में अलग संस्कृति के दूसरे व्यक्ति को निरूपित करने के लिए प्रयोग किया गया है।
दासों को काला, मोटे होठों वाला, चपटी नाक वाला, लिंग पूजक और अशिष्ट भाषा वाला कहकर वर्णन किया गया है।
ऋग्वेद में दासों को अनुष्ठानों का पालन नहीं करने के लिए एवं एक प्रजनन पंथ का अनुसरण करने के लिए धिक्कारा गया है। वे सुरक्षित दीवारें बना कर रहते थे और प्रचुर पशुधन के स्वामी थे।
पणिस् - एक अन्य वर्ग पणिस् के विषय में जानकारी मिलती है जो धन और पशुओं के स्वामी थे। कालांतर में पाणि शब्द व्यापारियों और धन संपत्ति से जुड़ गया।
समुदायों में आपसी झगड़े और मैत्रियाँ होती रहती थी और उन्हें विभिन्न जातियों या भाषाई वर्गों के रूप में नहीं बांटा जा सकता। उदाहरणतः ऋग्वेद का सबसे प्रमुख नेता सुदास था जिसने ‘‘10 राजाओं’’ की लड़ाई में भरत कुल का नेतृत्व किया था। उसके नाम के अंत में प्रयुक्त दास शब्द से लगता है कि उसका दासों से कुछ संबंध था। एक ही क्षेत्र में कई समुदायों की उपस्थिति के कारण ही सम्भवतः वर्ण व्यवस्था का प्रादुर्भाव हुआ।
विभिन्न व्यवसायिक समूहों जैसे कि कपड़ा बुनने वाले, लोहार, बढ़ई, चर्मकार, रथ बनाने वाले, पुजारी आदि का वर्णन हुआ है।
सारथी का समाज में विशेष स्थान था।
ऋग्वेद में भिखारियों, मजदूरी पर काम करने वालों या मजदूरी का कोई दृष्टांत नहीं मिलता। परन्तु समाज में आर्थिक असमानता थी और हमें ऐसे संदर्भ मिलते हैं जिनके अनुसार कुछ धनी लोग रथों, पालतू पशुओं (गायों-बैलों) आदि के स्वामी थे और इन वस्तुओं को भेंट या उपहार में देते थे।
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