गांधार-कला प्रथम शताब्दी से लेकर चतुर्थ शताब्दी र्इसवीं तक भारत के उत्तर पश्चिमी भाग में विकसित एवं विस्तृत हुई कला का प्रतिनिधित्व करती है। इस स्कूल की कला-गतिविधियों का मुख्य केन्द्र इस क्षेत्र के साम्राज्य , यथा बैकिट्रया , कपिशा , स्वात एवं गांधार थे। गांधार शैली हेलेनिसिटक रोमन , र्इरानी एवं देशज कला का एक मिश्रण थी। इसकी अनेक सर्जनात्मक विशेषताएँ रोमन मृत्यु सम्बन्धी कला से रूपान्तरित है जबकि इसकी दैवी विशेषताएँ एवं श्रृंगा रात्मक तत्वों को हेलेनिस्टक एवं र्इरानी मूलों से ली गई है। कलात्मक अवयवों का यह अन्तर्सम्बन्ध मुख्यत: क्षेत्र की भौगोलिक स्थिति के कारण था जो सांस्कृतिक आदान-प्रदान के चौराहे पर था। इस क्षेत्र ने यूनानी वैकिट्रयार्इ से लेकर कुषाण तक अनेक विदेशी शक्तियों एवं राजनीतिक समाकृतियों के उदभव का दर्शन किया। गांधार स्कूल में प्रयुक्त मुख्य सामग्री धातु थी , यथा शाह जी की ढेरी (धो री) से प्राप्त कनिष्क पात्र में स्वर्ण प्रयुक्त हुआ है। इस शैली में जहाँ कहीं भी प्रस्तर प्रयुक्त हुआ वह प्राय: नीला अथवा धू सर स्तरित चट्टान और स
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